अवधेश यादव का संस्मरण

अनजाने शहर में कुछ अपने से लोग।

शाम के 7 बज रहे है।दिल्ली में, जी.टी.बी. नगर से बत्रा की ओर जानें वाली सड़क पर तेजी से गाड़ियाँ दौड़ रहीं है।मुखर्जी नगर से 500 मीटर पहले एक इंद्राविहार कालोनी पड़ती है,जिसके ठीक सामने डीयू का गर्ल्स हॉस्टल है।अगर पता समझने में आटो वाले को इंद्राविहार नाम से कन्फयूजन है तो गर्ल्स हॉस्टल के नाम से जरूर समझ जाता है।
दिसंबर का महीना होने के बावजूद यह बैरी मौसम हल्की-फुल्की सर्दी का एहसास करा रहा है। अमूमन दिसम्बर महीने में ठंड कड़ाके की पड़ती है।और मैंने ये भी सुना है कि दिल्ली की गर्मी और सर्दी दोनों ही हिला के रख देने वाली होती है।मौसम के हालात को देखते हुए लग रहा है इस साल जाड़े को ही पाल मार दिया है।

खैर मैं भी इस वक्त अपने गाँव की रेंगती हुयी जिंदगी से निकल कर कुछ दिन के लिए दिल्ली के तेज रफ्तार वाली जिंदगी के साथ कदम ताल मिलाने चला आया हूँ।

रफ्तार शब्द.….जो कि राजधानी एक्सप्रेस,शताब्दी एक्सप्रेस ट्रेनों से निकल कर अब बुलेट ट्रेनों का पर्याय बन गया है।
पर यह इत्तफाक ही है कि आज के दौर में तेजी से दौड़ती आधुनिक गाड़ियों के बीच मद्धम गति से रेंगती हुयी रिक्शा गाड़ी भी अपने आस्तित्व को बनाये हुए है।जो आज भी अपने कमजोर पीठ के सहारे जाने कितनों के घरों में चूल्हे जलवाती है।

शाम में ठंडी हवा चलने के कारण मेरे दोनों कान के किनारे कुछ तनाव सा महशूश करने लगे थे।बदन को गर्मी देने के लिए मैंने दोनों हाथों को जैकेट के जेब में डाल लिया।
मैं वहीं कालोनी के बाहर सड़क के किनारे काफी देर से अपने दोस्त का इंतजार कर रहा था।
मेरे सामने कुछ ही दूरी पर एक आदमी रिक्शा वाले से किराए को लेकर बहस किये जा रहा था।मामल सिर्फ 10 रुपये को लेकर था।5 मिनट के जद्दोजहद के बाद रिक्शा वाला हार मान गया।
विजेता आदमी अपना सीना चौड़ा किये पुरष्कृत भाव से मुस्कुराता हुआ आगे निकल जाता है।
दिन में धूप और गर्मी की वजह से रिक्शा वाला शायद स्वेटर पहनना भूल गया होगा,इस लिए ठंड से बचने के लिए उसने अपने पुराने शर्ट के बटन को बार-बार बन्द किये जा रहा था,पर जाने क्यों वह बटन भी किसी शरारती बच्चे की तरह बार-बार खुल कर उसे चिढ़ाये जा रहा था।

वह मेरे सामने रिक्शे पर ही बैठा था। मेरी आदत है अनजान लोगों से बात करने की…।तो मैंने ऐसे ही उस रिक्शे वाले से पूछ लिया….कहाँ के रहने वाले है?
वह मुझे गौर से देखते हुए बोला…..बिहार से है साहब।
बिहार नाम सुनते ही थोड़ा सा मैं सहज हो गया।क्यों कि यूपी का कोई आदमी,किसी बिहारी आदमी से कहीं बाहर मिल जाता है तो ऐसा लगता है जैसे दोनो सगे मौसी के लड़के हो।एक दम अपनेपन वाली फीलिंग मन मे आने लगती है।

अब मैं खड़ी भाषा से भोजपुरी में आ गया..।
मुस्कुराते हुए मैंने बोला…”भे मर्दे… तू तो गांव जेवार के आदमी निकलला।
वह भी हँसते हुए बोला….. कहांँ से आप होई?

