वो ज़माना और था

एक साधारण परिवार में जन्मे और ग्रामीण परिवेश में पले बढ़े इं दिनेश कुमार सिंह ने लखनऊ विश्वविद्यालय से बी.एस-सी. किया, और देश के प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग कॉलेज आई. ई. टी. लखनऊ से बी.टेक. है।अन्ना आंदोलन से प्रभावित होकर उत्तर प्रदेश सरकार की प्रतिष्ठित नौकरी छोड़कर भ्रष्ट्राचार के खिलाफ जंग में कूद पड़े,व्यवस्था परिवर्तन और समाजसेवा को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया।सम्प्रति लखनऊ से प्रकाशित डे टू डे इंडिया दैनिक के उप सम्पादक!

देश मे सबसे ज्यादा बदलाव 50 और 60 के दशक मे पैदा होने वाली पीढ़ी ने देखा।बैल गाड़ी से लेकर हवाई जहाज़ तक का सफर,चिठ्ठी से लेकर ई-मेल तक,दरवाज़े पर लगे नीम के पेड़ के नीचे सोने से लेकर वतानुकीलित कमरे तक,साईकल से लेकर मोटर कार तक,भाप के रेल इंजन से लेकर मेट्रो रेल तक।
हरित क्रांति से लेकर इंटरनेट क्रांति तक बहुत प्रगति देखी।आज की चका चौध और विलासिता वाले जीवन के बीच जब कभी मन बचपन की ओर लौट जाता है और फिर मन सोचने लगता वह भी क्या दौर था!
जब दरवाजों पे ताला नहीं भरोसा लटकता था,
जब पड़ोसियों के आधे बर्तन हमारे घर और हमारे बर्तन उनके घर मे होते थे,जब पड़ोस के घर बेटी पीहर आती थी तो सारे मौहल्ले में रौनक होती थी।
जब घर मे गेंहूँ साफ करना किटी पार्टी सा हुआ करता था , जब ब्याह में मेहमानों को ठहराने के लिए होटल नहीं लिए जाते थे,
पड़ोसियों के घर उनके बिस्तर लगाए जाते थे।
जब छतों पर किसके पापड़ और आलू चिप्स सूख रहें है बताना मुश्किल था।
जब हर रोज़ दरवाजे पर लगा लेटर बॉक्स टटोला जाता था,जब डाकिये का अपने घर की तरफ रुख मन मे उत्सुकता भर देता था ।
जब रिश्तेदारों का आना,
घर को त्योहार सा कर जाता था।
जब आठ मकान आगे रहने वाली माताजी हर तीसरे दिन तोरई भेज देती थीं,और हमारा बचपन कहता था , कुछ अच्छा नहीं उगा सकती थीं ये
जब मौहल्ले के सारे बच्चे हर शाम हमारे घर ॐ जय जगदीश हरे गाते थे, जब बच्चे के हर जन्मदिन पर महिलाएं बधाईयाँ गाती थीं और बच्चा गले मे फूलों की माला लटकाए अपने को शहंशाह समझता था।
जब बुआ और मामा जाते समय जबरन हमारे हाथों में पैसे पकड़ाते थे,
और बड़े आपस मे मना करने और देने की बहस में एक दूसरे को अपनी सौगन्ध दिया करते थे।
जब शादियों में स्कूल के लिए खरीदे काले नए चमचमाते जूते पहनना किसी शान से कम नहीं हुआ करता था।
जब छुट्टियों में हिल स्टेशन नहीं नानी मामा के घर जाया करते थे और अगले साल तक के लिए यादों का पिटारा भर के लाते थे।
कि जब स्कूलों में शिक्षक हमारे गुण नहीं हमारी कमियां बताया करते थे।
जब शादी के निमंत्रण के साथ पीले चावल आया करते थे।
जब बिना हाथ धोये मटकी छूने की इज़ाज़त नहीं थी, जब गर्मियों की शामों को छतों पर छिड़काव करना जरूरी हुआ करता था।
जब सर्दियों की गुनगुनी धूप में स्वेटर बुने जाते थे और हर सलाई पर नया किस्सा सुनाया जाता था।
जब रात में नाख़ून काटना मना था और संध्या समय झाड़ू लगाना बुरा था।
जब बच्चे की आँख में काजल और माथे पे नज़र का टीका जरूरी था।

जब रातों को दादी नानी की कहानी हुआ करती थी, हम सब कजिन नहीं सभी भाई बहन हुआ करते थे ।
जब डीजे नहीं, ढोलक पर थाप लगा करती थी,
गले सुरीले होना जरूरी नहीं था, दिल खोल कर बन्ने बन्नी गाये जाते थे,शादी में एक दिन का महिला संगीत नहीं होता था आठ दस दिन तक गीत गाये जाते थे।
जब बिना वतानुकीलित रेल का लंबा सफर पूड़ी, आलू और अचार के साथ बेहद सुहाना लगता था।
जब चंद खट्टे बेरों के स्वाद के आगे कटीली झाड़ियों की चुभन भूल जाए करते थे।
जब सबके घर अपने लगते थे बिना घंटी बजाए बेतकल्लुफी से किसी भी पड़ौसी के घर घुस जाया करते थे, जब पेड़ों की शाखें हमारा बोझ उठाने को बैचेन हुआ करती थी।
जब एक लकड़ी से पहिये को लंबी दूरी तक संतुलित करके दौड़ाना एक विजयी मुस्कान देता था,जब गिल्ली डंडा, और कंचे दोस्ती के पुल हुआ करते थे।
जब हम डॉक्टर को दिखाने कम जाते थे डॉक्टर हमारे घर आते थे,
डॉक्टर साहब का बैग उठाकर उन्हें छोड़ कर आना तहज़ीब हुआ करती थी ।
जब बड़े भाई बहनों के छोटे हुए कपड़े और उनकी किताबे ख़ज़ाने से लगते थे,
लू भरी दोपहरी में नंगे पाँव गलियां नापा करते थे और आम,इमली जामुन के पेड़ों पर सरपट चढ़ जाते थे,कुल्फी वाले की घंटी पर मीलों की दौड़ मंज़ूर थी।
जब मोबाइल नहीं धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सरिता और कादम्बिनी के साथ दिन फिसलते जाते थे , टीवी नहीं प्रेमचंद के उपन्यास हमें कहानियाँ सुनाते थे।
जब दस पैसे की चूरन की गोलियां ज़िंदगी मे नया जायका घोला करती थी।
पीतल के बर्तनों में दाल उबाली जाती थी ,चटनी सिल पर पीसी जाती थी।
आज सभी तुरंतों सुविधाएं है,पर वो स्वाद नही,गोबर के कंडे पर पके दूध और दादी के मथे मठ्ठे का कुछ स्वाद ही अलग था।
समय परिवर्तन शील होता वो भी एक दौर था ये भी एक दौर है।
मगर आज दिल कहता है वो वाकई ज़माना कुछ और था ।

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