पूनम भार्गव ज़ाकिर की कविताएँ

आगरा की कवयित्री पूनम भार्गव” ज़ाकिर दक्षिनांचल विद्युत वितरण निगम लिमिटेड (UPPCL) के अधीन कार्यरत हैं ।
मूलरूप से चित्रकार हैं ।इनकी कविताएँ विभिन्न साझा संग्रहों जैसे 100 क़दम,अहसास की दहलीज़ पर,पर्दे के पीछे की बेख़ौफ़ आवाज़ें
“शब्दों की अदालत में, चिनगारियाँ ,निलाांबरा आदि में छप चुकी हैं।
ई- पत्रिका अल्फ़ाज़, हस्ताक्षर वेब पत्रिका,अमर उजाला काव्य, जीनियस अचीवर,सुवर्णा, यथावत,लोकस, कथादेश, कथाक्रम,माटी, अर्य सन्देश, कथाचली, हंस, स्वर्णवासी, पुरवाई एवं साहित्यिक पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों में कविताओं का निरन्तर प्रकाशन होता रहता है ।

आकाशवाणी आगरा से, विश्व पुस्तक मेला-2017 में ऑर्थर गिल्ड ऑफ इंडिया के मंच से, राष्ट्रीय साहित्य उत्सव एवं पुस्तक मेला एवं काव्यगोष्ठियों में काव्यपाठ एवं लघुकथा वाचन भी किया है ।
कागज पर छपने से ज्यादा कविताएँ और कहानियां दिलोदिमाग पर छपें ऐसा इनका ख़्वाब है ।

लालसाएँ

बस एक लाल फुग्गा
हथेलियों में रखकर
नील झरने के नीचे
ठंडी धारा में मसलूँ
किर्र-किर्र के संगीत पर
सजा लूँ होठों पर एक प्रीतराग
वीतराग को पकड़ कर
बांध दूँ चीड़ के कत्थई तने से
छान लूँ हवाओं से चांदी बूंदे
एक पत्थर जो मिले चिकना
तो… फिसलूँ ऐसे कि
सम्भलने की फिक्र न हो
गिरूँ तो …रुई से भी फोके श्वेत बादल
सहेज कर मुझे गीला सा
एक स्पर्श दे जाएं
तो मैं….. एक ठुमका लगाकर
उछालूं दुपट्टा
खेलूँ एक पांव से
इक्की-दुग्गी
रस्सी कूद पर
नृत्य करतीं मेरी शिराएं
उन्मुक्त आकाशवाणी कर दें
कि सभ्यता से निकल
अब जंगली हो जा
तो मैं… फिरूँ देवदार के जंगल-जंगल
कृष्णवर्णी घनी धुंध में
बादलों के झुंड में
जंगली की तलाश में
नँगे पांवों की
छाप-छाप चिपकाती जाऊँ
हिमपात में
निशानों की विरासतें
मेरे पीछे एक
लम्बी प्रेम की क्यारियों
में उगाती रहें
जोड़े में हर रंग के फूल
जिस पल तुम मिलो
तुम्हारा हाथ पकड़ कर
निर्वात सुनहरी
अतल कंदराओं में भटक जाऊँ
जन्मों जनम बिसार
मैं लौटना भूल जाऊँ

कि तुम्हारा स्पर्श पाकर
लालसाएँ शैवाल हुई हैं

और…. तुम तो
हो ही जंगली शिव …..!!!

शून्यकाल

हवा सुखाती नहीं
बिखरा और बहता रक्त
मिट्टी इतनी गीली है
कुछ भी
सोखने से इंकार है उसे
सूरज अपने तापमान पर
नियंत्रण खो बैठा है

आकाश निष्प्राण सा
ठगा सा, ठहर गया है एक ही रंग में
वो ….देख रहा है
नन्हे पौधों के गले से
बूँद-बूँद रिसते
पाताल तक उतरते रक्त को
कितने भी बरस जाए बादल
धुलता नहीं है
मौत का रंग

निरन्तर बोझिल और …
बोझिल होती जा रही है
सांस पृथ्वी की

विपरीत मौसम और
सम्वेदनाओं के शून्यकाल में
तुम अवतारविहीन क्यों हो ईश्वर ….?