गोरखपुर के रहे वाला होंई हम।

उसके चेहरे पर तनाव जो अभी कुछ देर पहले जकड़े हुए था वह धीरे-धीरे गायब हो रहा था।
आगे बात बढाते हुए मैंने पूछा ..
कब से यहां काम कर रहे है?

वह सोचते हुए… सन 87 से आया हूँ, तब से यहीं काम कर हूँ।

सन 87 शब्द सुनते ही मैंने उस आदमी की आँखों के पास फैले झुर्रियों को गौर से देखना चाहा।शायद मैं उन झुर्रियों की लकीरों में साल दर साल उसकी मजबूरियों और कड़ी महेनत के आंकड़े खोजने लगा था।
मैंने आगे पूछा ‘आप इतने दिनों में इस काम से कभी ऊबे नही’ ?
बड़े मासूमियत से वह बोला… और कुछ आता भी तो नहीं है।

आप इतने दिन से यही काम कर रहे हैं ऑटो क्यों नही खरीद लिया…?

बड़ा झन्झट है उसमें… कहां रखूँगा!जगह भी तो चाहिए।किराए के मकान में रहता हूँ।
और कोई फायदा भी नही है,मैं आटो से जितना कमा लेता हूं,उतना ही इस इस रिक्शे से भी कमा लेता हूँ।रोज का 500 से 600 मिल जाता।आटो का रख-रखाव,मशनरी पार्ट पुर्जे का खर्च अलग।यह रिक्शा भी किराए का ही है।यहाँ दिल्ली में 200 रुपये हफ्ते में मिल जाता है।5-6 महीने में गाँव भी चला जाता हूँ।
वह अपनी बातों को दिल खोल कर बोले जा रहा था,जैसे कोई अपने गांव-घर का मिल गया हो।
मैं बड़े ध्यान से उसको सुन रहा था। क्यों कि कुछ मामले में वह मुझसे ज्यादा धैर्यवान दिख रहा था।मैं अक्सर कोई काम ज्यादा दिन तक नहीं कर पाता।एक अजीब ऊबन होने लगती है।यह मेरे लिए आश्चर्य की बात थी।मैं यह सोच रहा था कैसे एक आदमी इतने सालों से एक ही काम को लगातार किए जा रहा है।क्या सच में यह मजबूरी है या उसको इसी काम में मजा आ रहा है।
उस वक्त कई रिक्शा वाले मेरे आस-पास आ चुके थे।वह बड़े उत्साह से सब का परिचय करा रहा था।वह सब बिहार के ही थे।उसी में से एक रिक्शेवाले ने बगल के चाय की दुकान से चाय भी लेते आया।
अंदर से मैं चाय के लिए मना करना चाहा, पर उनका प्यार और खुशी देख कर मैं मना नहीं कर पाया।
चाय का गिलासा खत्म होते-होते,हमारे बीच बहुत सी बातें हुयी।
तब तक मेरा दोस्त आ चुका था।
मैं उस आदमी से जाते हुए हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ बढ़ाया।वह आदमी कुछ पल मुझे हैरानी से देखता रहा,फिर अपना हाथ मिलाने के लिए संकोच से आगे बढ़ाया।उसका ढीला पकड़ मुझे महशूश करा रहा था कि शायद यह बहुत दिनों बाद इस शहर में किसी से हाथ मिला रहा है।या उसके आत्मविश्वास और मेरे आत्मविश्वास में ढेर सारा अंतर है।
पर पकड़ की माने तो रिक्शे की हैंडिल पर वह सन 87 से बनाया हुआ है..।उसका हाथ तो और मजबूती से मिलना चाहिए था…।
इसी उधेड़ बुन में मैं वहां से आगे निकल गया..कुछ दूर जाने पर मैं पलट के देखा तो वह मुझे ही देख रहा था।

और जाते-जाते उसने ये भी कहा था ..
हम यहीं रोज मिलब साहब ,कौनो काम होगा तो जरूर बताइयेगा..।