वरिष्ठ कवि,लेखक, समीक्षक और पत्रकार कौशल किशोर से बातचीत

साहित्य में जीवन की आलोचना ही नहीं
परिवर्तन की गूंजें व आहट भी
कौशल किशोर

परिवर्तन : कुछ अपने बारे में बताइए ?
कौशल किशोर: अपने बारे में क्या बताऊं। मैं कौशल किशोर कवि, लेखक, समीक्षक और पत्रकार। साहित्य और समाज की दुनिया में पांच दशक से अधिक का समय बीत गया। अब तो स्मृतियों पर काफी धूल गर्द जम चुका है। इस पर पड़े झाड़-झंखाड़ को साफ करने पर याद आता है कि वह 1965 या 66 का समय रहा होगा जब मेरी पहली कविता बनारस से निकलने वाले दैनिक ‘आज’ के साप्ताहिक परिशिष्ट में छपी थी। स्मृति के पन्ने को और खोलता हूं तो यह भी याद आता है कि पहली बार सार्वजनिक रूप से बिहार के बेगूसराय के जी डी कॉलेज के प्रांगण में आयोजित कवि सम्मेलन में कविता पढ़ने का मौका मिला। इसकी अध्यक्षता राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने की थी। सबसे कम उम्र का होने की वजह से वहां सबसे पहले मुझे ही कविता पढ़ने के लिए बुलाया गया। काव्य पाठ के बाद दिनकर जी ने मुझे अपने पास बुलाया, पीठ ठोकी और आशीर्वाद दिया। वह मेरे जैसे नवोदित के जीवन का सबसे बड़ा सम्मान था। उसके बाद तो सृजन की धारा बह निकली। अब तक ‘युवालेखन’, ‘परिपत्र’, ‘जन संस्कृति’ जैसी पत्रिकाओं का संपादन कर चुका हूं। लखनऊ से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र ‘जनसंदेश टाइम्स’ के साहित्यिक पृष्ठ ‘सृजन’ में भी कुछ सालों तक संपादन सहयोग किया। संप्रति लखनऊ से प्रकाशित ‘रेवान्त’ त्रैमासिक पत्रिका का प्रधान संपादक हूं। दो कविता संग्रह ‘नई शुरुआत’ और ‘वह औरत नहीं महानदी थी’ प्रकाशित हो चुका है। दो गद्य कृतियां भी आई हैं। वे हैं ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ और ‘भगत सिंह और पाश: अंधियारे का उजाला’। एक कविता संग्रह ‘उम्मीद चिन्गारी की तरह’ और एक आलोचना पुस्तक प्रकाशनाधीन है। सामाजिक व सांस्कृतिक आन्दोलनों में भी सक्रिय भागीदारी रही है। देश की तीसरी धारा के सांस्कृतिक संगठन ‘जन संस्कृति मंच’ के संस्थापकों में प्रमुख रहा हूं। मंच का पहला राष्ट्रीय संगठन सचिव भी बनाया गया। फिलहाल मंच की उत्तर प्रदेश इकाई का कार्यकारी अध्यक्ष के साथ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के पद की जिम्मेदारी मेरे पास है। संक्षेप में मेरा यही परिचय है।