लौटना

दिखाई नहीं देगा
लेकिन वो
एक दिन लौट जाएगी
तुम नहीं जान पाओगे

समुंदर होने का गुरुर
तुम्हारी आँखों में अट्टहास कर रहा है
ये मैंने उस वक़्त जाना जब तुम
उगते सूरज को दिखा कर बोले
ये देखो…..
मुझसे ही उगता है और मुझमें ही डूबेगा भी

मैं जानती हूँ कि तुम नहीं जानते
मेरी नज़र अब तुम को भेद कर
उस पार की तबाही के मंज़र का तर्जुमा करती है

तमाम घटनाओं और दुर्घटनाओं के वजूद की धार लिए
अदम्य साहस से भरी मैं
जब हज़ारों वर्षों से तुमसे मिलने
चलती चली आ रही हूँ तो….
एक दिन पलट कर भी चल दूँगी

देखो !
बिल्कुल भी अच्छा नहीं
कलयुग का भी अंत कर सकता हैं

नदी का उल्टे पाँव लौटना ……!!!

【मौन और काली ज़ुबान 】

मौन ने खींच लिए थे
वो शब्द
जो ज़ुबान पर आते तो
कहर बन जाते

कि काली ज़ुबान का ख़िताब
हर उस शख़्स ने बख़्शा
जो वाबस्ता था
उसके लफ़्ज़ों की चाल से

धीरे-धीरे या तेज़ गति से
विदीर्ण होगा उनका कलेजा भी
क्योंकि
परावर्तन की प्रक्रिया में
शुरूआती चाल
उन्होंने ही चली थी

खींच लिये गये शब्द
तह दर तह
विस्फोटक सामग्री के
भंडारण में कार्यशील हैं

वक्र दृष्टि और
मौन का संचालन
दिल और दिमाग की
उथलपुथल में बाधित हो
पुरजोर कोशिश करता है कि
क्षद्म बना रहे
स्थिर होना आम इंसान के
वश में कहाँ है

स्थितप्रज्ञ जैसा महाशब्द
अस्तित्व में आने से पहले ही
सुना अनसुना सा रह जाता है

सम्भावित मनोदशा में
और
वर्तुल दृश्यावली में

हे कृष्ण !

तुम भी तो मुझे
रथ का पहिया उठाये
प्रहार के लिए
अग्रसर दिखते हो !!!

प्यास

किताबों की दुनिया में
उतरती हूँ जब भी
बनकर कविता
करने लगती हूँ सवाल-जवाब
एक प्रेमिका की तरह
मासूम सी ….अठखेलियों के साथ

प्रेम के ताने-बाने उलझ कर
मुझे उलझा देते उन कहानियों में
जहाँ …
कटार की धार तेज कर रहे होते
नायक और नायिका

मैं…..
बिगड़ कर
उठा लेती
इतिहास की कोई क़िताब
मासूमियत ढूंढी
मिली ही नहीं उनमें… !
नहीं रखतीं वो …
प्रेम कथाएँ अपने पास
वो रखतीं हैं … खून से सने दस्तावेज !

सुनाई दिए मुझे उनमें से
कुछ अस्फुट स्वर !
गहरी गुफाओं की गर्त से
कुरेदते रहो,
दोहराओ मत …!

सहम कर चल पड़ती हूँ
उस ढेर की ओर
जहाँ मिल जाए
वो क़िताब
जिसकी कल्पना
ज़िन्दगी के गणित ने न की हो
शरीर का विज्ञान
किसी फ़लसफ़े में न लिपटा

सारे रसायन …
भौतिक सुखों से बोझिल हैं
ऐसा…. पाठ न पढ़ाएँ
निकल जाती हूँ उनसे
और…

थाम लेती हूँ
फड़फड़ाते, नैतिकता वाले
कुछ सफ़हे
फिर…..अचानक
विस्तृणा से भर, उठ खड़ी होती हूँ
उन किताबों के ख़िलाफ़ जो
मेरी देह से शुरू होतीं
स्वम् देह बन जातीं … !
और …
चाव से पढ़ी जातीं हैं !

अनगिनत किताबों के ढेर को संभाले
सलाहकार और….
किताबों के रक्षक बताते हैं
कि…
किसी कोने में रखी अलमारी के भीतर
इंडेक्स के आख़िर में नामज़द
कुछ क़िताब हैं
जिनको पढ़ कर तुम
सीता, राधा,मरियम और फ़ातिमा बन सकती हो
हो सकता है
किसी अभिनेत्री के चरित्र का
गहन अध्ययन तुम्हें रास आए
यह समुद्र है ज्ञान का
शायद…. तुम्हें तार जाए

हँसती हूँ, सोचती हूँ और कहती हूँ

किताबों से बहती ज्ञानगंगा
तुम समुंदर हो गई हो और……
मेरी प्यास …
रोहिणी नक्षत्र सी है
जिसे….. सिर्फ़
चन्द्रमा ही चाहिए …!!!

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