सन्तोष पटेल की कविताएँ

 सन्तोष पटेल की कविताएँ

{छोर}
दो छोर
मिलना सम्भव नहीं
जानता हूँ मैं
पता यह भी है मुझे
रहेंगे इसी पृथ्वी पर हम
पर हमारे घूर्णन के लिए
हैं अपने अपने अक्ष
यह भी है पता मुझे
स्थित हैं हम
पृथ्वी पर ही
पर हम हैं दो ध्रुव की तरह
जैसे तुम दक्षिण हो
तो मैं हूँ उत्तर
फिर बोलो तुम ही
है कभी सम्भव
दोनों ध्रुवों का मिलना
नहीं कत्तई नहीं
पर है समानता एक बात में
हम दोनों की तासीर में
दोनों के ही दोनों हैं ठंडे
पर यह है कोरा दृष्टि भ्रम
तुम यदि हो दक्षिण छोर
और मैं उत्तरी छोर
तो यह तुम तय मानो
तुम मुझसे भी हो
कहीं अधिक ठंडे।

{दुनिया तभी होगी खत्म}

सुना है
कोरोना महामारी से
खत्म हो गए हैं सैकड़ों अरबपति
नष्ट हो गए ना जाने कितने व्यापार
लुढ़क गया दुनिया का शेयर बाजार
लेकिन खत्म नहीं होगी दुनिया

महामारी से यदि
मरते हैं उद्योगपति
मरते हैं शासक
मरते हैं राजा
मरते हैं मंत्री
मरते हैं संतरी
मरते हैं हाकिम
मरते हैं डॉक्टर
मरते हैं वैज्ञानिक
मरते हैं प्रशासक
मरती है पुलिस
मरती है सेना
तब भी दुनिया चलेगी

महामारी से यदि
मरते है साहित्यकार
मरते हैं कवि
मरते हैं हीरो- हीरोइन
मरते हैं पुजारी
मरते हैं इमाम
मरते हैं पोप
मरते है महाप्रज्ञ
मरते हैं महाथेर
मरते हैं कोई भी धर्मगुरु
मरते हैं न्यायाधीश
मरते हैं पत्रकार
मरते हैं एंकर
मरते हैं दुकानदार
मरता है मॉल
या मरता है सिनेमा हॉल
तब भी दुनिया चलेगी।

लेकिन दुनिया तभी खत्म होगी
कुछ ही दिनों में
जब महामारी से
मर जायेंगे प्रजापालक
मर जाएंगे किसान
और
मर जाएंगे मजदूर।

{झल्लाहट}

झल्ला जाते हैं वे
और अपनी ‘पीड़ा’ व्यक्त करते हुए
कहते हैं
साहित्य का कूड़ा बना दिया
इन लोगों ने
बने हुए हैं ये फेसबुकिया साहित्यकार
बहरहाल है तो वे भी फेसबुक पर
अतीत को करते रहते हैं याद
आदिकाल, भक्ति काल, रीतिकाल और आधुनिक काल
भरा हुआ है अमृत
इन काल खण्ड के साहित्य में
अब तो सब बेकार हो गया
कविता का
कहानी का
साहित्य का बंटाधार हो गया
झूठा सुखांत कहानी
झूठा दुखांत
ठीक लगता है
पर सच कहने में शर्म आती है
वे बुदबुदाते रहते हैं मंच पर
बहुत देर तक
देख कर उन साहित्यकारों को
जो तोड़ रहे हैं एकाधिकार उनका
उस समय तो और झल्लाए वे
जब देखा एक आदिवासी कवि को
विदेश के विश्वविद्यालय के प्रांगण में
कहने लगे बताओं
निकाल दी हमने जीवन इसी कर्म में
और देखो
इस चार दिन के इस छोकरे को
कैसे पहुँच गया यहाँ
जबकि मेरे सामने बैठता है वह कहाँ
इसे तो देश में ढंग से कोई जानता तक नहीं
पहचानता तक नहीं
फिर इसकी कविताएं यहां के पाठ्यक्रम में
बेचारे महोदय खुद
बहुत दुखी थे
गए थे वे खुद बहुत जुगाड़ लगाकर
सरकारी व्यवस्था का लाभ उठाकर
लेकिन निराशा ही लगी हाथ
छोकरे के सामने फ़ीका ही रहे वे
क्योंकि
झूठी संवेदनाओं को पारखी
पहचानते हैं
काल्पनिक प्रकृति सुंदरता को
पारखी जानते हैं
और वे जानते हैं
आदिवासी की संवेदनाएं
और प्रकृति से सच्चे प्रेम को।

