क्रांतिकारी – सीमा अहिरवार ‘ज्योति’ का लेख
आदमी के क्रांतिकारी विचारों का होना उसकी सोच नहीं है । बल्कि उन ढेर सारी वफादारियों का पुलिंदा है, जो उसके कर्तव्यों में शामिल था। ज़िंदगी की विवशता थी , और उसके जीने का तरीका। हम अक्सर सोचते हैं; लाल रंग, लाल ही होगा। व्यक्ति की सोच है। समाज में, हर आदमी की अलग सोच है, सभी अपने हिसाब से उस रंग में रंग मिलाते हैं , अपनी सुविधा के अनुसार । हर व्यक्ति क्रांतिकारी नहीं होता, कभी-कभी समाज को जो ज्यादा जानने लगते हैं, और उसे बदलना चाहते हैं , उसके बनाए नियम उनके लिए महत्वहीन होते हैं; और वे उन्हें दरकिनार कर अपने नियमों को उजागर करते हैं।
जाहिर है , नई चीज और पुरानी चीज में टकराहट होने लगती है। पुरानी चीजें नई चीजों के सामने कमजोर साबित होने के भय से समूह में होकर उस नई चीज को धराशाई कर तोड़ देने का प्रयास करते हैं । क्योंकि वह एक मजबूत इकाई होती है , उसमें सबको आनंद आता है। और आए भी क्यों नहीं! क्योंकि, सत्य पर आधारित होता है।
सत्य, आदमी की गहरी खोजो का परिणाम है ।
बहुत से लोग झपटते हैं, बाजों और गिद्धों की तरह, क्योंकि उनके कद छोटे हैं; और वे उसके आकार से डर रहे हैं, और वे उसे वहीं दफन कर देना चाहते हैं। कभी कभी वे लोग भी क्रांतिकारी होते हैं जो समाज को जानते नही;
हां! वो खुद को ही जानते हैं बस। और उनके सोचने विचारने में समाज की सोच शामिल नहीं होती। उनका मानना होता है कि जिस इमारत को बने बरसों हो गए हैं, और वह काफी क्षतिग्रस्त हो चुकी है। जिसमें रहते हुए नई पीढ़ी का दम घुट सकता है। उसको शुद्ध हवा और पांव फैलाने के लिए पर्याप्त जगह नहीं है। तब एक हवादार बंगले को अपनी कल्पनाओं में निर्मित करने लगता है , और कल्पना शक्ति उसे सोने नहीं देती। लेकिन संयुक्त परिवार की नींव पर आधारित समाज में उसे बेवकूफ ठहरा कर अलग-थलग करके हिकारत और घृणा की दृष्टि से देखा जाता है। और वह अपनी ही सोच के साथ उस पुरानी सी इमारत के किसी तहखाने मे बंधक की तरह बाकी जीवन व्यतीत करता है। क्रांतिकारी उस पतंगे की तरह होता है, जो उजाले से प्यार करता है। वह उससे लिपटना चाहता है, उसे छूना चाहता है। उसे अपने प्राणों की परवाह नहीं होती, बल्कि वो पूरे समाज को, समुदाय को, उस उजाले की आभा से परिचित कराना चाहता है, जो उसकी आंखों, उसकी बातों, और उसके खून की शिराओं में बह रहा है। वह आनंद जो परमानंद के समान है।
क्रांतिकारी वह महापुरुष होता है जिसके लिए लोग खुलकर नहीं रोते हैं। लेकिन अकेले में उसके लिए सारा समुदाय आंसू बहा रहा होता है। क्योंकि हर आदमी उसे शत-शत नमन करना चाहता है। क्योंकि जो अपने लिए जिंदगी नहीं मौत चुनता है, वह बुरा कैसे हो सकता है?
जो तमाम जिंदगियों के लिए जी रहा था, और उनके ही लिए मर रहा था, उसमें अपने कुछ व्यक्तिगत हित नहीं थे। पर वह व्यक्तिवादी था, जो समन्वय चाहता था। जिसकी कमर सीधी,सीना चौड़ा था,आंखें सीधी और सोच गहरी थी, जिसने समाज की गंदगी को हटाने के लिए जैसे खुद को ही जिम्मेदार मान लिया हो । उसे उन ढेर सारे निर्बल लोगों से बल मिल रहा था। वह खुद में कई भुजाएं महसूस कर रहा था, उसका दायरा असीमित और किरदार महत्वपूर्ण था। उसके अंदर एक ही नारा चल रहा था,
“कर अंत उन सब का जो सबके लिए ठीक नहीं है, जिन से कुछ लोगों के ही स्वार्थ सिद्ध होते है, वे कायदे ठीक नहीं हैं।“
@ सीमा अहिरवार ‘ज्योति’