महात्मा गाँधी की पत्रकारिता

डॉ बृजेश ,सहायक प्रोफेसर ( अतिथि)

लाहाबाद विश्वविद्यालय

महात्मा गांधी की पत्रकारिता को समझने से पहले महात्मा गांधी को समझना आवश्यक है। महात्मा गांधी को समझने के लिए उस पृष्ठभूमि पर एक सरसरी दृष्टि डाल लेनी चाहिए जिसमें उन्हें अपना स्वभाव और संस्कार मिला। इसलिए आवश्यक है कि उनकी सभी पत्रिकाएं उनकी सभ्यतागत दृष्टि को. भारतीय सभ्यता की दृष्टि को सामने लाने का माध्यम भर थी। गांधी जी का उद्देश्य केवल पत्रिका निकालना नहीं था, उसे अपने विचारों का, कार्य का और भारतीय समाज की गतिविधियों को सामने लाने का साधन बनाना था।
गांधी की पत्रकारिता एक व्यक्ति की पत्रकारिता नहीं है।यह एक युग की पत्रकारिता है। जीवन मूल्यों की पत्रकारिता है। ऐसी पत्रकारिता है जिसमें पत्रकारिता के बुनियादी मूल्य जो चले आ रहे हैं। और जो बने रहेंगे। समय बदलेगा, परिस्थितियां बदलेंगी लेकिन पत्रकारिता के जो स्थाई मूल्य हैं वह नहीं बदलेगा। पत्रकारिता के जीवन मूल्य और पत्रकारिता के माध्यम में कई बार हम लोग फर्क करना भूल जाते हैं। पत्रकारिता के माध्यम विविध हो सकते हैं यानी प्रिंट, इलेक्ट्रानिक, वेब, सोशल मीडिया यह सब पत्रकारिता के माध्यम हैं। लेकिन इनके जरिए से जो पत्रकारिता हो रही है, या जो होनी चाहिए उसमें जो तत्व छुपा हुआ है उसको हम जीवन मूल्य कहेंगे, पत्रकारिता के मूल्य कहेंगे। पत्रकारिता के क्या मूल्य होने चाहिए उसकी चर्चा गांधी जी स्वयं ‘हिंद स्वराज’ में करते हैं, वह कहते हैं कि- ”पाठकों को मेरे लेख पढ़कर जो भी विचार आये. उन्हें बताएंगे तो मैं उनका आभारी रहूंगा. मेरा उद्देश्य सिर्फ देश की सेवा करना और सत्य की खोज करना है। अतः पाठकों को खुलकर अपनी बात रखने का अधिकार है। मेरी बातों को पकड़कर चलने का नहीं।”
इस तरह की बात गांधी ही कर सकते हैं। सवाल ये उठता है कि क्या आज की पत्रकारिता भी ऐसी है। शायद नहीं आज की पत्रकारिता के संदर्भ में गांधी जी एक बात याद आती है, जो ‘अखबार’ को लेकर गांधी जी के विचार को प्रकट करती हैं- “अखबार अप्रमाणिक होते हैं एक ही बात को दो शक्ल देते हैं। एक दल वाले उसी बात को बड़ी बनाकर दिखाते हैं तो दूसरे दलवाले उसी बात को छोटी कर डालते हैं।”
गांधी की पत्रकारिता सत्य की खोज के लिए एक प्रयोगशाला थी। आइंस्टाईन,न्यूटन,जे.सी. बोस,रमन जैसे तमाम वैज्ञानिकों ने ईश्वर में अपनी आस्था तो जताई लेकिन उसको अपनी प्रयोगशाला में लेकर नहीं गए। गांधी की पत्रकारिता में भी जैसे गांधी की अपनी आस्था थी लेकिन जब वह प्रयोग करते थे अपनी आस्था एक किनारे रख देते थे। पत्रकारिता में यह कला सीखानी चाहिए और अपनानी चाहिए। पत्रकारिता का महत्व क्या है और वह औरों के जीवन को किस तरह परिवर्तित करती है। गांधी जी के एक प्रसंग में आप समझ सकते हैं- “हरी पुस्तिका की दस हजार प्रतियां छपी थी और उन्हें सारे हिंदुस्तान