मसूर के दाल के पकौड़े की सब्ज़ी

डॉ आर के सिंह वन्यजीव विशेषज्ञ और साहित्यकार हैं

एक
“गफ्फार मियां कहाँ?”
“लाहौल बिला कूवत, कितनी बार मना किया है रास्ते में न टोका करो।”
“अरे चचा खामख्वाह लाल पीले हो रहे हो। बस इत्ता ही तो पूछा है कि कहां जारे हो।”
“मसूर लेने जा रहे हैं, बताओ।”
”लगता है चच्ची कुछ लज़ीज़ बना रही हैं।”
“अब तुमसे क्या मतलब, बरखुरदार चच्ची बनाएं या हम?”
“चलें का मियां, हम भी चच्ची के हाथ का कुछ खा लेंगे।”
“टेम न खराब करो औऱ निकल लो यहां से, कल के लौंडे हमसे बहस कर रहे हैं।”
“ठीक है गफ्फार मियां हम न बोलेंगे।”

दो
“सुनो जुम्मन, जरा एक सेर मसूर की दाल तो दियो।”
“अरे गफ्फार मियां तुम।”
“क्यों क्या मसूर खरीदना गुनाह है।”
“नहीं बड़े मियां, हम तो ठहरे व्यापारी। हमें तो सामान बेचने है।”
“तो”
“पर मियां तुम पहले तो कभी अकेले न आये खरीदारी करने, इसलिए पूछ लिया, कित्ती मसूर बोले।’
“एक सेर, अब जल्दी करो।”
“मियां बात क्या है बड़ी जल्दी में हो। क्या पकने जा रहा है।’
“अरे घर हमारा है, हम जो पकाएं।”
“देखो मियां हम भी आ रहे हैं दावत उड़ाने, वैसे माशाअल्लाह भाभीजान की पाक कला के हम भी कद्रदान हैं।”

तीन
“अरे चचा बड़ी तेज कदम बढ़ा रहे हो।”
“लो एक और आ गए मुसड़चन्द।”
“चचा गरमा काहे रहे हो।”
“गरमाये न तो क्या करें, जिसको देखो वही टोक रहा है।”
“चलो ठीक है चचा, ये बताओ झोले में क्या लिए हो।”
“मसूर की दाल, अब बताओ।”
“क्या बन रहा है चच्चा।”
“तुम्हारा सिर”
“छुपाओ न चच्चा, इंशाल्लाह हम भी आ रहे हैं पीछे।”

चार
“अरी बेगम, लो मसूर की दाल।”
“रख दो, और सुनो एक घण्टा भिगो दो। मैं तबसे और सामान तैयार करती हूँ। एक घण्टे बाद पीस लेना सील बट्टे पर।”
“लो पहली बार चालीस साल में एक फरमाइस करी तो उसमें भी खुद पीस लो।”
“क्या बड़ बड़ कर रे हो।”
“कछु नी कर रे हैं”।
“जवाब देना ज़रूरी है, ये नी कि जो काम बता दिया वो करें, बड़े आये मसूर की दाल के पकोड़े की सब्जी खाने।”
“अच्छा ये तो बताओ, दरबरा पीसें या महीन”
“अब जैसा पसन्द हो वैसा पीसो”
“हमें क्या पता”
“इतने साल से खा रहे हो यही न पता”
“लो एक लफ्ज़ में बता दो कैसा पीसें बहस लड़ा री हो”
“अब ज़बरदस्ती बहस न करो, जैसा पसन्द वैसा पीसो”

पाँच
“अमां, कौन खटखटा रहा है”
“हम हैं चचा फुरकान”
“हाँ, बताओ मियां कैसे तसरीफ लाये”
“बस बड़ी अच्छी महक आ रही है रसोईं से, सोचा हम भी चच्ची के हाथ का खा लें”
“हाँ, तुम्हारी चच्ची बनाती बहुत धांसू हैं”
“तो चचाजान खिलवाओ भी तो”
”बेग़म, फुरकान मियां तसरीफ लाएं हैं। कह रहे बड़ी अच्छी महक आ रही है”
“लो फुरकान मसूर के दाल के पकोड़े खाओ”
“एक बात है चच्ची के हाथ में जादू है”
“सो तो है, और खाओ मियां”

छह
“अब और कौन आ गया”
“गफ्फार मियां हम जुम्मन”
“कइसे इधर, दुकानदारी छोड़ के, वो भी छुट्टन भाई के साथ”
“मियां, जब तुम मसूर खरीदे तभी हम समझ गए, भाभीजान पकोड़े बनाएंगी, सो आ गए”
“बिना बुलाए”
“गफ्फार मियां, कर दी छोटी बात। भाभीजान जैसा कोई खाना बनाता है। और घर के आदमी को क्या पूछना पड़ेगा”
“खामखां नाराज़ हो गए जुम्मन भाई। अभी खिलाते हैं पकोड़े”
”अरी सुनती हो, जुम्मन मियां भी तसरीफ लाये हैं जरा दस्तरख्वान भी लगा दो”
“पकोड़े के साथ चाय हो जाये तो सोने पे सुहागा”
“अरे बिल्कुल मियां”

सात
“सुनती हो बेगम, सब चले गए अब बस मसूर के दाल के पकोड़े की सब्जी पेश कर दो। मुँह में पानी आ रहा है”
“ये लो खा लो”
“अरी बेगम कभी तो मोहब्बत से बोल दिया करो”
“ये लो पकड़ो रोटी”
“अच्छा लाओ, लगता है सब्जी की तरी में पकोड़ी डालना भूल गयी हो”
“पकोड़ी तो तुम्हारे दोस्त चर गए। अब तरी से रोटी खा लो”
“क्या बकती हो”
“बकती क्या हूँ, उस समय तो जोश में कहे जा रहे थे, बेगम और पकोड़ी लाओ, चाय भी बना दो। तो क्या मैं मना करके अपनी बेइज़्ज़ती कराती”

गफ्फार मियां कभी मसूर की दाल के पकोड़े विहीन सब्जी को तो कभी बेगम को ताक रहे थे। घर में अभी भी पकोड़े की महक मुहँ में पानी भर रही थी।

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