परिवर्तन: आपके अनुसार वर्तमान में साहित्य की स्थिति क्या है ? विशेषकर हिंदी साहित्य की । साहित्य में और किन किन बातों का समावेश होना चाहिए ?
कौशल किशोर: साहित्य की स्थिति अच्छी भी कही जा सकती है और अच्छी नहीं भी कही जा सकती है। कहने का आशय यह है कि जिस तरह साहित्य के क्षेत्र में समाज के विभिन्न वर्गों से लेखक आए हैं या आ रहे हैं, उससे एक खास वर्ग या क्षेत्र का वर्चस्व टूटा है। हम देख रहे हैं कि बड़े पैमाने पर स्त्रियां, दलित, आदिवासी और समाज के अन्य क्षेत्रों से लेखक आए हैं। उनकी प्रामाणिक अनुभूतियां व जीवन स्थितियां साहित्य में व्यक्त हो रही हैं। इस तरह कहा जा सकता है कि साहित्य की दुनिया का जनतांत्रिक विस्तार हुआ है। वहीं, हम यह भी देख रहे हैं कि हमारे समाज की जो व्याधियां हैं, हमारा समाज जिन व्याधियों से ग्रस्त है साहित्य भी उससे मुक्त नहीं हो पा रहा है। प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। हम साहित्य से यह जरूर उम्मीद करते हैं कि वह समाज के आगे चलेगा, अग्रगामी और प्रगतिशील विचारों का वाहक बन कर समाज को दिशा देगा। अगर वह यह ना करके स्वयं जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद, धर्मवाद, संप्रदायवाद जैसी व्याधियों का शिकार हो जाय, ऐसे में वह मशाल का काम तो नहीं कर सकता। आज कमोबेश ऐसी ही स्थितियां देखने में आती हैं। ऊपर से तो यह सब नहीं दिखेगा। यही दिखता है कि साहित्य की दुनिया प्रगतिशील और उदारवादी है। पर जब आप अंदर प्रवेश करेंगे तो इस विरोधाभास से रूबरू होना पड़ेगा। मैं फिर प्रेमचंद को याद करता हूं। उन्होंने कहा था कि साहित्यकार स्वभाव से प्रगतिशील होता है। स्वाभाविक तौर पर उसे समाज में व्याप्त व्याधियों को समाप्त करने का संघर्ष उसका प्राथमिक दायित्व बनता है। हिंदी साहित्य का जो आज खंडित चेहरा है, कहीं ना कहीं इस चेहरे को बदलने की जरूरत है। इसके अपने खतरे हैं लेकिन खतरे उठाकर भी इस दिशा में प्रयत्न किए जाने चाहिए। इसी से साहित्य का चेहरा बदलेगा। उसकी सामाजिक भूमिका भी ज्यादा प्रखर और कारगर होगी। साहित्य की स्वीकार्यता भी समाज में बढ़ेगी।

परिवर्तन: सोशल मीडिया के आने से साहित्य में क्या आमूलचूल परिवर्तन हो रहा है ?
कौशल किशोर: सोशल मीडिया साहित्य के जनतंत्रीकरण में काफी सहायक साबित हुआ है। आज उसकी भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। कोरोना काल में अर्थात कोविड-19 के दौर में सोशल मीडिया वह अकेला माध्यम बन गया जहां से साहित्य लोगों तक, अपने पाठकों तक श्रोताओं तक पहुंच पाया। वरिष्ठों से लेकर नयी पीढ़ी के रचनााकरों ने, संस्थाओं से लेकर प्रकाशकों ने इसका इस्तेमाल किया। अब इसे किनारे करके नहीं चला जा सकता। बेशक, इससे पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों और प्रिंट मीडिया की भूमिका समाप्त नहीं हो जाती। एक और बात, पहले रचनाकारों के पास बहुत सीमित मंच हुआ करते थे। उन्हें संपादकों के निर्णय का इंतजार करना पड़ता था। कई बार अच्छी रचनाएं या रचनाकार संपादकीय नीति, उसके आग्रह-दुराग्रह के शिकार भी हो जाया करते थी। अब सोशल मीडिया के आने से संपादक की भूिमका समाप्त हो गयी है। अब लेखक और सोशल मीडिया के बीच सीधा संपर्क है। लेखक सोशल मीडिया के माध्यम से सीधे संवाद कर सकता है। अपने विचारों को, रचना को अपने मित्रों व पाठकों तक पहुंचा सकता है। इस तरह सोशल मीडिया के आने से सम्पादक के रूप में जो ‘छन्ना’ था वह समाप्त हो गया है। दूसरी बात, सोशल मीडिया के आने से आप तत्काल पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते है, हस्तक्षेप कर सकते हैं, अपनी राय व्यक्त कर ससकते हैं। जैसे हमने कोविड-19 के दौर में देखा। बड़े पैमाने पर इस संकट को लेकर साहित्य सृजन हुआ। कविताएं लिखी गईं। जिस तरह सोशल डिस्टेंसिंग लागू की गई, वैसी हालत में अगर सोशल मीडिया ना होता तो, इतनी मात्रा में न रचनाएं लिखी जातीं और ना वह लोगों तक पहुंचती ही। हमने कई बार देखा है कि मानव जीवन में आया संकट सृजनशीलता के लिए भी जमीन तैयार करता है। सृजन भी ज्यादा मुखर होकर लोगों के बीच पहुंचता है। ऐसा ही समय रहा होगा जब निराला ने कविता के ढांचे को तोड़ते हुए अपने को अभिव्यक्त किया था। वह समय बंगाल के दुर्भिक्ष का था। स्वाधीनता आंदोलन का था। मजदूरों-किसानों और गरीब-गुरबा की दुर्दशा का था। छायावादी काव्य रूप के माध्यम से उस काल को व्यक्त नहीं किया जा सकता था। निराला ने परंपरावादी बाड़े को तोड़ा और कुकुरमुत्ता, नए पत्ते, भिक्षुक, वह तोड़ती पत्थर जैसी जैसी अमूल्य रचनाएं लिखीं। इससे साहित्य समृद्ध हुआ। आज भी सोशल मीडिया ने यह मौका दिया है। रचनाएं लिखी जा रही हैं। वह लोगों तक पहुंची हैं, पहुंच रही हैं। यह तो आगे का समय ही तय करेगा कि इनमें कितनी रचनाएं यादगार रहेंगी और कितनी रचनाएं समय के साथ काल कल्वित हो जायेंगी।