के अखबारों और सब पक्षों के प्रसिद्ध लोगों को भेजा गया था। ‘पायोनियर’ मे उस पर सबसे पहले लेख निकाला। उसका सारांश विलायत गया और सारांश का सारांश रायटर के द्वारा नेटाल पहुंचा। वह का तार तीन पंक्तियों का था। नेटाल में हिंदुस्तानियों के साथ होने वाले व्यवहार का जो चित्र मैंने खींचा था, उसका वह लघु संस्करण था। वह मेरे शब्दों में नहीं था। धीरे-धीरे सब प्रमुख पत्रों में इस प्रश्न की चर्चा हुई।
पत्रकारिता लोगों के जीवन में क्या परिवर्तन ला सकती है। गांधी जी इंग्लैंड जाकर समझ चुके थे, इसलिए उन्होंने सबसे पहले ‘द वेजिटेरियन’ के लिए लेख लिखना प्रारंभ किया और उसके प्रभाव को भी देखा।
भारतीय पत्रकारिता को लेकर बहुत तरह के सवाल खड़े होते रहे हैं, अधिकतर लोगों का मानना है कि भारतीय पत्रकारिता चाहे वह प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक दोनों ने अपनी विश्वसनीयता जनमानस में खोई है।
रामशरण जोशी भारतीय पत्रकारिता को तीन श्रेणियों में विभाजित करते हैं,1. मिशनवादी, 2. व्यवसायिक, 3. धंधाकरण या व्यापारीकरण
आज हम पत्रकारिता के व्यापारीकरण के दौर में जी रहे हैं। जिसमे विज्ञापन, पेड न्यूज, लाबिंग पत्रकारिता जैसी प्रवृत्तियों का प्रभाव है। जिससे मिशनवादी पत्रकारों का याद आना स्वभाविक है। जिसमें प्रमुख रुप से तिलक, महात्मा गांधी, मौलाना आजाद, सुभाष चंद्र बोस, माखनलाल चतुर्वेदी, गणेश शंकर विद्यार्थी, जवाहरलाल नेहरू आदि प्रसिद्ध पत्रकार थे।
जोशी जी कहते हैं कि ‘मैं गांधी को प्रतिबद्ध पत्रकार या कम्युनिकेटर के रूप में देखता हूं।’ जब हम आज की पत्रकारिता और गांधी जी की पत्रकारिता की बात करते हैं तो तुलनात्मक रूप से आज की पत्रकारिता का संपूर्ण चरित्र बदल चुका है। वह प्रोफेशनल भी नहीं रही प्रोफेशनल या व्यवसाय के कुछ निश्चित मानक और मूल्य होते हैं। नैतिकता होती है। लेकिन व्यापारीक पत्रकारिता का प्रथम और अंतिम लक्ष्य होता है मुनाफाखोरी। जब पत्रकारिता शुद्ध मुनाफाखोरी की ओर जाती है तो अंतिम जन का दुख दर्द, पीड़ा, संवेदनाएं हाशिए पर चले जाते हैं ।
आज की पत्रकारिता शुद्ध रूप से मुनाफाखोरी पर टिकी हुई है, साथ ही राजनीतिक एजेंडे चला रही है। इसी वजह से मेंन स्ट्रीम की मीडिया की साख गिरी है। और सोशल मीडिया ने अपनी अविश्वसनीयता के साथ ही कुछ विश्वसनीयता बनाई है। या कहें आज भारत का ‘चौथा स्तंभ’ खतरे में है, उसने जनमानस में विश्वास खो दिया है।
जरूरी है कि हम गांधी जी से प्रेरणा लेकर पत्रकारिता के गिरते हुए महत्व को बनाए रखने के लिए पत्रकारिता के मानक और मूल्य के साथ-साथ नैतिक बलों का विकास करें,
गांधी लिखते हैं, ‘स्व-विनियमन या आत्म नियंत्रण का तर्क यदि सच हो तो दुनिया के कितने समाचार पत्र इस कसौटी पर खड़े उतर सकते हैं ? लेकिन निकम्मो को बंद कौन करें ?’

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