आधुनिक विकास और आदिवासी संस्कृति का महत्व’
ब्रिजेश कुमार (शोधार्थी) , महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र)
‘विकास’शब्द का अर्थ बहुत व्यापक है। इसके अनेक अर्थ हैं जैसे- बड़ा होना वृद्धि करना, आगे बढ़ना, प्रगति करना इत्यादि। हम आगे तो बढ़ रहे हैं लेकिन सवाल यह है कि किस दिशा में बढ़ रहे हैं। आज जब पूरी दुनिया के ‘सभ्य समाज’ में हाहाकार मचा हुआ है, पृथ्वी का तापमान 45-50 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच रहा है, ओजोन परत लगातार कमजोर होती जा रही है, पीने के पानी का घोर संकट उत्पन्न हो चुका है, ग्लेशियर इतनी तेजी से पिघल रहे हैं कि कुछ देशों का अस्तित्व खतरे में है और पूरा वायुमण्ल विषाक्त हो चुका है । वैश्विक स्तर पर निर्मित ऐसी परिस्थितियों में हमें अपने विकास, सभ्यता और संस्कृति की समीक्षा करनी चाहिए ।
ध्यान रहे ! विकास का या जीवन जीने का कोई एक ही मॉडल नहीं होता है । जिस तरह समंदर में अनगिनत भिन्न-भिन्न धाराएँ एक दूसरे के समानान्तर या विपरीत चलती रहती, वैसे ही एक ही समय में समाज के अन्दर अनगिनत भिन्न-भिन्न संस्कृतियाँ समानान्तर चलती रहती हैं । इन्हीं समानान्तर चलती संस्कृतियों में ही पृथ्वी और पृथ्वी पर जीवन को बचाने की वैज्ञानिक औषधि छुपी रहती है, जिसकी पहचान हमारी अनिवार्य सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जिम्मेदारी बनती है । मुख्यधारा का ‘सभ्य समाज’ कितना मानवता विरोधी है, कितना मानवता पक्षधर, इसका वास्तविक चित्र पेश करने वाली घटनाएँ हैं प्रथम विश्वयुद्ध, द्वितीय विश्वयुद्ध, अमरिका-वियतनाम युद्ध, मुशोलिनी और हिटलर द्वारा किये गये नरसंहार । वर्तमान समय में ईरान, ईराक,अफगानिस्तान, मिश्र, लीबिया, चिली सहित दुनिया के अनगिनत देशों में अन्तहीन पीड़ा की जो दर्दनाक स्थितियाँ उत्पन्न हो गयी हैं यही इसका वास्तविक चरित्र है । ये सभी की सभी घटनाएँ सिर्फ सौ (100) वर्षों की हैँ । इससे पूर्व यानि 20वीं शताब्दी से पूर्व मुख्यधारा माना जाने वाला ‘सभ्य समाज’ जिन-जिन कत्लेआमों से होकर गुजरा है, उसको सोचने मात्रसे दिल दहल जाता है। यह ‘सभ्य समाज’ आगे चलकर यदि अपना पुनर्मूल्यांकन नहीं करता, तो सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है, कि यह कहाँ जाकर ठहरेगा । हाल ही में प्रो० हाकिंस ने लोगों को सचेत करते हुए कहा कि “आगे आने वाले सौ वर्षों में अगर सब कुछ ऐसे ही चलता रहा तो पृथ्वी पर जीवन खत्म हो जायेगा”। विकास और शान्ति का नारा आज पूरी दुनिया में जोर शोर पर है । अमित भादुड़ी जैसे अर्थशास्त्री विकास के वर्तमान मॉडल को “विकास का आतंक” नाम दे चुके हैं । एक आकड़े के मुताबिक “दुनिया में हर साल तकरीबन 15 अरब पेड़ काट दिये जाते हैं । मानव सभ्यता के शुरूआत के बाद से दुनिया में पेड़ों की संख्या में 46% की कमी आयी है । दुनिया में जंगलों के खात्में की यही गति जारी रही तो 21000 तक समूची दुनिया से जंगलों का खात्मा हो जायेगा।