परिवर्तन: आपके मनपसंद लेखक कौन हैं और क्यों हैं?
कौशल किशोर: मनपसंद लेखकों की लंबी सूची बनाई जा सकती है। विदेशी लेखकों में पाब्लो नेरुदा, ब्रतोल्त ब्रेख्त, गोर्की, नाजिम हिकमत, हार्वर्ड फास्ट आदि का नाम ले सकता हूं। हिंदी लिखकांे में प्रेमचंद, निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर, केदारनाथ सिंह मेरे अत्यन्त प्रिय लेखक हैं। अन्य भारतीय भाषाओं में शरत चन्द, महाश्वेता देवी, नवारूण भट्टाचार्य, महाकवि श्रीश्री, अवतार सिंह पाश, यू आर अनंतमूर्ति हैं तो अपने समकालीनों में सर्वाधिक पसंदीदा रचनाकार हैं गोरख पांडे, वीरेन डंगवाल, आलोक धन्वा आदि। ये वे रचनाकार हैं जिनके सृजन के केंद्र में प्रेम, प्रकृति, जीवन-संघर्ष और मानव गरिमा की प्रतिष्ठा है। इनका सृजनात्मक संघर्ष बेहतर जीवन मूल्यों और खूबसूरत मानवीय व्यवस्था के लिए है। यहां आपको श्रम का सौंदर्य मिलेगा जो सृष्टि और सृजन का आधार है।

