कुलदीप कुमार ‘आशकिरण’ की कवितायेँ
{मुझे डर लग रहा है}
मुझे डर लग रहा
क्योंकि !
मेरी संवेदनाएं निष्प्राण हो रही
और मैं दिशाविहीन।
मुझे डर लग रहा है
कहीं मैं मिस्टर प्रभाकर का
आवारा मसीहा होकर
दिशा की खोज में दिशाहारा से
दिशांत न हो जाऊं ।
मुझे डर लग रहा है
कहीं फिर से
प्रेमचंद के होरी की तरह
गाय की लालसा में
गो-दान ही न हो जाए।
मुझे डर लग रहा
कही फिर से
निराला के भिक्षुक के पेट-पीठ, कलेजे के
दो टूक न हो जाएं ।
मुझे डर लग रहा है
आज फिर रेल की पटरी में
खून के छीटों से चुपड़ी रोटी को देख कर।
मुझे डर लग रहा है
कोसों मील पैदल चल रहे
छाती से अपनी औलाद को चिपकाए
बूढ़े बाप को देखकर।
मुझे डर लग रहा है
इस झोली लटकाए
नंगे फकीर से
जिसने पहले ही हमे चेताया है
‘हम तो नंगे फकीर है
झोली लटकाए कहीं भी
जा सकते हैं।’
मुझे डर लग रहा
अपने आपसे
अपनी माँ और अपने बाप से
जिन्होंने इस जर्जर व्यवस्था में
लाकर धकेल दिया हमें।
मुझे डर लग रहा है
पर मेरा डर क्या सिर्फ मेरा अपना है
इसी उधेड़बुन में
मैं ब्रम्हराक्षस की तरह
मन की बावड़ी में गोते लगाता रहा।
और मेरा डर मेरे भीतर समाता रहा।
सच मुझे अब डर लग रहा है।
{माँ की संघर्ष गाथा}
दुनिया की तमाम मां है
जिनकी संघर्ष गाथा
चंद शब्दों में बयाँनही कर सकता ।
पर मैंने देखा है
अपनी माँ को इस समाज से उलझते हुए
संघर्ष करतें हुए ।
मेरी माँ गोर्की की माँ से भी ज्यादा
क्रांतिकारी है..
मैंने देखा है
अपनी माँ को इस समाज से टकराते हुए…
मुझे याद है
माँ को धान की लवनीनही आती थी
पर याद आतें है मुफ़लसीके दिन
जब वो दूसरों के खेतों में
धान भी लगाने जाती थी।
मुझे याद है चैत-बैसाख के वो दिन
जब गेहूँ काटने के बाद
भूखे पेट
महुआ बिनने में पूरी दोपहरी बिता देती थी ।
मेरा दुआर उसके सिर से ढोई माटी से
आज भी ऊँचा है ।
अब वो दीवारें नही है
जिनको माँ हर साल
गोबर में मिलाकर गीली माटी से
चिकना करती थी ।
मुझे याद है
रोटी बनाने के लिए जब वो
दूसरों के खेतों में
सरसों के डंठल काटती थी
एक मोटरी भूसे के लिए
दूसरों का भूसा बटोरती थी
एक बोझ चारा के लिए
भगत का चार बोझ चारा काटती थी ।
मुझे याद है
उसकी धोती में कई पैबंद लग चुके थे
फिर भी मेरे लिए
नई पैंट और छोटकी के लिए फ्रॉक
खरीद लाई थी ।
मुफ़लसी थी पर बहुत प्यार था
बाजरे की रोटी और बथुआ का साग
बड़े प्यार से खिलाती थी,
कई बार उसकी चप्पलों से
हमारी गाल लाल हुई
पर शाम को हल्दी-दूध भी दुलराकर पिलाती थी ।
मेरे पास उतने शब्द नही
कि पिरो सकूँ माँ की संघर्षगाथा को।
और आज जब संचारयंत्र से बात करती है तो
आँखे नम हो जाती हैं ।
{तुम्हारे पैरों की एड़ियां}
लोग देखते होंगें
तुम्हारे सुंदर मुख को
चिकने बदन को
मस्तानी चाल को
कूँचों और नितम्ब के उभार को।
कुछ पारदर्शी निगाहें
देख लेती होंगी
तुम्हारे दिल पर छपी अपनी भी
एक तस्वीर को ।
पर न जाने क्यों आजतक
किसी भी सौंदर्य में
मैं नही देख पाया इन प्रतिमानों को ।
मैंने देखा है..
तुम्हारे सुनहले बालों के बीच
गंजेपन को,
तुम्हारे गोरे गाल के नीचे
गर्दन के साँवले रंग को ,
तुम्हारे खूबसूरत लंबे नाखूनों के बीच
जमी गर्द को ,
और मैंने देखा जिसे तुम भी नही
देखती हो…
तुम्हारे पैरों की एड़ियों को
जो अषाढ़ की ककड़ी की तरह
फट गयीं है ।
(शोधार्थी- महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय)
E-mail- kumarkaas94@gmail.com