स्मृति शेष “कामता प्रसाद वर्मा (कमल)” जी की कविताएं
【 पुष्प 】
पुष्प एक पड़ा राहों पर
मन में था यह सोच रहा
क्यों अलग हुआ अपनों से
क्या है इसकी असली वजह।
सुंदरता मेरी बनी है घातक
या सहृदयता का शिकार हुआ
खड़े शूल थे पास मेरे
उन पर न प्रतिघात हुआ।
प्रसन्न हुआ था एक दिन मैं
मानव के गले का हार बना
पता नही था उसके अन्दर
मानव है या शैतान छिपा।
मन्दिर में हरि के चरणों में
चढ़कर मन मेरा इतराया
क्या किस्मत थी मेरे वजूद की
कूड़ा बनकर बाहर आया।
हो गया मेरा अस्तित्व खतम
लम्बी यात्रा पर निकल गया
कोई उम्मीद न शेष बची
जब आँख से आँसू बह गया।
चाह नही थी मन्दिर में जाना
या लोगो के गले का हार बनूँ
तितली और भौरों की गुंजन से
प्रकृति संग मैं रास रचाऊँ।
द्रवित हो गया मन मेरा
शहीदों पर पर जब गया चढ़ाया
जल कर खाक मिली उनसे
मातृभूमि का मान बढ़ाया।
【 खुद 】
खो गया हूँ खुद में
खुद को ही खोज रहा
उलझ गयी धागे सी ज़िंदगी
सुलझाने की कोशिश में
और उलझता जा रहा।
सुख कमाने के खातिर
लुटा रहा था तन बदन
खर्च करता जा रहा था ज़िंदगी
अब ज़िंदगी बचाने को
ज़िंदगी खर्च करता जा रहा।
दर्द लेकर फिर रहा
दबाये हुए अंतर में अपने
कहीं छलक न जाये
आँखों से आँसू बनकर
बस मुस्कुराये जा रहा।
मारा मारा फिर रहा हूँ
खोकर दिल का चैन और सुकूँ
हसरते हैं उड़ जाने की
उस गुजरे जहाँ में
जहाँ जिया था बचपना।
भाग रहा हूँ अर्थ के पीछे
लुटाकर साँसों का खजाना
यादें रुलाती हैं बहुत
नजर नहीं आता कोई
मेरा अपना जाना पहचाना।
छोड़ कर उड़ गया था घोंसला
बंधन,प्यार अपनों का लगा
याद आती उनकी बहुत
रोता भरकर आँख में आँसू
रोता छोड़ कर जिनको गया।
【तूफान 】
शक्तिशाली हवायें करती ग्रहित
भीषण एवं रूप रौद्र
करती मानमर्दन अकड़ का
सम्मुख पड़ते विशाल वृक्ष।
छतें जो होती हल्की
तूफानों में उड़ जाती हैं
महलों की स्थिरता के आगे
हवायें भी नत मस्तक हो जाती हैं।
काश उड़ जाते दम्भ व्यक्तियों के
जो पर्वत सम ऊँचे होते हैं
नतमस्तक होते!सम्मुख तूफानों के
जो मानवता के दुश्मन होते हैं।
दुष्ट आचरण नित जग में
सीना तान खड़े हो जाते हैं
प्रभाव खत्म तूफानों का होता
उनको टस से मस न करते हैं।
तूफानों की शक्ति के आगे
बड़े रेगिस्तानी टीले सरकते
कितना सुंदर होता तूफाँ
गर असमानता की खाई भरते।
【माँ 】
ख्वाब में जब मैं घबराया
खड़ी विपत्ति को सामने पाया
मेरी जुबां ने एक शब्द पुकारा
सपने में भी माँ बनी सहारा।
भूल गया था उस पल को
बड़े लाड़ से हमको पाला था
गीला करते थे बिस्तर अक्सर
नींद में उसकी खलल डाला था।
खुद गीले में सोकर वो
सर्दी से हमें बचाती थी
चोट लग जाती थी हमारे
आँसू वो आँखों से बहाती थी।
चीजें पहले हमको खिलाकर
खुद मन ही मन हर्षाती थी
अपना हिस्सा हमको खिलाकर
कम खाने की शिकायत करती थी।
पापा जब कभी हमको डाँटते
ढाल हमारी वो ही बनती थी
सारे कुसूर माफ कर देती
आँखों में सूरत मेरी होती थी।
अब हम कितने बड़े हो गये
माँ की गोदी से दूर हो गये
फँसकर दुनियादारी के झमेले में
वो प्यारे पल हमसे दूर हो गये।
कितने स्वार्थी हो गये हम
बस याद में कविता लिखते हैं
है समय नही माँ की सेवा को
एक ऐसे जहाँ में हम रहते हैं।
फँस जाते जब घनघोर अंधेरे में
मायूसी और गम में घिर जाते हैं
गोदी में सर रखकर रोने को
प्यारी माँ को ही सम्मुख पाते हैं।
【नेताजी की आजाद हिंद फौज 】
खिच गयीं थी भृकुटियां वीरों की
जय हिंद बोस ने जब बोला था
हिल गया था पूरा मध्य एशिया
फिरंगियों का सिंहासन डोला था।
आजाद हिंद के वो वीर सिपाही
दिल्ली को कब्जाने को ठाना था
बोस कर चुके थे कूच सिंगापुर से
पूर्वोत्तर भारत पहला निशाना था।
फौज ने पार कर लिया बर्मा को
भारत में प्रवेश करना जारी था
जोश भरे थे आजादी के दीवाने
मन में नेताजी का संबल था।
गांधीजी ने दिल्ली में अंग्रेजों को
एक बार बरबस पुनः चेताया था
छोड़ दे भारत की सत्ता को अब
इसे दोनों के हित में बताया था।
नियति को शायद मंजूर नही था
आजादी भारत को दिलवाने को
जापान पर टूटी थी घोर मुसीबत
हुआ मजबूर साथ छोड़ने को।
हिरोशिमा और नागासाकी नगर
जब अमेरिका ने किये नेस्तनाबूत
कमर टूट गयी थी जापान की तब
बोस का सपना हुआ चकनाचूर।
कर दिया आत्मसमर्पण जापान ने
आगे बढ़ती फौजें वापस बुलवायी
अग्रेज हुए काबिज फिर बर्मा में
आजाद हिंद पर आफत आयी।
घिर गयी थी की फौज चँहुओर से
मुल्क की आजादी का सपना टूटा
हो गये भूमिगत नेताजी तब
मुक्ति देखी या विमान काल बना?
कैद हुए आजाद हिंद के फौजी
उनपे चला मुकदमा लालकिले में
उमड़ा समर्थन में जन समूह ऐसा
ना सोचा होगा कभी सपने में।
होंठों पर था बस एक ही नारा
हो चुका था आजादी का आगाज
कहते “लालकिले से आयी आवाज
सहगल ढिल्लन और सहनवाज”।
माना आज नहीं जीवित हैं नेताजी
पर उनका संघर्ष दिलों में जिन्दा है
गाथायें संजोये हुए क्रांति की
केसरिया पट्टी वाला मेरा झंडा है।