1.मुख्यधारा’ के विकास के इसी विनाशकारी चरित्र के कारण आज भारत के जंगलों में आदिवासियों और राष्ट्र – राज्य के बीच युद्ध जैसी स्थितियाँ बनी हुई हैं । मुख्यधारा के साथ आदिवासियों का यह संघर्ष हजारों वर्ष पुराना है। राष्ट्र – राज्य के उदय से लेकर अब तक उनके मूल चरित्र में कोई बदलाव नहीं हुआ, उल्टा विकास ही हुआ है । इतिहासकार रोमिला थापर ने एक सवाल करते हुए कहा कि “यद्यपि अशोक ने युद्ध और हिंसा से मुँह मोड़ लिया था, फिर भी जंगल के निवासियों पर आक्रमण करने और जान से मारने की धमकी दी थी । क्या यह राज द्वारा जंगलों पर कब्जा करने और उसका आदिवासियों द्वारा प्रतिरोध करने का परिणाम था? भारत में यह सब लगातार हो रहा था और आज भी हो रहा है।
2. जिसे हम ‘सभ्य समाज’ कहते हैं अगर उसका ऐतिहासिक विकास क्रम खीचें तो पता चलता है, कि यह समाज दास प्रथा या गुलामी की प्रथा से होता हुआ सामन्तवाद तक आया है । और फिर सामन्तवाद से होता हुआ पूँजीवाद और साम्राज्यवाद तक पहुँचा है । साम्रज्यवाद यानि सामूहिक हत्यारी शासन व्यवस्था वाला समाज । कुल मिलाकर आदिवासी समाज और ‘सभ्य समाज’ में मुख्य अन्तर यह है कि सभ्य समाज ने अपने ही लोगों को कभी दास बनाया, कभी प्रजा बनाया तो कभी मजदूर बनाकर उनका सर्वांगीण शोषण करता रहा है। जबकि आदिवासी समाज आर्यों के भारत आगमन के पूर्व से लेकर आज तक जिस तरह से अपने समाज को संचालित किया, उसमें न कोई राजा होता था, न कोई गुलाम होता था, न कोई स्वामी न कोई दास होता था, बल्कि सभी मेहनत करते थे और बराबरी के साथ जीवन यापन करते थे । “सच तो यह है की हमारे समाज में न कोई राजा होता था, न कोई प्रजा। सभी बराबर होते थे । हर गांव में एक मुखिया जरूर होता था जिसे मुण्डा कहते थे और कई गांवों के मुखिया के ऊपर एक मानकी होता था । ठेर सारे गांवों को मिलाकर जो पंचायत बनती थी उसे पीड़ कहा जाता था । हां, तो मुंडा, मानकियों पर गांव में विधि व्यस्था कायम रखने, सामाजिक नियमों को लागू करने, अपराध रोकने, जमीन का लेखा-जोखा रखने आदि की जिम्मेदारी होती थी । जिम्मेदारी जरूर होती थी परन्तु किसी भी निर्णय में प्रायः गांव की परोक्ष सहमति अवश्य होती थी । मुंडा, मानकी पद आनुवंशिक भी होते थे परन्तु ग्रामीणों की जनतांत्रिक शक्ति ही सर्वोपरि थी । मुंडा, मानकी भी गांव के दूसरे लोगों की तरह ही आम किसान होते थे । सबके साथ उठते – बैठते, नाचते – गाते, खेत खलिहान में काम करते थे या शिकार पर जाते । दूसरे समाजों की तरह प्रजा को अपना गुलाम समझकर उस पर प्रभुत्व जमाने वाला या अत्याचार करने वाला सिंहासन पर बैठा हुआ अकूत सम्पदा का मालिक कोई मुकुटधारी राजा नही।
