जीवन के संध्या काल में

तेज प्रताप नारायण

जीवन के संध्या काल में
जब नातिन -नातियों के नाना नानी
पोते -पोतियों के दादा दादी
सुकून के दो पल ढूढ़ते हैं
दो समय की रोटी और
सर छुपाने के लिए छोटा सा घर ढूँढ़ते हैं

तो उन्हें मिलता है
लड़ाई झगड़े का कोलाहल
आपसी रिश्तों की हल चल
उनके बेटे -बेटियां बड़े हो जाते हैं
स्वार्थ और लालच की कालीन पर खड़े हो जाते हैं
बूढ़े माँ बाप की न चिंता होती है
उनके अस्तित्व की कोई न उपयोगिता होती है
माँ बाप एक घिसे औज़ार हो जाते हैं
बिना धार के हथियार हो जाते हैं

हद तो तब हो जाती है
जब माँ बाप को टुकड़ों में बाँट दिया जाता है
महीनों और दिनों में काट दिया जाता है
तीन महीने तुम खिलाओ
तीन महीने हम खिलाएंगे
माँ मेरे घर रहेगी
पिता तुम्हारे घर जायेंगे

जिगर के टुकड़े
दिल के टुकड़े करने लगते हैं
दो समय की रोटी भी मुहाल हो जाती है
कमज़ोर तन का बुरा हाल कर जाती है
घर के एक कोने में खांसते -खांसते
लकड़ी की एक छड़ी का सहारा लेकर चलते -चलते
साँसों के बंद होने का इंतज़ार करते हैं
नालायक बच्चे माँ -बाप का ऐसा हाल करते हैं

जिन बच्चो की खातिर
दुनिया से लड़ते – लड़ते
बच्चों के भविष्य के लिए
त्याग करते -करते
माता -पिता बूढ़े और असमर्थ हो जाते हैं
वही त्याग दिए जाते हैं
लापरवाही और स्वार्थ की गोली से दाग दिए जाते हैं !

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