{फ़ासले}

जरूरत पड़ने पर
ढूंढ लेते हैं वे आपको
जानते हैं अच्छी तरह
आपकी भावनाओं को
जानते थे वे तब भी
जब छोड़ दिया
आपको बीच मझधार में
बना कर बहाना समाज का
जाति का, मजहब का।
जानते थे तब भी वे
भावुक हो आप उनके प्रेम में
दे सकते हो जान उनपर
न्योछावर कर सकते हो सब कुछ उनपर
पता था उनको आपकी प्यार के गहराई का
विश्वास भी था आप पर उनको
एहसास भी था आपके मोहब्बत का
लेकिन उनको यह था पता
अच्छे से
कि वे आपसे नहीं करते हैं प्रेम।
उनको निकालना था समय
बस वक्त, अपना खाली वक्त
क्योंकि खाली थे वे मन से,
शुष्क थे ह्रदय से
बिल्कुल खाली अंतर
चाहिए था उन्हें
उनसे कोई बात करने वाला
उनकी जज्बात समझने वाला
और आप थे ‘इमोशनल फूल’
जो आप उनके नजदीक आते रहे
एकतरफा प्रेम का गीत गाते रहे
कभी समझ नहीं पाए उनके छद्म प्रेम को
क्योंकि आपको घर से
सिखलाया गया है था ख़ालिस प्रेम
और उनको सिखाया गया है
केवल और केवल चतुराई
तभी तो आप रहे नाकामयाब
उस फ़ासले को तय करने में
जिसको मिटाने में
बीत गई सदियाँ
ना जाने और कितना वक्त
लगेगा इस फ़ासले को पाटने में
फ़ासले तब ही पटेंगे जब
छोड़गें वे अपनी चतुराई
और अपनायेंगे आपके ख़ालिस प्रेम को।

{फितरत}

नहीं है जो पहले से ही
विश्वास की कसौटी पर खरा
स्वार्थ से हो वह लबालब भरा
क्या करना भला उस पर विश्वास
किसी तरह की आस
खेलकर भावनाओं से
निकल लेता हैं वह जीवन से
किसी न किसी बहाने
जैसे परागकणों को चूस कर फूलों का
उड़ जाती हैं तितलियाँ
फूलों के रस को पीकर
उड़ जाती हैं मधुमक्खियां
सिंचित करने के लिए अपना मधुछत्ता
आवश्यक हो जाता है तब
काबू पाना भावनाओं पर
कठोरता से ही सही
तकलीफ तो होती है
पर जरूरी होता है
समझाना मन को
कि क्या करना भरोसा उसपर?
जो बदल जाता है मौसम की तरह
होते हैं जिसके कई चेहरे
जो यदि मुड़ मुड़ आये जीवन में
तो होता है बचना जरूरी
क्योंकि देता है वह केवल तकलीफ
खुद भी रहता है परेशान
मचाता है दूसरे के जीवन में उथल पुथल
करता है पैदा कठिनाइयाँ
पकड़ कर भावुकता की नादानी
बहुत भावुकता भी है सत्य से पलायन
क्योंकि पहली बार ठगाने वाला
नहीं होता गलत पहली बार
लेकिन दूसरी बार भी वह उसी से ठगा जाए
तो होता है निहायत वह बेवकूफ
उठा कर भावनात्मक बेवकूफी का फायदा
फिर फ़िर आता है वह दूसरे के जीवन में
सुखमय करने नहीं उसे
वरन धकेलने के लिए दुःख के सैलाब में
ऐसा करने के बाद वह
निकल लेता है फिर से बहुत दूर
किसी दूसरे शिकार की तलाश में
क्योंकि वही है उसकी फितरत ।