3. आदिवासी शासन व्यवस्था के अन्दर मौजूद ये तमाम लक्षण वास्तविक सभ्य कही जा सकने वाली शासन व्यवस्था के बहुत नजदीक हैं । आदिवासियों के कबीले गोत्रों में विभाजित होते हैं और गोत्रों के नाम पशु, पक्षी, फल, आदि से सम्बन्धित होते हैं। इन सभी गोत्रों के नाम प्रकृति से सम्बन्धित हैं । अपने प्रकृति की रक्षा करना, उसके प्रति आदर भाव रखना, इन आदिवासियों की धार्मिक व्यवहार की पहली सीढी है । यहीं से उनके धर्म में प्रकृति रक्षा के मूल्यों का समावेश हुआ । आदिवासियों की धारणा के अनुसार “केकड़ा, मछली और केंछुआ पृथ्वी से भी पहले के पूर्वज हैं । उन्हीं के सहयोग से पृथ्वी बनी । ये सभी पूर्वजों के प्रतीक हैं।
4.आदिवासियों के जो गोत्र जिस जीव-जन्तु से अपनी उत्पत्ति का सम्बन्ध जोड़ते हैं उसकी रक्षा को धर्म, नाश को अधर्म मानते हैं, जैसे “लिंडा-केचु्आ, मिंज-मछली, कच्छप-कछु्आ, हेम्ब्रम-धान, हांसदा-सिंदवार, सवरिया-घास, भूइयां-जमीन आदि।
5.आदिवासयों के सभी अनुष्ठानों में प्रकृति को ही प्रधानता दी जाती है । बीजारोपण से लेकर अन्नग्रहण करने तक पृथ्वी की शक्ति और उसके तलों का अनुष्ठानिक आह्वाहन , प्रशंसा, निवेदन एवं धन्यवाद किया जाता है।
6. आदिवासी समाजों में पृथ्वी और पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति की जहाँ इतनी तार्किक या वैज्ञानिक अवधारणा है, वहीं ‘मुख्यधारा’ के सभी ‘सभ्य समाजों’ में पृथ्वी और पृथ्वी पर जीवों की उत्पत्ति की चमात्कारिक अवधारणाएं है। ‘मुख्याधारा’ के समाजों में मुख्यतः तीन-चार प्रकार के धर्मावलम्बी लोगों का समाज आता है जैसे हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, यहूदी इत्यादि । अगर दुनिया के पैमाने पर देखा जाय तो फासीवादी संगठनों ने ऐसे-ऐसे कारनामें किये हैं कि पूरी मानवता शर्मसार हो गयी है । भारत के सन्दर्भ में 1984 का दंगा हो या 1992 का बाबरी विध्वंस हो या वर्तमान में मुजफ्फरनगर, दादरी और गौरक्षा के नाम पर की जाने वाली सैकड़ों हत्याएं (नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पांसारे, प्रो.एम.एम. कलबुर्गी, प्रो. कृष्णा की हत्यायें) ये सभी की सभी घटनाएं सभ्य समाज की विकृत सोंच की सूचक हैं । ये तमाम घटनाएं यह बताती हैं कि सभ्य समाज धर्म को लेकर कितनी संकीर्ण सोंच रखता है । कभी गाय को लेकर, कभी सुअर को लेकर, कभी दूसरे धर्म को मानने वालों को लेकर आपस में लड़ते रहते हैं और एक दूसरे की हत्या के लिए सामूहिक नरसंहार का आयोजन करते हैं । जहां एक तरफ धर्म और धार्मिक मान्यताओं को लेकर मुख्यधारा का समाज इतना संकीर्ण है, वहीं सरना (आदि धर्म) को मानने वाले आदिवासी धर्म को