परिवर्तन: आप अपनी पीढी के बाद आज की युवा पीढी में किन लेखकों व कवियों को सम्भावनाशील मानते हैं और क्यों ?
कौशल किशोर: साहित्य की दुनिया में हमेशा तीन या चार पीढ़ी सक्रिय रहती आयी है। आज भी हैं। विचारों में युवा होना जरूरी है। आपने पीढ़ियों की बात की है। हमने 1970 के पहले लिखना शुरू कर दिया था। हमारे बाद कई पीढियां आ चुकी है, असंग घोष व पंकज चतुर्वेदी से लेकर संध्या नवोदिता, सीमा आजाद, अनुज लुगुन, अदनान कफील दरवेश और विहाग वैभव तक। लम्बी सूची बनायी जा सकती है। पर बेहतर होगा कि युवा कविता की प्रवृतियों पर बात हो। हमारे समय में मजदूर, किसान, छात्र और उनके आंदोलन थे। इंदिरा निरंकुशता के खिलाफ संघर्ष था। वियतनामी जनता का संघर्ष था। आज का यथार्थ बदला हुआ है। यह एक ध्रुवीय विश्व है। पोस्ट ट्रूथ का काल है। नब्बे के दशक में जो अस्मिता विमर्श उभरा, उसने साहित्य को प्रभावित किया। दलितों, स्त्रियों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों ने एसर्ट किया है। जैसे बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है, वैसे ही धर्मिक अस्मिता ने जातीय अस्मिता को अपना शिकार बनाया। सामाजिक न्याय आंदोलन ढलान पर है। साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद के उदय ने मानस पर असर डाला है। इन सारे सवालों के बीच नयी पीढ़ी पैदा हुई, पल व बढ़ रही है। इनके साहित्य सृजन में इनकी अभिव्यक्त हुई हैं। इस पीढ़ी ने आधुनिक माध्यमों का बखूबी इस्तेमाल किया है। इस दौर में छोटे जिलों व कस्बों से भी कवि व लेखक सामने आये हैं। ये लोकल हैं पर ग्लोबल समझ रखते हैं। पिछले दिनों केदारनाथ अग्रवाल साहित्य सम्मान कार्यक्रम में मुझे बांदा जाने का मौका मिला। मेरी इस यात्रा की बड़ी उपलब्धि तीन युवा कवियों से मिलना रहा है। ये कवि हैं – प्रेमनन्दन, शिव कुशवाहा और प्रद्युम्न कुमार सिंह। इनकी कविताओं में ताजगी है, कथ्य, विचार व कहन का नयापन है। व्यवस्था के ताने बाने से उलझती और प्रतिरोध रचती इनकी कविताओं में समय, समाज, जनजीवन व प्रकृति की द्रुत युगलबन्दी मिलेगी। इस पीढ़ी से उम्मीद की जा सकती है। हमने 1970 के आसपास जो संघर्ष किया, नयी पीढ़ी में हम उसी का विस्तार देखते हैं।

परिवर्तन: समकालीन साहित्य में कई प्रकार की धाराएं एक साथ बह रही हैं । हाशिए का साहित्य लिखा जा रहा है। स्त्रियाँ अपनी बात कह रहीं हैं। हाशिए के साहित्यकारों का एक बड़ा तबका मानता है कि साहित्यिक संस्थाएं, पत्रिकाएं हाशिए के साहित्य को सही स्थान नहीं देती हैं। आपका क्या मानना है ?
कौशल किशोर: साहित्य में हमेशा कई पीढ़ियां एक साथ सक्रिय रहती हैं। इसके साथ ही साहित्य की कई प्रवृतियां भी। यहां कई धाराओं का प्रतिनिधित्व होता रहता है। आज भी कम से कम तीन पीढ़ियां हिंदी साहित्य में सक्रिय हैं और उसी तरह साहित्य की अनेक धाराएं भी हैं। सूचना और अभिव्यक्ति की नयी तकनीक से जहां पुरानी पीढ़ी में अरुचि दिखती है, वहीं नयी पीढ़ी में नयी तकनीक के प्रति आकर्षण दिखता है। उनमें नया करने की आकांक्षा भी दिखती है। आज साहित्य का रूप बदला है। यही कारण है कि आज सोशल मीडिया साहित्य का मंच बनकर उभरा है। हम जिसे हाशिए का समाज कहते हैं, वह वास्तव में हमारे समाज का मुख्य हिस्सा है। क्या स्त्रियों के बिना कोई घर चल सकता है या जिन्दगी का कोई काम हो सकता है? जिन्हें हम दलित और आदिवासी कहते हैं, जो गरीब-गुरबा हैं, वे ही समाज में श्रम के मुख्य स्रोत हैं। श्रम ही सृजन और सभ्यता का कारण है। श्रम ना होता तो क्या दुनिया चल पाती। वह इतनी सुंदर बन पाती। विडंबना यह है कि जिन्हें हाशिए पर होना चाहिए था, वे वर्चस्ववादी शक्तियां हैं और मुख्यधारा पर काबिज हैं। साहित्य में भी वर्चस्ववाद आप देख सकते हैं। साहित्य समाज में भी, अगर जातिगत आधार पर देखें, तो ब्राह्मण व सर्वण जातियों का ही कब्जा है। इस लाॅकडाउन पीरियड में जो लाइव कार्यक्रम हिंदी कविता को लेकर हुए या हो रहे हैं, उन पर गौर करें तो आप पाएंगे कि अधिकांशतः वे ही कवि केंद्र में हैं जो सवर्ण और ब्राह्मण जातियों से आते हैं। दलित या जिन्हें हाशिए का समाज कहा जाता है, वे यहां आपको उपेक्षित से नजर आएंगे। यही हालत हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं की भी है। वहां भी दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों के स्वर का प्रतिनिधित्व नहीं। यह जरूर है कि स्त्रियों, दलितों और आदिवासियों ने संघर्ष किया है और कर भी रहे हैं। उन्होंने जो जगहें बनाई हैं, वे उनके संघर्ष की देन है। उनके संघर्ष की वजह से ही साहित्य में जनतांत्रिक आवाज मुखर हुई है। साहित्य के जनतंत्र का विस्तार हुआ है।

