मुन्नी गुप्ता की कविताएँ
शिक्षा :एम ए ,एम फिल, पीएच डी,कलकत्ता यूनिवर्सिटी
विशेषज्ञता – स्त्री-विमर्श, समकालीन कविता, अनुवाद, साहित्यिक आलोचना.विशेषज्ञता – स्त्री-विमर्श, समकालीन कविता, अनुवाद, साहित्यिक आलोचना.
पन्द्रह वर्ष शिक्षण का अनुभव
2016 – वर्तमान, असिस्टेंट प्रोफसर, प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय, कोलकाता.
2012-2016 विद्यासागर विवि., पश्चिम मेदिनीपुर,
2008-2012 कलकत्ता गर्ल्स कॉलेज, कोलकाता,
2003-2008, विभिन्न कॉलेजों में आंशिक प्रवक्ता
पुरस्कार/सम्मान
• गोदावरी देवी स्मृति पुरस्कार, 2018, समयांतर पत्रिका, नई दिल्ली
• क्षीर भवानी योगेश्वरी साहित्य सम्मान-2019, हिंदी कश्मीरी संगम संस्था, राजभवन कोलकाता.
• निर्मला स्मृति अनुवाद साहित्य सम्मान, 2019, हरियाणा, चरखी दादरी.
प्रकाशित पुस्तकें
• प्रेयसी नहीं मानती, (कविता-संग्रह), (बांग्ला से हिंदी) सम्पादन एवं अनुवाद, 2018
• एक विदुषी पतिता की आत्मकथा, (बांग्ला से हिंदी) सम्पादन एवं अनुवाद, 2018
प्रकाशनाधीन पुस्तकें
• क्लारा जेटकिन, समाजवादी महिला आन्दोलन की अविस्मरनीय नेत्री, (बांग्ला से हिंदी) सम्पादन एवं अनुवाद
• मेरी कथा : बिनोदिनी दासी, (बांग्ला से हिंदी) सम्पादन एवं अनुवाद, 2018
• कृष्णा सोबती: जनतंत्र, स्त्रीवाद और धर्मनिरपेक्षता (आलोचना)
काव्य संग्रह- कविता पर मुकदमा, लोकोदय प्रकाशन, लखनऊ, 2020
अन्य प्रकाशन – देश की प्रतिष्ठित राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में चालीस से अधिक साहित्यिक, सांस्कृतिक रिसर्च लेख प्रकाशित एवं सम्पादित पुस्तकों में लेख प्रकाशित.
अभिरुचियाँ – समकालीन कविता लेखन में दखल.
सम्प्रति – असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी वभाग, प्रेसिडेंसी विवि. 86/1 कॉलेज स्ट्रीट, कोलकाता.
एवं बांग्ला स्त्री लेखिकाओं की आत्मकथाओं का अनुवाद कार्य व सम्पादन में संलग्न.
munnigupta1979@gmail.com
【मैं किस बात पर हसूँ 】
तुमने मुझसे कहा – हंसो
मैं भी
हँसना चाहती हूँ …
पर तय करो
किस बात पर हसूँ …
उस बात के लिए
जब तुमने मेरी उँगलियाँ तोड़
कलम छीन ली थी
या उस बात के लिए हसूँ
जब सरेराह मेरी मुस्कान को नीलाम कर मुझे बाज़ार बना डाला
या उस बात के लिए हसूँ
जब मेरे पैर काटकर
अपने साम्राज्य के तंग तहखाने में कैद कर लिया
या उस बात के लिए हसूँ
जब मेरे आज़ाद पंख नोंचने की साजिश रची थी
या उस बात के लिए हसूँ
जब तुम
मुझे अपाहिज बनाने का
हर दांव चल रहे थे
तुम्ही कहो, किस बात पर हसूँ
मैं किस किस बात को लेके हसूँ
मैं हँसना चाहती हूँ
सच में
हँसना चाहती हूँ
पर पहले यह तय तो करो
कि
मैं तुम्हारी किस बात पर हसूँ …
【हाड़ी में भात तभी पकता है】
जब कोई चूल्हा लाये
कोई लकड़ी लाये
कोई माचिश लाये
और जब कोई आग लगाए
तब जा के
हाड़ी में भात पकता है।
【पढ़े लिखे लोगों की ज़मात 】
सुना था
आदमी कचरा पेटी नहीं होता
माँ हमेशा आँगन की चौपाल से बचाती
बैठने से मना करती
कहती घर में रहकर पढ़ाई करो
आँगन की ये चौपाल कूड़े का ढेर है
जो भी बैठता है कूड़े का ढेर बन जाता है।
वो मानती हैं
पढ़े लिखे लोगों की जमात बड़ी होती है
वो मुझे उसी जमात में देखना चाहती हैं
जब मैं पढ़े लिखे लोगों की जमात में शामिल हो गयी
तो लगा – यहाँ तो कचरा ही कचरा है
आँगन में चौपाल लगाये औरतें
केवल थाली के चावल से काले कंकड़ निकालती हैं
दो चार हल्के ठहाकों से रस ले लेती हैं
पर ये जो अधिकांश सु-साक्षरों, बुद्धिजीवियों की जमातें हैं
किसी कूड़े के ढेर से कम नहीं
ये तो किसी के भी जीवन को
कचरा करने की घात लगाए बैठे हैं।
【कोरे कागज पर हस्ताक्षर 】
मैंने वेदों को खंगाला
कोरे कागजों पर हस्ताक्षर नहीं मिले
मैंने पुराणों को खंगाला
कोरे कागजों पर हस्ताक्षर नहीं मिले
मैंने उपनिषदों को खंगाला
कोरे कागजों पर हस्ताक्षर नहीं मिले
मैंने युद्धों के इतिहास को खंगाला
किसी भी कोरे कागज पर हस्ताक्षर
नहीं मिले
मैंने दुनिया की सारी पवित्र किताबें खंगाली
कोरे कागजों पर हस्ताक्षर नहीं मिले
मैंने राजघराने की पांडुलिपियाँ खंगाली
कोरे कागजों पर हस्ताक्षर नहीं मिले
मैंने भाष्य खंगाले
यहाँ तक कि लोककथाएँ खंगाली
कोरे कागजों पर हस्ताक्षर नहीं मिले
दुनिया के सबसे क्रूर बादशाहों की नजीरें खंगाली, अनुवाद खंगाले
कोरे कागज़ पर हस्ताक्षर नहीं मिले
आश्चर्य तब हुआ
जब ज्ञान के समंदर में बैठे
किसी विदूषक ने मासूम और बेकसूर हाथों से
कोरे कागज पर हस्ताक्षर करवाये
इतिहास बदलती आ रही हैं वे इबारतें
जो ऋचाओं में नहीं तुमने लिखी हैं
मगर भुलावे में लिए हस्ताक्षर कितने कारगर होंगे?
किसी मासूम ने गर पूछ लिया कि
ये हस्ताक्षर क्यूँ लिए गए हमसे
तो क्या जवाब दोगे?
ज्ञान के समंदर का इतिहास
क्या तुम्हारे इस गुनाह से
तुम्हें बरी करेगा ?