लेकर कभी दंगे नहीं करते, कभी आपस में टकराते नहीं और कभी एक दूसरे से मनमुटाव नहीं रखते। आदिवासियों में अनेक जनजातियां पायी जाती हैं और कइयों की अपनी अलग-अलग धार्मिक मान्यतायें भी हैं। जैसे-आदिवासी जनजातियों का एक हिस्सा बन्दरों की पूजा करता है, एक दूसरा हिस्सा चूहों को अपना वंशज मानता है और उसकी पूजा करता है । आदिवासियों का कुछ हिस्सा अगर चूहों की पूजा करता है, तो कुछ लोग चूहों को बड़े चाव से खाते हैं । चूहों को चाव से खाने वाली जाति पर चूहों की पूजा करने वाली जाति कभी हमला नहीं करती, मारपीट नहीं करती, मनमुटाव नहीं रखती जैसा की सभ्य समाज के लोग करते रहे हैं । बल्कि यह उनकी अपनी संस्कृति है ऐसा कहकर उनकी संस्कृति को मान्यता भी देते हैं और अपनी संस्कृति को अपरिवर्तनीय भी बनाये रखते हैं। इससे बड़ा सहिष्णुता का उदाहरण और क्या हो सकता है । आदिवासी समाज के लोगों और सभ्य समाज के लोगों में प्रकृति को लेकर बहुत अन्तर है । आदिवासी प्रकृति के साथ नाभिनालबद्ध हैं । वे संसार में नदियों के बहते रहने को धमनियों में बहने वाले रक्त की तरह जरूरी समझते हैं । वे पहाड़ के एक टुकड़े के बजाय बुरूबोंगा (पहाड़ देवता) या पूरे पहाड़ को ही देवता मानते हैं । वे सम्पूर्ण वातावरण की शुद्धता को श्वास नलिका और फेफड़े में प्रवाहित होने वाली प्राणवायु की तरह अनिवार्य समझते हैं । वे पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों यानि पूरे पारिस्थितिक तंत्र को ही अपने जीवन और परिवार का अभिन्न अंग मानते हैं । वे सम्पूर्ण प्रकृति की पूजा करते हैं। उनके गीत-संगीत, नृत्य,पर्व-त्यौहारों, परम्पराओं, मान्यताओं, लोक कथाओं और मिथकों में भी प्रकृति की प्रधानता और प्रकृति की रक्षा का संदेश छिपा रहता है । वे प्रकृति से उतना ही लेते हैं जितने में उनके जीवन की अनिवार्य जरूरतों की पूर्ति हो सके । वे प्रकृति को कभी अपने भोग विलास का साधन नहीं समझते हैं । आदिवासियों से भिन्न मुख्याधारा का पूंजीवादी ‘सभ्य समाज’ प्रकृति को हर छोटी-बड़ी आवश्यकता की पूर्ति का साधन समझता है । निजी सम्पत्ति को बढ़ाने का सर्वाधिक उपयुक्त साधन समझता है । सभ्य समाज प्रकृति के अन्धाधुन्ध दोहन से भोग–विलास के नये–नये कीर्तिमान स्थापित करना चाहता है । जिसका उदाहरण जंगलों मे बढ़ती बाक्साइट की खदानें, एल्यूमिनियम की खदानें, यूरेनियम की खदानें और नदी, नालों, झरनों, तालाबों इत्यादि का निजी हाथों में सौंपा जाना है । पूंजीवादी समाज द्वारा प्रकृति के अन्धाधुन्धा दोहन से आज पूरी दुनिया में प्राकृतिक असन्तुलन पैदा हो गया है । आज हम एक ऐसे समय में प्रवेश कर गये है कि अगर सभ्य समाज प्रकृति की ओर नहीं लौटता, आदिवासियों द्वारा पारिभाषित प्रकृति और मनुष्य के रिश्ते को नही समझता तो ……………….।