परिवर्तन: आजकल अलग-अलग क्षेत्रों जैसे इंजीनियरिंग, चिकित्सा और अन्य क्षेत्रों के लोग भी साहित्य की भिन्न भिन्न विधाओं में लिख रहे हैं। क्या विश्वविद्यालयों को इन साहित्यकारों को मान्यता देने में गहरी अरुचि है ?
कौशल किशोर: देखा जाए तो साहित्य और सृजन विश्वविद्यालयों के बाहर ही दिखेगा। आज विश्वविद्यालयों का वर्चस्व टूटा है और जीवन के और समाज के विभिन्न क्षेत्रों से लोग साहित्य सृजन कर रहे हैं। इससे साहित्य में विविधता आयी है। उसके अनुभव संसार का विस्तार हुआ है। सृजनात्मक लेखन तो अधिकांशतः इन विश्वविद्यालयों के बाहर ही होता रहा हैं। आज जिन बड़े लिखकों की चर्चा होती है निराला से लेकर त्रिलोचन तक वे विश्वविद्यालय के प्रोफेसर नहीं रहे हैं। साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त अधिकांश रचनाकर भी जीवन के विविध क्षेत्रों से आते हैं। हां, विश्वविद्यालयों में साहित्य चिन्तन, आलोचना और शोध जैसे कार्य अवश्य हुए हैं और हो रहे हैं। उनकी प्राथमिकता में शिक्षा जगत से जुड़े ही रचनाकार अधिकांशतः होते हैं। विश्वविद्यालय में होने वाले साहित्य के कार्यक्रम इसके उदाहरण हैं। एक उदाहरण से इस स्थिति को अच्छी तरह समझा जा सकता है। 2011 में जब हिंदी के पांच बड़े कवियों, केदार-शमशेर-नागार्जुन-अज्ञेय-नेपाली का जन्म शताब्दी वर्ष था, लखनऊ विश्वविद्यालय में उनका जन्म शताब्दी वर्ष आयोजन को लेकर के कोई उत्सुकता व पहल नहीं दिखी। हमलोगों ने लखनऊ में जन्मशती का आयोजन किया। उसमें यह प्रश्न भी उठा था कि हिंदी के प्रोफेसर जिनकी रोजी-रोटी हिंदी के सहारे चलती है, उनकी इस उपेक्षा को किस तरह देखा जाए। इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि विश्वविद्यालयों में हिंदी साहित्य की क्या स्थिति है। उसकी दुनिया में साहित्य और सृजन कितना फल फूल रहा है।

