महादेवी का रहस्य
सन्तोष पटेल
महादेवी छायावाद के चार स्तंभों में से एक हैं- कल्पना की अतिशयत, बौद्धिकता, रहस्यवादिता, वेदना इनकी कविता की विशेषताएं हैं। कुछ आलोचक महादेवी को छायावादी कवयित्री न मानकर रहस्यवादी मानते हैं किंतु रहस्यवाद की प्रधानता होते हुए भी महादेवी वर्मा छायावाद के आधार स्तंभों में से एक हैं। वास्तव में रहस्यवाद छायावाद की एक विशेषता है। यह ठीक है कि छायावाद का रहस्यवाद संकेत मानते किंतु महादेवी वर्मा का रहस्यवाद शुद्ध रहस्यवाद के अंतर्गत आता है। छायावादी कवियों में रहस्य की ओर बढ़ने की जिज्ञासा है। उन्हें यह विश्वास है कि संसार में एक अदृश्य शक्ति है जिसका संकेत उन्हें बराबर मिलता है किंतु वह शक्ति कौन सी है? छायावादी कवियों को इसका पता नहीं है। अत; उस अदृश्य रहस्य के प्रति जिज्ञासा भाव छायावाद की विशेषता है। महादेवी वर्मा की कविताओं में छायावाद के इस रहस्यात्मक संकेत का दर्शन किया जा सकता है –
अवनि-अम्बर की रुपहली सीप में,
तरल मोती सा जलधि जब काँपता;
तैरते घन मृदुल हिम के पुंज से,
ज्योत्सना के रजत पारावार में
सुरभि वन जो थपकियां देता मुझे,
नींद के उच्छवास सा, वह कौन है? ( कौन है?)
छायावाद का यह जिज्ञासा भाव महादेवी में विकसित होकर रहस्यवाद तक पहुंच जाता है। वास्तव में, रहस्यवाद का रहस्य संकेत समाप्त हो जाता है वहीं से रहस्यवाद प्रारंभ होता है और उस अलौकिक शक्ति के एक संकेत मिलते ही कवयित्री की यह स्थिति हो जाती है-
‘शिथिल कर के सुभगा
रूधि पतवार आज बिछड़ चुका है
एक इंगित के लिए
शतवार प्राण मचल चुका है।’ और वह इंगित देने वाला साक्षात ईश्वर है। ऐसा भाव रहस्यवादियों को मालूम है। रहस्यवाद आत्मा और परमात्मा के संबंध को दिखाने का प्रयास किया जाता है। वह ईश्वर अलौकिक है, चिरंतन है,अनंत है। यह आत्मा उसी से उत्पन्न है, नश्वर है, सीमित है। आत्मा ईश्वर से अलग होकर पुनः ईश्वर मिलना चाहती है। ईश्वर और आत्मा का संबंध प्रिया- प्रियतम का सम्बन्ध है इसलिए महादेवी वर्मा का कहना है कि
‘ प्रिय चिरन्तन है सजनी
क्षण- क्षण नवीन सुहागिनी मैं।’
ईश्वर से आत्मा का विलगाव माया के कारण होता है। माया के आवरण में पड़ा हुआ मनुष्य ईश्वर से अलग हो जाता है और यह सर्वथा ईश्वर से मिलने के लिए सचेत रहता है। महादेवी वर्मा ने भी उस माया का संकेत किया है –
‘सखे! यह है या है माया का देश
क्षणिक है मेरा तेरा संग
यहां कितना कांटो में बन्धु
सजीला सा फूलों का रंग।’
ईश्वर से अलग होकर आत्मा सर्वदा रोगी रहती है। विरह वेदना में अपने डुबाती रहती है। ईश्वर से अलग होकर कवयित्री का जीवन भी पावस है और जलद के समान बन गया है-‘ मैं नीर भरी दुख की बदली’। विरह में तड़पती आत्मा ईश्वर की आराधना में जलते रहना चाहती है-‘मैं मंदिर का दीप मुझे नीरव जलने दे।’ महादेवी वर्मा के काल में इस वेदना के भाव की ही प्रधानता है। महादेवी वर्मा को उस ईश्वर का संकेत मिला था और तभी से उनके ह्रदय में वेदना का असीम साम्राज्य स्थापित हो गया है-
‘गये तब से कितने युग बीत