7.परिस्थितियां मनुष्य की चेतना को बनाती हैं, पुनः मनुष्य की चेतना पलटकर परिस्थितियों को बनाती है यानि परिस्थितियों के साथ टकराने से मनुष्य की चेतना निर्मत होती है । खोज का विषय यह है कि वह कौन सी परिस्थितियां थी । जिसके चलते आदिवासियों और मुख्यधारा के सभ्य समाज के लोगों की चेतना अलग – अलग तरह से विकसित हुई । इसका सूक्ष्म विश्लेषण करने से यह बात साफ होती है कि देवासुर संग्रामों ने इनकी चतना को प्रभावित किया । देवासुर संग्राम क्या था? “देवासुर संग्राम दो संस्कृतियों के बीच का युद्ध था।” यह जंगल को काटकर और जलाकर खेती करने वालों और जंगल पर आश्रित, लोहा गलाने में माहिर लोगोंर के बीच का युद्ध था । धुमन्तू आर्य बाहर से आये और यहां पर पहले से मौजूद लोगों पर हमला करने लगे। आर्य-आदिवासी एक दूसरे के आमने-सामने इसलिए आये कि आर्यों ने खेती करने की कला का विकास कर लिया था और उन्हें खेती करने और स्थायी रूप से रहने के लिए जमीन की आवश्यकता पड़ी, जमीन पर कब्जा चूंकि आदिवासियों का था । इसलिए दोनों के बीच युद्ध प्रारम्भ हो गया । युद्धों में जो विजयी जाति होती है वह विजित जाति के प्रति तिरस्कर का भाव भी रखती है । और वही इतिहास भी लिखती है । जाहिर है, इसी मनोविज्ञान के कारण आर्यों ने खुद को देवता और उन्हें असुर, राक्षस या दानव कह डाला । आर्य शुरू से ही दूसरों की जमीन पर कब्जा करते रहे, लूट पाट करते रहे, साम्रज्य का विस्तार करते रहे, जंगलों को काटते और यज्ञों में जलाते रहे, प्रकृति का दोहन कर अपना विकास करते रहे, अपने ही लोगों को गुलाम बनाकर कृषि कार्यों में लगाते रहे, कृषि के अतिरिक्त उत्पादन को बचाते रहे और लगातार आगे बढंते हुये साम, दाम दण्ड, भेद के जरिये अपना ‘विकास’ करते रहे, इसीलिए उनकी चेतना साम्राज्यवादी, विलासवादी चेतना में बदल गयी । इसके बिल्कुल विपरीत यहां के मूल वाशिन्दे आग के आविष्कारक थे, प्रकृति पर निर्भर थे, साम्राज्य विस्तार के बजाय अपनी संस्कृति को बनाये रखा चाहते थे, प्रकृति के पूजक थे, शान्तिप्रिय थे और खुशहाल रहना चाहते थे । आर्यों के अन्याय से लड़ते हुये भी युद्ध कला में माहिर न रहने वाले आदिवासी पीछे हटते गये, क्योंकि वो अपनी संस्कृति और प्रकृति को बचाये रखना चाहते थे । इसलिए आदिवासीयों की जो चेतना बनी, वह थी शोषण के विरोध की चेतना, युद्ध के विरोध की चेतना, साम्राज्यवाद या साम्राज्य विस्तरा के विरोध की चेतना, प्रकृति के प्रति प्रेम की चेतना। इसी चेतना के कारण आदिवासी दोस्त और दुश्मन की पहचान बहुत जल्द कर लेते हैं और उनके खिलाफ युद्ध भी प्रारम्भ कर देते हैं । अन्याय के खिलाफ” आदिवासी वीर युद्ध से भागते नहीं थे । अन्तिम योद्धा के मरनें तक वो लड़ते रहते थे । एक नेता के मरनें के बाद तत्काल दूसरा नेता, टुकड़ी की कमान सम्हाल लेता था।