परिवर्तन: आप समकालीन हिन्दी आलोचना को कैसे देख रहे हैं ? क्या आज की चुनौतियों के बरक्स आलोचना अपना काम कर रही है ?
कौशल किशोर: ज तक समकालीन हिन्दी आलोचना की बात है, रचनाकारों को हमेशा से आलोचकों से शिकायत रही है। उनकी नजर में आलोचना दोयम दर्जे का कर्म है। मुझे 1976 का प्रसंग याद आता है। उस दौर के महत्वपूर्ण कवि और मेरे मित्र वेणु गोपाल से इस विषय पर बहस हो गयी। उन दिनों मध्यप्रदेश से निकलने वाली पत्रिका ‘अन्ततः’ में उन्होंने लेख लिखा तथा आलोचना की मौलिकता पर प्रश्न उठाया। उन्होंने आलोचकों पर ‘रूचि की तानाशाही’ का आरोप लगाया। उन्हीं दिनों इसी तरह का आरोप लगाता कवि विजेन्द्र का लेख ‘पहल’ में छपा। अक्सरहां रचनाकारों के इसी तरह के विचार आलोचकों को लेकर पढ़ने को मिलते हैं। मेरी समझ है कि रचना की तरह आलोचना भी सृजन कर्म है। जनजीवन का यथार्थ रचना के लिए जमीन तैयार करता है तथा सृजन का कारण बनता है, वहीं रचना के मूल्यांकन के लिए भी आधार प्रदान करता है। अर्थात रचना की रचनात्मक स्थितियां जिन भौतिक कारणों से निर्मित होती हैं, आलोचना की स्थिति उनसे भिन्न कारणों से नहीं तैयार हो सकती। कला के जनवादी मानदण्ड और सौन्दर्यबोध वही नहीं हो सकते जो कलावादियों के हैं। क्या कारण है कि प्रयोगवादियों ने प्रेमचंद को दोयम दर्जे का कथाकार कहा तथा आजादी के बाद प्रगतिशील कविता को साहित्य से बाहर का रास्ता दिखाया। प्रगतिशील कविता पर उनकी टिप्पणी थी कि ‘यह कविता के साथ शारीरिक सुलूक है’। साफ है कि जनवादी आलोचना के टूल्स प्रयोगवादियों से भिन्न होंगे। हां, गड़बड़ी तब पैदा होती है जब कलावादियों के दबाव या प्रभाव में जनवादी रचनाओं का मूल्यांकन किया जाता है। देखा गया है कि हिन्दी की मुख्य धारा की आलोचना परम्परावाद और समन्वयवाद से मुक्त नहीं हो पायी है। उस पर सगुण धारा और सवर्ण चिन्तन का कमोबेश असर है। जैसे भक्तिकाल की काव्यधारा पर विचार करते हुए कबीर और तुलसी तथा आधुनिक संदर्भ में मुक्तिबोध और अज्ञेय। क्या यह कविता के मूल्यांकन का रूपवादी नजरिया नहीं है ? साहित्य की स्वतंत्र मूल्यवत्ता की जब तलाश की जाती है और इसे ही मूल्यांकन का आधार बनाया जाता है तो ऐसा ही होता है। इसमें कबीर व तुलसी और अज्ञेय और मुक्तिबोध सभी बड़े ही नहीं जरूरी भी नजर आते हैं। यह समन्वयवाद ऐसा ही रूपवादी-कलावादी दृष्टिकोण है जिसका सामाजिक आधार प्रतिगामी है। अन्ततः यह रचना के वस्तुतत्व को गौण कर देता है जिसमें कबीर के समक्ष तुलसी और मुक्तिबोध के समक्ष अज्ञेय बड़े कवि नजर आते हैं। रै दास तो भूले भी याद नहीं आते। एक बात और, आज छोटे-छोटे टारगेट पर काम हो रहा है। रचनाकार हड़बड़ी में है। आलोचना प्रायोजित हो रही है। आलोचक एक को महाकवि बना दे रहा हैं तो दूसरे को वह ध्वस्त कर देता हैं। रचना पुस्तकों की जो समीक्षाएं लिखी जा रही हैं, वे आलोचना तो नहीं ही है, वे समीक्षा भी नहीं है। उसे पुस्तक परिचय कहा जा सकता है। फिर भी ऐसा नहीं कि इस दिशा में काम नहीं हो रहा है। आलोचना के क्षेत्र में एक नयी पीढ़ी काम कर रही है। वह आग्रहों व दुराग्रहों से मुक्त दिखती है। उनमें लोक प्रतिबद्धता है, वैचारिक स्पष्टता है और सच कहने का साहस है। कुछ लोगों को उनकी बातें बुरी लग सकती है, लगी हैं । लेकिन मेरा मानना है कि आलोचना का खतरा उठाते हुए ऐसा करने की जरूरत है।

