गौरव सिंह की कविताएँ

 गौरव सिंह की कविताएँ

[ पिता]

बारिश की मार में,
छाते‌‌ कि तरह,
ठिठुरती ठंढ में ,
गर्म कंबल की तरह,
गर्मियों की लु में,
शीतल जल की तरह,
कड़कती धूप में,
घनी छांँव की तरह,
मकान की दिवारों में,
मजबूत छत की तरह,
और हर कठिन राह में,
जो बनकर कंधा ,
सबका सहारा होता है
वो एक पिता होता है।
वो एक पिता होता है।

मारकर भुख अपनी जो,
पेट सबका भरता है,
अपने कपड़ों से पहले,
तन बच्चों का ढकता है,
सह लेता है सारे ग़म,
ना कुछ घर में कहता है,
खाकर राहों की ठोकर,
जो ना उफ़ तक करता है,
जिसको अपने,
सुख दुख की परवाह नहीं,
अपनों के लिए ही जीता है,
उनकी राहों के,कंकड़  चुन,
खुद कांटों पर चलता है,
और अपने बच्चों की,
खुशियों की खातिर,
हर बार जो जीता मरता है,
वो एक पिता होता है।
वो एक पिता होता है।

[मेरे गांव के कुछ बच्चे]

हम पहुच गए हैं,
चन्द्रमा पर, और
मंगल के बहुत करीब हैं,
संसद राज्यसभा में अब,
ना कोई गरीब है,
शहरों और गांवों में,
विकास की रफ्तार है,
हर तरफ सिर्फ चर्चा,
और चुनाव की बयार है,
अन्नदाता भूखा है और,
मेहनतकश बेहाल है,
जीते हारे कोई भी, पर
हाथ जनता के बेरोजगार हैं।

मर रहा है गावं, किसानों का,
खेतों में सिर्फ दर्रे है,
हर  जमीन के टुकड़े पे,
अब हजारों कब्जे हैं,
सड़कें गलियां हो गईं पक्की,
पर बस्ती के घर कच्चे हैं,
मिट्टी के गिरते घरों के उसपार,
अब कुछ मकान पक्के हैं,
और राजधानी के सारे,
महल अब रंगबिरंगे हैं,
पर ,मेरे गांव के कुछ बच्चे,
आज भी भूखे नंगे हैं,
क्यूं, मेरे गांव के कुछ बच्चे,
आज भी भूखे नंगे हैं??????

【 हल और हाथ 】

जंग खाए हुए
लोहे के हल,
हरा बनाते हैं जो ,
पथरीली जमीन को भी ,
आज विवश हैं
जंग लगी व्यवस्था से ,
और थक हार  कर
मजबूर हैं चीरने को,
पथरीला सीना,
अपनों के हाथो से ही ,
बनी निर्मम व्यवस्था का ,
जो रोज दे रही है
उनके ही हाथो में,
लाल – हरे घाव।
और उनका अपना दर्द
उनकी आवाज,
खोती जा रही है ,
बरसती लाठियों ,
झूठे आश्वाशन
और चुनावी सभाओं
के शोर में……..   ।

【 प्रवासी मजदूर 】

पेट भूखे, जिस्म सूखे,
भूख को कसे हुए,
सड़क किनारे हैं बसेरे,
धुल से अटे हुए ।
हाथ को है काम नही,
पैरो में जान  नही,
हड्डियों का ले सहारा,
जीने को डटे हुए ।
साल के हर एक दिन,
चादरें हैं  धुल की,
चंद टुकड़े चिथड़ो के,
आबरू को ढके हुए ।
रोटियों के ठौर को ही,
नाम उनकी ज़िन्दगी है,
मौत का शिकन नही,
हर रोज़ उससे लड़े हुए ।
उनके हाथों से बने,
शहर हुए हरे भरे,
उनके हिस्से  आए हैं,
बस दो निवाले और वायदे।
क‌ई रास्ते ऊपर से उनके,
हर रोज़ ही निकल रहे,
दौड़ते से तेज़ कदम,
उनपे हो गुज़र रहे,
पर मौन से, वो बेखबर,
बाहरी हर शोर से,
रेत  सी इस ज़िन्दगी में,
हैं सदियों से धंसे हुए ।

【  माँ और हम 】

हर घर में होती है,
हर छोटे बड़े कामो मे ,
मशीन सी अस्त व्यस्त ,
एक माँ ,
जो खटती रहती है,
घर भर की जरूरतों,
इच्छाओं व
हर खुशी के लिए,
दिन रात ,
बिना कुछ मांगे,
बिना किसी शर्त,
एक बेगारे मज़दूर की तरह |
गर किसी को भी हो जाये
सर्दी या जुकाम ,
वो कर देती है
दवाईयों ,काढ़े व
ढेर सारी नसीहतोँ की बौछार,
और हमे ,
पता तक नहीं चल पाता,
कि कब हुआ माँ को
सरदर्द या बुखार |
माँ भी तो इंसान है,
उसके भी तो कुछ अरमान हैं,
हम ये कभी,
सोच नहीं पाते,
और उसकी अपनी सोच,
सपने व जरूरते,
जिन्हें कोई,
जानना नही चाहता ,
तोड़ती रहती हैं,
दम घुट घुटकर ,
और वो ऐसे ही
बीना कुछ बताये,
बिना कुछ जताये
चलाती रहती हैं,
घर की गाड़ी,
हमेशा ही,
कभी सरसों, तो कभी,
मिटटी का तेल बनकर ..।

(डॉ गौरव कुमार सिंह,
गांव – खुटारी,
पोस्ट – कलवारी,
थाना – मड़िहान,
ज़िला – मिर्जापुर
ऊत्तर प्रदेस, २३१२१०)

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