8. आदिवासियों का संघर्ष आज सबसे ज्यादा तीखा और हथियार बन्द इसलिए भी हो गया है क्योंकि उनका मानना है, कि हम वैदिक काल से पीछे हटते-हटते यहां तक और इस हालत में आ गये हैं, कि यदि अब जान की बाजी लगाकर नहीं लड़े तो हमारा अस्तित्व ही खत्म हो जायेगा । “हम वैदिक काल से सप्त सिन्धु के इलाके से लगातार पीछे हटते हुए आजमगढ़, शाहाबाद, आरा, गया, राजगीर से होते हुए वन-प्रान्तर कीकट,पौंडिक, कोकरहाट या चोटिया नागपुर पहुंचे । हजार सालों में कितने इन्द्रों, कितने पाण्डवों, कितने सिंगबोंगा ने कितने-कितने बार हमारा विनाश किया, कितने गढ़ ध्वस्त किये, इसकी कोई गणना किसी इतिहास में दर्ज नहीं है । केवल लोक कथाओं और मिथकों में हम जिन्दा है।
9 .आज आदिवासी जिस विकराल संकट का सामना कर रहें हैं उसका मूल कारण राष्ट्र-राज्य की अपार ताकत और आतंक-कारी हिंसक प्रवित्ति है।
10. आदिवासी राष्ट्र-राज्य के इस आतंक कारी प्रवित्ति के खिलाफ” लड़ रहे हैं । आदिवासी अघोषित उलगुलान , कट रहे हैं वृक्ष , भूमाफिया की कुल्हाड़ी से और बढ़ रहे है कंकरीट के जंगल।
इस तरह से देखें तो आर्यों की चेतना या ‘सभ्य समाज’ की चेतना विस्तार, शोषण, विलास और विध्वंस की चेतना है, जबकि आदिवासियों की चेतना प्रतिरोध, शान्ति और निर्माण की चेतना है । ‘मुख्यधारा’ के ‘सभ्य समाज’ को चाहिए कि आदिवासियों को हिन्दू या ईसाई बनाने (सभ्य बनाने), उनका विकास (विनास) करने, उनके आन्दोलनों को कुचलने की जबरन कोशिश करने के बजाय उनसे कुछ सीखें और उनकी संस्कृतियों के अन्दर मौजूद तमाम लोकतांत्रिक सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक मुल्यों को आत्मसात करें। ऐसा करना ‘आधुनिक सभ्य समाज के लिए, उनके मूल्यों के लिए और पृथ्वी पर जीवन को बचाने के लिए बहुत उपयोगी होगा।
सन्दर्भ सूची-1. रावत, ज्ञानेन्द्र, ‘कटते पेड़ों और घटते जंगलों का भयावह गणित’, 6 जुलाई, हिन्दुस्तान अखबार 2017, पृ- 082. पाण्डेय, मैनेजर, ‘यथार्थ से मिथक बनते एक समृदाय की कथा व्यथा,’ नया ज्ञानोदय, मार्च 20103. माजी, महुआ, ‘मरंग गोड़ा नीलकंण्ठ हुआ, प्रथम संस्करण, पृ- 2944. मुण्डा, रामदयाल, आदिधरम, प्रथम संस्करण, पृ- 215. कुमार, वीरेन्द्र, आदिवासी विमर्श और हिन्दी साहित्य (लेख-साहू सुरेश)6. मुण्डा, रामदयाल, आदिधरम (प्रथम संस्करण) पृ- 187. रणेन्द्र, ‘ग्लोबल गाँव के देवता’, प्रथम संस्करण, पृ-438. गुप्ता, रमणिका, स्वतंत्रता संघर्ष में आदिवासी9. रणेन्द्र, ‘ग्लोबल गाँव के देवता’, प्रथम संस्करण, पृ-4310. पाण्डेय, मैनेजर, उपन्यास और लोकतन्त्र, पृ-21211. लुगुन, अनुज, कविता, प्रगतिशील वसुधा, अंक-85, पृ-184
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