परिवर्तन: एक सवाल कि आज के युवा लेखकों को, चुनौतियों को देखते हुए आप वैचारिक स्तर पर क्या सलाह देगें ।
कौशल किशोर::सलाह जैसा कुछ नहीं। बल्कि इसके उलट इनसे संवाद करने से अपने को बहुत कुछ नया मिलता है। मैं उनमें अपने को ढ़ूंढता हूं। हां, कुछ बातें जरूर शेयर करना चाहूंगा। पहली, बाजारवाद का जाल बहुत सघन है। इसके प्रति सजग-सचेत होने की जरूरत है। प्रचार के शार्टकट रास्ते से बचा जाना चाहिए। कविता-कहानी आदि की रचना खूब हो लेकिन उन्हें संग्रह का रूप देने में जल्दबाजी न हो। बाबा नागार्जुन कहते हैं कि कविता की कला रोटी पकाने जैसी कि वह जले नहीं और अधपकी भी न रह जाए। दूसरी बात, पुरस्कारों व सम्मानों की भी़ड़ से जितना बच सके उतना रचनात्मकता के लिए शुभ होगा। कविता लिखना सरल काम है लेकिन अच्छी कविता लिखना जटिल है। कविता कला है। इस कला में निपुणता आवश्यक है। नयी कविता व अकविता से आयी छन्द मुक्तता और गद्यात्मकता को तोडा जाय। लय-तत्व का समावेश हो। रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर, धूमिल आदि ने इसका बखूबी इस्तेमाल किया है। कविता में अन्विति होनी चाहिए। वह विचार की हो सकती है। भाव की हो सकती है। शिल्प की हो सकती।

परिवर्तन: परिवर्तन के बारे में आपके क्या विचार हैं?
कौशल किशोर: परिवर्तन शब्द बहुत प्रेरक है, साहित्य के लिए भी और जीवन व समाज के लिए भी। कहा जाता है कि साहित्य समाज का आईना है। यह पुरानी बात है। राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन से लेकर वर्तमान काल में हम देखते हैं कि जनचेतना के प्रचार-प्रसार, समाज, जीवन और मनुष्य को बदलने में साहित्य की महती भूमिका है। साहित्यकार जो लिखता है, वह जीवन की पुनर्रचना ही नहीं है, बल्कि उसमें जीवन की आलोचना भी अन्तर्निहित होती है, परिवर्तन की गूंजें व आहट भी होती हैं। उसकी चिन्ता बेहतर दुनिया और मनुष्य को बनाने की रहती है। नफरत की जगह प्रेम फले-फूले। परिवर्तन से हमारा आशय यही है। कहते हैं कि क्या कविता मुसीबत में साथ होगी? ब्रेख्त का कहना है ‘जुल्मतों के दौर में क्या गीत गाये जायेंगे?/हां, जुल्मतों के बारे में भी गीत गाये जायेंगे’। यहा प्रश्न भी है और उत्तर भी। साहित्य के उपकरण भिन्न होते हैं, इसलिए इसका असर भी अलग होता है। वह मनुष्य की चेतना, मन-मस्तिष्क पर काम करता है।

संपर्क पता – एफ-3144, राजाजीपुरम, लखनऊ 226017 मोबाइल नंबर 840020 8031

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