{हिकारत}
प्रेमचंद ने यूहीं तो
नहीं लिखा होगा ‘होरी महतो’
माना संवेदनावश चुना हो
क्योंकि कलमकार थे वे
लेकिन ‘महतो’ में हिकारत भी भरा हुआ है
वही हिकारत जो
सदियों से पाले हुए हैं वे लोग
हिकारत नहीं होता तो
होरी सिंह भी लिख सकते थे
होरी पांडेय भी लिख सकते थे
होरी तिवारी भी और होरी श्रीवास्तव भी
होरी राय भी
मिश्रा, सिंह, राय और श्रीवास्तव भी गरीब होते हैं
पर जो हिकारत महतो में हैं
वह मिश्रा में कहाँ?
वह सिंह या राय में भी नहीं
वह हिक़ारत श्रीवास्तव में भी कहाँ?
फिर यह कह के छूट सकते हैं वे
कि महतो किसान होते हैं
वे लोग तो किसान नहीं होते
लेकिन वे लोग तो सबसे बड़े किसान भी हैं
मझोले भी और भूमिहीन भी
वे गरीब भी हैं
उनके टाइटिल में वो हिकारत कहाँ?
महतो में हिकारत का चटकारा भी है
सामाजिक व्यस्वथा की कलई खुलती है
कह के कलमकार बच सकता है
परन्तु हिकारत आज भी है प्रेमचंद के जातियों में
सुना था अपनी कानों से
बोलते हुए एक कायस्थ को
जो देते हुए गाली अपने बहन को
बोल रहा था-
क्यों बे! तू महताईन बनोगी?
क्यों बात करती हो उस ‘महतो’ से
यह बीसवीं शताब्दी का लाला नहीं
यह बोलता है एक्कीसवीं सदी का लाला
सोचों कितना सम्भाल के रखते हैं ये
हिकारत अपने दिलों- दिमाग में
और ढोते रहते हैं इसे पीढ़ी दर पीढ़ी
पुरखों की अनमोल धरोहर की तरह।

{आइटम}

शादी पंडाल के प्रवेश-द्वार पर
खड़े रहते हैं दरबान सरीखे दो लोग
ठंडी का हो मौसम या हो गर्मी का
हाथ में थामे रहते हैं भाला
और शरीर पर चढ़ाए भारी लबादा
खड़े रहते हैं टेंट का ‘आइटम’ बनकर

प्रवेश करते हुए शादी पंडाल में
फूलों से अभिवादन करती लड़कियाँ
रहती है खड़ी कतार में दोनों तरफ़
एक ही रंग के परिधान में
मन या बेमन से
डालती है फूलों की पंखुड़ियां
समस्त आगुन्तकों के ऊपर
स्वागत करने की मुद्रा में
बताते हैं यह भी शामिल हैं
टेंट वाले ‘आइटम’ में

पंडाल में करते प्रवेश
टकरा जाता है अचानक
चार्ली चैप्लिन के गेट- अप व ड्रेस में एक व्यक्ति
एक हाथ से डंडा नचाते
दूसरे हाथ में पहन सफेद दस्ताना
लोगों से मिलाता है हाथ
और बहलाता हैं मन आगुन्तकों के बच्चों को
देकर एक टॉफी
यह भी शामिल है टेंट के आइटम में

आगे का दृश्य और भी है निर्मम
जब ठिठुरती ठंड में
अनेकानेक भेष धरे खड़े कुछ लोग
बिना हिले डुले मूर्ति के माफ़िक़
बने रहते है अतिथियों के
आकर्षण का केंद्र
और लोग लेते है सेल्फी
देर रात्रि तब तक
जब तक चलती रहती है पार्टी

कहते हैं यह सब होता है तय
टेंट और इवेंट के आइटम में
शायद सोचा नहीं होगा हमने
कभी इस अमानुषिक आइटम पर
कैसे बेचती है बाज़ार
भूख, गरीबी, मुफलिसी और मजबूरी को
और हम पार्टी में बजने वाले
तेज ध्वनि के डीजे
और सैकोड़ों परोसे लजीज भोजन
उठाते हुए लुफ्त
बंद कर लेते है
सम्वेदनाओं का कपाट।

