भारतीय समाज लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए अनुपयुक्त है~
【रजनीश संतोष आज के ज़माने के बेहतरीन ग़ज़लगो,उम्दा कवि और लेखक हैं ।समसामयिक मुद्दों पर ये ख़ास नज़र रखते हैं और मुद्दों के पीछे के मुद्दों को बड़ी क़ाबलियत से सामने लाते हैं ।】
विलबर्स कहते हैं कि, “जिन समाजों ने विज्ञान और लोकतन्त्र के जन्म की प्रसव पीड़ा खुद नहीं झेली, उन्हें उधार में मिले विज्ञान और लोकतन्त्र की न तो समझ है, न तमीज है। वे विज्ञान और लोकतंत्र को भी झाड़ फूंक की तरह ही इस्तेमाल करते हैं।”
भारतीय समाज में लोकतंत्र सहज और स्वतःस्फूर्त नहीं है. भारतीय समाज में लोकतंत्र संस्कृति का, सामाजिक व्यवहार का हिस्सा नहीं है. भारत में लोकतंत्र एक व्यवस्था के रूप में आरोपित है. थोपा हुआ है.
ईमानदारी से बताइए कि हमारे घर में घर का मुखिया कौन शख़्स बनता है? वही जो सामंती गुणों से लैस होता है. जिसमें साम-दाम-दंड-भेद किसी भी तरह अपना काम निकलवाने का हुनर होता है, जो चालाकी धोखेबाज़ी जैसे गुणों में निपुण होता है. जिसे बड़ी-बड़ी बातें बोलना आता हो और जो शातिर हो .
हमारे घर का परिवार का जो सदस्य सौम्य हो लोकतांत्रिक समझ वाला हो, शोषण न करता हो, सब को बराबरी का दर्जा देता हो, सबको एक इंसान के रूप में सम्मान देता हो उसे हम कमज़ोर, नकारा मानते हैं, कई बार तो उसे स्त्रैण कह कर उसका मज़ाक़ उड़ाते हैं. ऐसे में हम यह कैसे सोच सकते हैं कि हम जब अपने देश का मुखिया चुनेंगे तो उसमें हम अपने इस चरित्र से हट कर कुछ सोचेंगे?
भारतीय समाज ने लोकतंत्र के लिए आंदोलन नहीं किए. कोई क्रांति या उद्वेलन नहीं उपजा. अंग्रेजों के ख़िलाफ़ जो असंतोष था वह अंग्रेजों से छुटकारा पाने की छटपटाहट थी, लोकतंत्र लाने की लड़ाई नहीं थी. स्वतंत्रता आंदोलन में लोग इस लिए शामिल नहीं हो रहे थे कि उन्हें लोकतांत्रिक व्यवस्था चाहिए थी. बल्कि इस लिए शामिल हो रहे थे कि उन्हें यह विश्वास हो चला था कि अंग्रेजों से मुक्ति मिलेगी तो जीवन बेहतर हो सकेगा. लोकतंत्र किस चिड़िया नाम है उन्हें पता नहीं था.
स्वतंत्रता आंदोलन के बाद कुछ एक लोगों के हाथ में इतनी ताक़त थी कि वे चाहते तो भारत में साम्यवादी नाम वाली व्यवस्था हो सकती थी, लोकतांत्रिक व्यवस्था हो सकती थी, यहाँ तक कि राजशाही भी लागू की जा सकती थी, जनता को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. इत्तेफ़ाक से उस वक़्त के राजनेताओं में लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति भरोसा था इसलिए भारत एक लोकतांत्रिक व्यवस्था वाला देश तो बन गया, लेकिन लोकतांत्रिक सोच वाला समाज अभी भी नहीं बन सका है.
भारत में लोकतांत्रिक चेतना के उभार वाला एक भी स्वतःस्फूर्त आंदोलन नहीं हुआ. ऐसे में लोकतंत्र एक मुखौटा भर रह जाता है जिसे समाज अनुकूल परिस्थितियाँ पाते ही कभी भी उतार फेंकता है. हम वही कर रहे हैं. भारतीय समाज अपने मूल चरित्र में भीषण सामंती है. हम अपने व्यक्तिगत रिश्तों में, अपने परिवार के अंदर, अपने छोटे-छोटे सामाजिक समूहों में.. कहीं भी लोकतांत्रिक नहीं हैं. लेकिन हम चाहते हैं कि हम सब मिल कर लोकतांत्रिक सोच वाली सरकार चुन लें, तो यह असम्भव है.
लोकतांत्रिक व्यवस्था का जो स्वरूप आज दुनिया में है वह दुधारी तलवार है. भारत जैसे देश में जहां समाज सामंती है वहाँ यह चुनावी लोकतंत्र और ज़्यादा नुक़सान ही करेगा. क्योंकि चुनावी लोकतंत्र में बहुमत जिस तरह की सोच वाली जनता का होगा वह वैसे ही नुमाइंदे चुनेगी. भारतीय समाज सामंती है तो वह अपने लिए सामंती सरकार चुनती है. सामंती सरकारें समाज में सामंतवादी सोच को और बढ़ावा देने वाली नीतियाँ लागू करती हैं, समाज और सामंती होता है तो आगे वह और कट्टर सामंती को चुनता है.. यह चेन रिएक्शन चलती जाती है .
भारत जैसे सामंती समाज में भारत जैसी चुनावी लोकतांत्रिक व्यवस्था में गलती से भी कोई लोकतांत्रिक सोच का नेता सरकार का मुखिया नहीं बन सकता.. यह लगभग असम्भव है. जो समाज अपने मूल स्वभाव में कम सामंती हैं या बेहतर लोकतांत्रिक चरित्र वाले हैं वहाँ यह चेन रिएक्शन दूसरी दिशा में चलता है. वे बेहतर नेता चुनते हैं जो बेहतर नीतियाँ बनाते हैं जिससे समाज और बेहतर होता है, फिर वह समाज और बेहतर नेता चुनता है. तो अगर हमें वास्तव में एक बेहतर लोकतांत्रिक देश बनना है तो हमें पहले खुद को लोकतांत्रिक बनाना होगा. और कोई रास्ता नहीं.
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