हुए कितने दीपक निर्वाण
नहीं पर मैंने पाया सीख
तुम्हारा सा मनमोहन जान।’ ( विसर्जन/ निहार)
और तब से –
‘जीवन है उन्माद तभी से
निधियां प्राणों के छाले
मांग रहा है विपुल वेदना
के मन प्याले पर प्याले।'(मिलन)
महादेवी वर्मा के उस प्रीतम का आगमन रात्रि काल में होता है इसलिए उनकी प्रार्थना है कि
‘मेरे प्रियतम को भाता है
तम के पर्दे में आना
हे नभ की दीपावलियों
तुम क्षण भर को बुझ जाना।’
क्योंकि कवयित्रीत अपनी सुनी घड़ी में प्राणों का दीप जलाकर उस प्रीततम की परीक्षा करती है क्योंकि उसके जीवन का लक्ष्य है –
‘जब असीम से हो जाएगा
मेरी लघु सीमा का मेल
देखोगे तुम देव! अमरता
खेलेगी मिटने का खेल ।’ (मैं अनंत पथ में लिखती जो )
महादेवी वर्मा ने वेदना को पाल रखा है। रहस्यवादी कवि अपनी आत्मा को उस असीम में मिला देना चाहता है किंतु महादेवी वर्मा तो मिलन की अभिलाषा रखते हुए भी मिलन नहीं चाहती हैं। उन्हें वेदना ही प्रिय है। इसलिए उनका कहना है कि ‘मैं मंदिर का दीप मुझे नीरव जलने दो। और उनकी अभिलाषा है कि – ‘मधुर मधुर मेरे दीपक जल’। इसी कारण कुछ आलोचक महादेवी को नहीं पूर्ण रहस्यवादी नहीं मानते हैं। आलोचकों का कहना है कि रहस्यवादी का लक्ष्य तो ईश्वर प्राप्ति ही है; किंतु महादेवी वर्मा उस लक्ष्य पर पहुंचना नहीं चाहती लेकिन हम देखते हैं कि ईश्वर की उस असीमता शाश्वत प्रवृत्ति अनन्तता पर महादेवी को विश्वास है । वे इस जीवन को क्षण भंगुर समझती हैं और अनंत में मिलन की अभिलाषा भी उन्हें उनका जीवन में अत्यंत क्षणभंगुर है-
‘विकसते मुरझाने को फूल
उदय होता छिपने को चंद,
शून्य होने को भरते मेघ
दीप जलता होने को मन्द;
यहां किसका अनन्त यौवन?
अरे अस्थिर छोटे जीवन। (मेरा जीवन)
किंतु महादेवी के मन में भाव है कि ईश्वर की प्राप्ति पर ही वह अपने को विलीन करना चाहती हैं। वे अभिमानिनी भी हैं वे अपने निजत्व को देकर ईश्वर में नहीं मिल सकती :
‘सजनि मधुर निजत्व दे
कैसे मिलूं अभिमानिनी मैं
मैं मिंटू प्रिय में मिटा ज्यों
तप्त सिकता में सलिल कण
दीप सी युग-युग जलूं पर
वह सुभग इतना बता दे
फूंक सी उसकी बुझूं
तब धार नहीं मेरा पता दे।'(प्रिय चिरन्तन है सजनी)
महादेवी वर्मा की अभिलाषा है कि वे शून्य मंदिर में ईश्वर की प्रतिमा बनाकर स्थिर रहें, किंतु उनका ईश्वर तो उनमें ही समाहित है। अतः अपने आप में ही ईश्वर का दर्शन करना रहस्यवाद की चरम सीमा है। रहस्यवाद के उस चरम सीमा पर उपस्थित होती हुयी महादेवी वर्मा कहती हैं-
क्या पूजन क्या अर्चन रे!
उस असीम का सुंदर मंदिर मेरा लघुतम जीवन रे!
मेरी श्वासें करती रहतीं नित प्रिय का अभिनंदन रे!
पद रज को धोने उमड़े आते लोचन में जल कण रे!
अक्षत पुलकित रोम मधुर मेरी पीड़ा का चंदन रे!
स्नेह भरा जलता है झिलमिल मेरा यह दीपक मन रे!
मेरे दृग के तारक में नव उत्पल का उन्मीलन रे!
धूप बने उड़ते जाते हैं प्रतिपल मेरे स्पंदन रे!
प्रिय प्रिय जपते अधर ताल देता पलकों का नर्तन रे!
मेरा लघुतम जीवन रे
मेरी श्वासें करती रहती
नित प्रिय का अभिनंदन रे। (क्या पूजन क्या अर्चन रे!)