‘परिवर्तन’ अनुराधा की कविताओं से

गोंडा ,उत्तरप्रदेश की युवा कवयित्री अनुराधा मौर्या की कविताएं आधी आबादी की गूँजती आवाज़ हैं जो मानो समाज को,परिवार को झकझोर देना चाहती हों ।Email-anupearl2018@gmail.com

[ समाज के अजीब समीकरण]

मैं उलझ पड़ती हूँ !
समाज के उन अजीब समीकरणों में
जिनमे लड़को के लिए
दो और दो चार
पर मेरे लिए सिर्फ तीन ही रह जाते हैं।

मेरे लिए रातें स्याह,
और उनके लिए रंगीन हो जाते हैं
तुम्हारे लिए सारा संसार घर
मेरे लिए घर सारा संसार

मेरी शिक्षा और औपचारिकता
तुम्हारे तुम्हारे जीवन का आधार
मैं भी जाना चाहती हूं
उस दूर क्षितिज पर
जहाँ जमी आसमां भी मिल जाते हैं।

फिर घात कितने भी हों समीकरण के,
सभी ‘शून्य’ में बदल जाते हैं ।

[प्रतिबिम्ब]

मन की शांत स्थिर
निर्मल झील की
सतह पर
कब तुम्हारी
आत्मा के अभ्र का
प्रतिबिम्ब कायम हो गया,,,,,

न सिर्फ व्योम ही
उस प्रांगण पर
जब भी अम्बुद छाए
जब कभी भी
नव चंद्र नक्षत्रेश
उदित हुआ
झील के शांत जल में
सुस्पष्ट प्रतिबिम्बित हुआ,,,,

क्या तुमने भी
कभी अपने मन की
झील के चंचल शम्बर में
मेरी आत्मा के
नभ की परछाईं
देखने का प्रयत्न किया,,??

क्या कभी उस बिम्ब में
कोई दृश्य दृष्टिगोचर हुआ,,??

कभी फुरसत मिले
तो मेरे प्रश्न का
उत्तर जरूर देना,,,।।

[ मेरी स्वीकरोक्ति ]

हां! मैं स्वीकार करती हूँ!

वो मैं ही थी,,,,

जिसने तुम्हारी कठोरता को तोड़ा था!
जिसने तुम्हारी जंजीरों को उजेड़ा था!

जिसने तुम्हारी तलाशों का राश्ता रोक दिया था!
जिसने तुम्हे इश्क़ की दरिया में झोंक दिया था!

जिसने तुम्हारे सर्वस्व को प्रेम के लिए अर्पण किया था!
जिसने प्रेम को ही तुम्हारे जीवन दर्पण किया था!

तुम्हारे सुकून का बहती दरिया थी!
तुम्हारे प्रेम को पहचानने की जरिया थी!

जो तुम्हारे भीतर चला रही द्वंद थी!
जो तुम्हें जज़्बातों में किये बंद थी!

जिसने तुम्हें अपने प्रेम की खातिर त्यागी बनाया!
जिसने तुम्हे प्रेम न पाने पर बैरागी भी बनाया!

जो तुम्हारे प्रेम और समाज के बीच की आंधी थी!
जिसने तुम्हें ऐसा बनाया, मैं ही तो तुम्हारी अपराधी थी!

मैं तुम्हारी कौन थी?

जिसके काबू में तुम्हारा हृदय और भावना थी!
मैं तो तुम्हारे साथ सदैव जीती आयी तुम्हारी ‘अंतर्मन’ थी।

प्रिय,

हां मैं स्वीकार करती हूँ,

कि तुम मेरे प्रियतम हो!
जीवन के कोरे पन्नो को
रंग दिया है मैंने भी,
तुम्हारे ‘प्रीत की स्याही’ से।।

[ काश के परे ]

खंगाला अतीत को
स्मृतियों की चुटकी डालकर
उभर आईं स्पष्ट आकृतियां
खिजाने लगीं आज को

धिक्कार है!
बिता दिया जीवन काश में
उड़ न सकी खुले आकाश में

पंख नहीं थे !
काश जमाकर पाँव धरती पर
भर जाती मन की उड़ान
होती मेरी भी पहचान

झिंझोड़ कर जगा दिया किसी ने
काश के परे,
यथार्थ के तले
आज में कर गुजरना है
स्वप्न से जगकर
अंधेरा मिटा भोर का स्वागत करना है

रात्रि से पहले,
काश से परे
खुले आसमान तले चहकना है

जीवन प्रीताञ्जुली से भरना है।

 [ यादे ]

मन क्या है??

एक यादों का लबालब भरा घड़ा!

जो जरा सा भी हिले तो
बस छलक छलक जाए।

अजब है खोने पाने का खेल

कभी कभी हम कुछ न पाकर भी
उसे उम्र भर खो नहीं पाते

कई कई ऐसे रंग
जो हमसे अपना नाम मांगते हैं

कई कई ऐसे क्षण
जो मन की बारह खड़ी बांचते हैं

चैन तो फुटपाथ पर भी मिल जाता है
और बेचैनी महलों को ललकारती है

फिर भी अतीत के अजायब घरों को हम
वर्तमान की छत पर ही खड़े हो कर देख पाते हैं।

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