‘ टेक्निकल लव ‘ पर एक पाठक की सामान्य राय

उपन्यासकार:तेज प्रताप नारायण

प्रकाशक:साहित्य संचय ,समीक्षक :,रजनीश संतोष

रजनीश संतोष प्रसिध्द ग़ज़लगो,कवि और लेखक हैं

Tej Pratap जी के पहले उपन्यास ‘टेक्निकल लव’ (साहित्य संचय से प्रकाशित) के बारे में एक सामान्य पाठक की अपनी राय। “
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काफ़ी अरसा हो गया जब उपन्यास ख़ासकर भारतीय लेखकों को पढ़ना छोड़ दिया था। वक़्त भी नहीं था और इच्छा भी नहीं। ऐसा नहीं कि वो अच्छा नहीं लिखते होंगे, लेकिन बड़े से बड़े लेखक को पढ़कर भी यही महसूस हुआ कि जातिवाद से अभी तक पार नहीं पा पाए हैं। एक बुनियादी फ़र्क़ है मेरी समझ और उनकी समझ में जो मुझमे विरक्ति पैदा करती है, और मैं काफी अर्से तक कोई उपन्यास पूरा पढ़ नहीं पाया तो फिर पढ़ना छोड़ ही दिया।
पिछले कुछ वक़्त में मैंने खुद को कविताओं, लेखों, जीवनियों, संस्मरणों, विज्ञान, मनोविज्ञान को पढ़ने में थोड़ा ज़्यादा सहज महसूस किया। फिक्शन पढ़ा तो साइंस फिक्शन, जो कि मेरा पसंदीदा विषय भी है ,और साइंस फिक्शन में भारतीय साहित्यकार लगभग अशिक्षित हैं।
तेज प्रताप जी को मैं एक कवि के रूप में ही जानता था और उससे पहले एक बेहतर इंसान के तौर पर। जब उन्होंने उपन्यास लिखने की बात कही तो मेरा रिएक्शन कुछ ख़ास नहीं था। मित्र होने के नाते हौसलाअफ़ज़ाई ज़रूर की लेकिन ईमानदारी की बात यह है कि मैं कतई ख़ास उत्साहित नहीं था।
इस बीच उनका उपन्यास आया भी, लोगों ने खूब पढ़ा और सराहा भी। कई समीक्षाएं भी देखीं पर मेरे पास उनका उपन्यास ज्यों का त्यों पड़ा रहा।
पिछले दिनों मैंने तेज जी से कहा कि समीक्षा लिखूँगा तो आपको इस बात के लिए तैयार रहना होगा कि सिर्फ़ तारीफ़ नहीं होगी। जहाँ जैसा महसूस करूँगा लिख दूँगा। तेज जी का जवाब था कि एक मित्र से यही अपेक्षा भी करते हैं वो।
अब मैं कोई समीक्षक तो हूँ नहीं और न ही साहित्यकार, इसलिए ‘टेक्निकल लव’ के बारे में जो भी राय रखूँगा वह एक पाठक की समझ और उसके विचार होंगे। वह भी बहुत कम शब्दों में।

एक अदने और सामान्य पाठक के तौर पर मैं उपन्यास को चार श्रेणियों में बाँट कर देखता हूँ…

१-जो आपको पढ़ते वक़्त बाँधे रखते हैं मगर उपन्यास ख़त्म करने के बाद आप उसे भूल जाते हैं। यानी वह आपके मन में कोई स्थाई विचारश्रंखला नहीं छोड़ते।
२-जो आपको पढ़ते वक़्त बाँधे नहीं रख पाते मगर उनमे कही गयी कई बातें आपको लम्बे समय तक सोचने पर मजबूर किये रहती हैं।
३.जिनमे इन दोनों बातों का अभाव होता है
४- जिनमे ये दोनों ख़ासियतें होती हैं

तो एक पाठक के तौर पर बहुत आश्चर्यजनक तरीके से ‘टेक्निकल लव’ मेरी लिस्ट में चौथी तरह का उपन्यास साबित हुआ।

आपको पढ़ते हुए बराबर यह अहसास होगा कि लेखक कहानी, दर्शन,और भारतीय सामाजिक मनोविज्ञान के बीच बराबर झूल रहा है और इनके बीच संतुलन बनाने का अथक प्रयास कर रहा है और इसमें काफी हद तक सफल भी है।

एक बात को लेकर मैं अभी पूरी तरह संतुष्ट नहीं हूँ और वह है लेखक की अपनी ख़ुद की कथा शैली। जो पूरी यात्रा के दौरान अस्पष्ट सी रह जाती है। यह तय है कि लेखक की शैली बहुत अलग है, जिसे आप नोटिस किये बगैर नहीं रह सकते लेकिन अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। शायद पहले उपन्यास में मैं कुछ ज्यादा उम्मीद कर रहा हूँ।

मगर एक बड़ी ख़ास बात यह है कि लेखक आपको बिना किसी नाटकीय मोड़ या झटका दिए बगैर ही बाँधने सफल रहता है और इस बात के लिए लेखक बधाई का पात्र है।

जो लोग इंजीनियरिंग बैकग्राउंड से नहीं हैं उनके लिए शायद यह बात इतनी मायने नहीं रखती हो, लेकिन लेखक ने अपने इंजीनियरिंग बैकग्राउंड का भरपूर उपयोग किया है, इंजीनियरिंग कॉलेज की गतिविधियों की बारीकियाँ उकेरने में। मैं देखना चाहूँगा कि जब लेखक इससे इतर बैकग्राउंड पर कुछ लिखेगा तब क्या इतनी ही बारीक रिसर्च करने की ज़ेहमत उठाएगा। फिलहाल यहाँ तो वह अपने जाने पहचाने मैदान पर खेल रहा था तो बेहतरीन रहा।

पात्रों के चयन में कोई नयापन नहीं है इसके अपने फायदे भी हैं और नुकसान भी।

एक ख़ास बात और है कि कहानी में कोई खलनायक या खलनायिका नहीं है। और हम भारतीय साहित्य में ऐसी कहानियों के आदी नहीं हैं। यहाँ कुछ पाठकों को निराशा हो सकती है।

महिला किरदारों को पढ़कर आपको कतई ऐसा नहीं लगेगा कि यह एक पुरुष द्वारा रचा गया किरदार है। इनफैक्ट मैंने आधा उपन्यास पढ़ते ही तेज जी को फोन करके यह कहा कि इस उपन्यास में भाभी जी के योगदान के लिए उन्हें आपको धन्यवाद देना चाहिए। यानी मैंने पूछा भी नहीं, मैं एकदम श्योर था कि महिला किरदारों और उनके डायलॉग्स में लेखक की पत्नी का योगदान है ही। आश्चर्य तब हुआ जब यह पता चला कि उन्होंने तो उपन्यास की मूल प्रति भी नहीं पढ़ी थी। जब उपन्यास छपकर आया तब उन्होंने पढ़ा। मुझे अपनी गलती पर शर्मिंदगी महसूस हुई। लेकिन लेखक के लिए यह एक कॉम्प्लीमेंट है अगर उसका पाठक ऐसा सोचे।

उपन्यास का अंत सामान्य मगर प्रभावशाली है। न दुखांत है न सुखांत है। दरअसल उपन्यास का अंत है, कहानी का नहीं। मुझे नहीं पता लेखक के मन में क्या था मगर हमेशा मेरा मानना यही रहा है कि कहानी का अंत नहीं होता। और जिसका अंत हो वह कहानी नहीं होती। कहानी सतत चलती है। एक लेखक के तौर पर आप उसका कोई टुकड़ा पाठक तक पहुँचा सकते हैं।

तो एक पाठक के तौर पर मेरी राय यह है कि अगर आप कुछ बेहतर रचनात्मक और सकारात्मक पढ़ने के इच्छुक हैं जो कि हिंदी साहित्य में बहुत इक्का दुक्का मिलता है तो आपको यह छोटा सा उपन्यास ज़रूर पढ़ना चाहिए। अगर आप तथाकथित साहित्य समीक्षक हैं तो गलती से भी इसे न पढ़ें।

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