शिव कुशवाहा की कविताएँ
समकालीन युवा कवि डॉ शिव कुशवाहा सामाजिक सरोकार के कवि हैं ।
{चिड़ियां डर रही हैं }
उन्मुक्त आकाश में
उड़ान भरने वाली चिड़ियां डरी हुई हैं
अपने स्याह होते परिवेश से
दिशाओं में विचरने के लिए
नहीं है उनके पास खुला स्पेस
वे नहीं कर पा रही हैं वह सबकुछ
जो चिड़िया होने के लिए होता है जरूरी
उनके लिए चारो ओर उदासी है
उनके लिए हर तरफ पहरा है
उनके लिए सुरक्षित है केवल भय
उनकी अस्मिता ख़तरनाक माहौल के
बीचो -बीच जूझ रही है
गिद्ध मंडरा रहे हैं चिड़ियों के ऊपर
वे घात लगाए देख रहे हैं
उनकी सी छोटी दुनिया
और मौका मिलते ही खूनी पंजो से
नोचकर फेक देते हैं उनके पंख
बहेलियों ने भी बिछा रखे हैं अपने जाल
वे धोखे से झपटना चाहते हैं
उड़ती हुई चिड़िया की अस्मिता
चिड़ियां डर रही हैं अपनी उड़ान भरने से,
कि वे अब सुरक्षित नहीं हैं अपने घोसलों में
और स्वच्छन्द आकाश में तो बिल्कुल भी नहीं..
{शब्दों की दुनिया}
कविता के शब्द
अब कल्पनालोक में नहीं विचरते
वे जीवन के गहरी उदासियों की
महागाथा में संचरण कर
उगलते हैं रोशनाई की नई इबारत
कविता के बिम्ब
अपने स्याहपन को छोड़कर
सीधे सीधे पैठ जाना चाहते हैं
लोक की अन्तश्चेतना में
भाषा छोड़ रही है
अपनी परंपरागत प्रतीक योजना
वह कविता के साथ
नए भावबोध में व्यंजित हो रही है
कविता में गढ़े हुए प्रतिमान
तेजी से बिखर रहे हैं
अंधेरे में शब्दों की दुनिया
अपने अर्थ खो रही है
वह बदल रही है अपना परिवेश
कृत्रिम भावों का मुलम्मा फीका पड़ चुका है
भावों पर खतरे को महसूसते हुए
अंधेरे में डूबी हुई शब्दों की दुनिया
बढ़ जाना चाहती है
अपने उजलेपक्ष की ओर.
कि कविता अब मुस्कुराते हुए
अपने नए शिल्प में
मुकम्मल होने का इंतज़ार कर रही है..
{बचे रहेंगे शब्द}
नेपथ्य में चलती क्रियाएं
बहुत दूर तक बहा ले जाना चाहती हैं
जहाँ समय के रक्तिम हो रहे क्षणों को
पहचानना बेहद मुश्किल हो चला है
तुम समय के ताप को महसूस करो
कि जीवन-जिजीविषा की हाँफती साँसों में
धीरे-धीरे दम तोड़ रही हैं हमारी सभ्यताएं
स्याह पर्दे के पीछे
छिपे हैं बहुत से भयावह अक्स
जो देर सबेर घायल करते हैं
हमारे इतिहास का वक्षस्थल
और विकृत कर देते हैं जीवन का भूगोल
हवा में पिघल रहा है
मोम की मानिंद जहरीला होता हुआ परिवेश
और तब्दील हो रहा है
हमारे समय का वह सब कुछ
जिसे बड़े सलीके से संजोया गया
संस्कृतियों के लिखित दस्तावेजों में
बिखर रही उम्मीद की
आखिरी किरण सहेजते हुए
खत्म होती दुनिया के आखरी पायदान पर
केवल बचे रहेंगे शब्द,
और बची रहेगी कविता की ऊष्मा..
{बेरंग हो चुकी धरती पर}
ठूठ हो चुके संबंधो में
अब पानी की कमी जाहिर हो चुकी है
कदम दर कदम जब साथ चलना जरूरी होता है
तब संताने छोड़ देती है उनका हाथ
उनके ध्वंस होते हुए सपनों ने
देख ली है संबंधों की हकीकत
कराह रही मानवीय संवेदना को
अब पढ़ लिया है उनकी पथराई आंखों ने
उन्मुक्त आकाश की ऊचाइयों पर
डेरा बनाने वाले पक्षी की तरह
उनकी बेरंग हो चुकी जिंदगी भी
अब निर्द्वन्द जीना चाहती है अपना जीवन
साथ ही साथ देखना चाहती है वह सब कुछ
जो एक जीवन जीने के लिए होता है जरूरी
जाहिर हो चुका है
कि भाषा ने भी तोड़ दिया है अपना दम
कवि की कलम कांप जाती है बार बार
कविता भी असमर्थ हो गयी है
चंद शब्दों की व्यथा-कथा कहने में
हम बेरंग हो चुकी धरती पर सीखें रंग भरना
क्योंकि बेरंगी में तब्दील हो रही दुनियां
अब बाट जोह रही है फिर अपने रंग में वापस होना..
{राह के अंतिम छोर पर}
टूटते हुए परिवेश में
सुकून देता है हरा भरा बगीचा
लाल, नीले, गुलाबी, पीले रंग
मोह लेते हैं मन को.
हरी-भरी घास कालीन की तरह
कराती है सुखद अहसास
दूर-दूर तक आंखों के सामने
बिखरी हरीतिमा
पल्लवित करती है सुकोमल भाव
हवा के मंद-मंद झोंके बहा ले जाते हैं
आकाश में बादलों के बीच
तैर जाते हैं कुछ कोमल अहसास
स्वप्निल दुनियां के आर-पार
मैं ढूंढता हूं अपना खोया हुआ अस्तित्व
चलना ही जीवन का आख़िरी विकल्प है
फिर भी मैं नहीं रहना चाहता
राह के अंतिम छोर पर बसी
धुंधली स्मृतियों की बस्ती में
मैं निकल जाना चाहता हूं
तुम्हारी सघन स्मृतियों से बहुत दूर
जहां प्रेम मौन अभिव्यक्ति बनकर
परिवेश को बनाता है
फूलों की मानिंद खुशनुमा..