{दौर ही है कुछ ऐसा}
दौर ही है कुछ ऐसा
जिसमें अज्ञान हावी है ज्ञान पर
प्रचारित अज्ञान करता है दफन सच को
और झूठ की जमीन होती है ठोस
जिसपर की जाती है हत्या
सच को पटक पटक कर

दौर ही है कुछ ऐसा
जब वे होते है लेफ्ट से राइट
और फिर राइट से लेफ्ट
मायावी रूप से
खुल कर नहीं आते सामने
लेकिन हरेक श्रेय के केंद्र में हैं वे

दौर ही है कुछ ऐसा
जहाँ ‘ऊपर के लोग’ शिफ्ट होते है नीचे
लेकिन ऊपर के अधिकार को रखते हुए अक्षुण्ण
लूट लेते हैं नीचे के अधिकारों को
और फिर वे रोते है रोना आरक्षण का

दौर ही है कुछ ऐसा
जहाँ नीचे के लोग करते है अपवर्ड मोबिलिटी
और ‘ऊपर के लोग’ बनने के चक्कर में
बन जाते हैं उन धार्मिक लुटेरों के
हाथ की कठपुतली
और दर्ज होता है इनका नाम
ज्ञान के मंदिर में आक्रमणकारियों में
धार्मिक सौहार्द्र तोड़ने में
होते हैं वे बदनाम

दौर ही है कुछ ऐसा
दुनिया का सबसे बड़ा आतंकी देश
हमला करवाता है अपने टावरों पर
और इस तरह मिल जाता उसे लाईसेंस
तेल चुराने का कुछ देशों का
पाँच सात देश को बर्बाद करने का

दौर ही है कुछ ऐसा
जहाँ जाति व्यवस्था को बनाये रखने के लिए
धर्म की संस्था की जाती है मजबूत
और बड़े धर्म होने के अंहकार में
हो जाता है बंटवारा इंसानों में
ला कर ऐसा कानून
कोशिश होती है मुँह बन्द कर देने की
उन तमाम लोगों का
जो करते हैं मुखर विरोध इस दौर का।

{फाँक}
नव वर्ष 2020 मंगलमय हो। साल की पहली कविता।

देश की आज़ादी के दौरन
बना दिया गया विचारों में फाँक
उससे बने दो ध्रुव
वैसे तो दोनों के दोनों
हैं जैसे एक ही सिक्के के दो पहलू
आपस में मिल नहीं सकते
क्योंकि दोनों के हैं अपने अपने चेहरे
पर है शरीर एक
फिर कहाँ है विचारधारा अनेक?
बस रखा गया एक फाँक
इस फाँक की बड़ी है वजह
इसी दरार को भरने की बात करता है एक मुँह
और काट लेता है पाँच या दस साल का वक्त
और फिर छोड़ देता वह एक फाँक
अपने दूसरे मुँह के लिए
बहुत महत्वपूर्ण है समझना इस फाँक को
क्योंकि इस फाँक को बनाने में
किये जाते हैं ढेर सारे षड्यंत्र
बहुत सारी साजिशें
बहुत ही बारीकी से
जो है मुश्किल समझना आम आदमी को
निगल जाता यह फाँक
जल, जंगल और जमीन की लड़ाई
किसान और मजदूर की व्यथा
गरीब और वंचित का दर्द
सत्ता की प्रतिरोधी शक्तियाँ
जनता की नाराज़गी और बेचारगी
और फाँक करता है इंसान को इंसान से जुदा
धर्म और जाति के आधार बना
और इसी फाँक को भरने की दुहाई देता
पहला मुँह होता है सत्तासीन
फिर इसी फाँक को पाटने के लिए
आता है दूसरा मुँह सत्ता में
इस तरह एक दूसरे का कर मुख़ालफ़त
खड़ी तमाम मुँहें करा दी जाती हैं बन्द
या दबा दिया जाता है उनका गला
ताकि ना आये किसी मुँह से
चूं तक की आवाज़ ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *