आर्थिक संवृद्धि एवं पोषण सुरक्षा के लिये केला उत्पादन

 आर्थिक संवृद्धि एवं पोषण सुरक्षा के लिये केला उत्पादन

डॉ. देवेंद्र सिंह ,
माटी फाउंडेशन
संत कबीर नगर, उत्तर प्रदेश

कृषि का ग्रामीण जीवन में प्रमुख स्थान है। हमें भोजन से स्वस्थ रहने के लिये ऊर्जा तथा पोषक तत्वों की प्राप्ति होती है। खाद्द्य पदार्थों में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, विटामिन और खनिज सहित पर्याप्त पोषक तत्वों की कमीं से हम कुपोषण के शिकार हो सकते हैं। केला कम कीमत, स्वादयुक्त, उच्च पोषक तत्वों तथा चिकित्सकीय गुणों से भरपूर लगभग पूरे वर्ष उपलब्ध रहने वाला फल है। फलों और सब्जियों के बीच केला एक प्रमुख और विशेष फसल है तथा कुछ अफ्रिकी देशों में यह प्रमुख भोजन के रूप में उपयोग किया जाता है। केला उत्पादन एवं खपत में भारत का विश्व में प्रथम स्थान है जबकि कुल निर्यात लगभग 1 प्रतिशत से कम है। देश में वर्ष 2020 तक के लिए केला उत्पादन का लक्ष्य 25 मिलियन टन रखा गया है, इस लक्ष्य को पूरा करने के लिये केले के उत्पादन एवं उत्पादकता में वृद्धि करने की आवश्यकता है।

नवीन समेकित तकनीक द्वारा केला उत्पादन के हर पहलूओं जैसे- पौध प्रवर्धन, रोपाई, सिंचाई, उर्वरकों का समुचित प्रयोग, समन्वित पौध संरक्षण इत्यादि पर यथोचित ध्यान देने की आवश्यकता है। कटाई उपरांत केला भंडारण एवं विपणन को सुनिश्चित किये जाने की जरूरत है, जिससे कि उत्पादकों को उनके उत्पाद का उचित मूल्य मिल सके तथा उपभोक्ताओं तक उच्च गुणवक्ता वाले केले की आपूर्ति को सुनिश्चित किया जा सके। केला एक शीघ्र ही नष्ट हो जाने वाला फल है, देश में केला भंडारण की क्षमता बढ़ाने के साथ-साथ इसके मुल्यसंवर्धन द्वारा विभिन्न उत्पादों के निर्माण में गुणात्मक वृद्धि लाने की आवश्यकता है। किसानों की आर्थिक उन्न्ति के लिये केले की खेती का नगदी फसल के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका हो सकता है।

1. जलवायु एवं भूमि

जलवायु: मूसा जाति के घासदार पौधे द्वारा उत्पादित फल को केला कहा जाता है। विश्व के गर्म उष्ण्कटबंधीय क्षेत्रों में केले की खेती की जाती है तथा इसके उत्पादन के लिये 15-35°C तापक्रम एवं 75-85% सापेक्षित आद्रता सर्वोत्तम जलवायु है। तापक्रम इससे कम या अधिक होने पर केले की वृद्धि प्रभावित होती है एवं 10°C से कम तापक्रम पर पौधे का विकास रूक जाने के कारण फसल देर से तैयार होती है। केला अधिक पानी पसंद करने वाली फसल है किंतु अधिक जल जमाव की स्थिति में इसकी वृद्धि को प्रभावित होती है। गर्म एवं तेज हवाओं से पौधे की रक्षा करने के लिए खेत के किनारे या मेड़ पर वायु रोधक पौधों या वृक्षों को लगाना चाहिए। वर्षा जल पर आधारित खेती में भी 25 मिमी वर्षा सप्ताह पर्याप्त है, वरना सिंचाई की जरूरत पड़ती है।

केले की खेती मुख्य रूप से एशिया, लैटिन अमेरिका और अफ्रीका में किया जाता है, इसके प्रमुख उत्पादक देश भारत, चीन, ब्राजील, इक्वेडोर, फीलिपिंस, इंडोनेशिया, कोस्टारिका, मेक्सिको, थाईलैंड, कोलम्बिया, इज़रायल, दक्षिणी अफ्रिका, ताईवान, बंग्लादेश तथा श्रीलंका हैं। देश में तमिलनाडु राज्य का केला उतपादन में पहला स्थान है तथा प्रमुख क्षेत्र महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, गुजरात, असम, बिहार और उत्तर प्रदेश राज्यों के अंर्तगत आता है।
भूमि: केले को हल्की से उच्च पोषक तत्वों वाली मिट्टी में उगाया जा सकता है, इसकी खेती के लिए जीवांश युक्त दोमट और उन्नत दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है तथा pH 6-7.5 होना आवश्यक है। मृदा संरचना में सुधार करके तथा उचित जल निकास की व्यवस्था द्वारा 4.5-8.0 pH मान वाले भूमि में भी केले का उत्पादन किया जा सकता है। केला उत्पादन के लिए, अच्छे जल निकास वाली, पर्याप्त उपजाऊ और नमी की क्षमता वाली मिट्टी का चयन करना चाहिए। केले की अच्छी खेती के लिये मिट्टी में उचित नत्रजन की मात्रा, पर्याप्त फासफोरस की उपलब्धता तथा अधिक पोटाश वाली मिट्टी का चयन करना चाहिए। रेतली, नमक वाली, कैल्शियम युक्त, जल जमाव, कम हवादार एवं कम पौष्टिक तत्वों वाली मिट्टी में केले की खेती नहीं करना चाहिए।

2. खेत तथा गढ़्ढ़ों की तैयारी

खेत की जुताई: केले की खेती के लिए सबसे पहले गर्मियों में कम से कम 3-4 बार खेत की अच्छी तरह जुताई करनी चाहिये, आखिरी जुताई के समय 10 टन प्रति एकड़ दर से गोबर की खाद को मिट्टी में अच्छी तरह मिलायें तथा ज़मीन को ब्लेड हैरो या लेज़र लेवलर से समतलीकरण करें।

गढ़्ढ़ों की तैयारी: केले की बौनी प्रजाति को रोपित करने के लिये मई-जून के महीनों में एक वर्ग फीट के आकार का गढ़्ढ़ा बना लें, गढ़्ढ़ों को 15 दिनों के लिये धूप में खुला छोड़ दें, जिससे हानिकारक कीट एवं बिमारियां समाप्त हो जायेंगी। गढ़्ढ़ा बनाते समय यह ध्यान देना जरूरी है कि पौध से पौध दूरी 5 x5 फीट तथा पंक्ति से पंक्ति का फासला 5×6 या 5×7 फीट रखने की सलाह दी जाती है। पौध रोपण से 15 दिन पूर्व गढ़्ढ़ों को केंचुआ खाद या कम्पोस्ट एवं मिट्टी के 1:1 मिश्रण तथा एक किलो अरंडी या नीम की खली, 20 ग्राम फ्यूराडॉन मिट्टी में मिला देना चाहिए। सूत्रकृमि प्रभावित क्षेत्रों में केला रोपाई से पहले सूत्रकृमिनाशक को गढ़्ढ़ों में डालकर मिला दें। गढ़्ढ़ा भरने के उपरान्त सिंचाईं करना अति आवश्यक होता है, जिससे गढ़्ढ़ों की मिट्टी बैठ जाय।

पौध रोपण का समय: पश्चिमी तथा उत्तरी भारत में केला लगाने का सबसे उत्तम समय दक्षिणी तथा पश्चिमी मानसून की शुरूआत में 1 जून से 9 जुलाई तक है। दक्षिण भारत में केरल के मालावार हिस्से में सितंबर-अक्टूबर में तथा कुछ क्षेत्रों में दिसम्बर माह में केला लगाते है। पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश तथा आसाम में मानसून शुरू होने के बाद जून, जुलाई में केला लगाना उचित होता है। अगस्त के प्रथम सप्ताह के बाद बिहार में लगाये गये केले में फल जाड़ों में निकलती है। अत्यधिक ठंडक के कारण पौधे देर से बढ़ते हैं, यह समय केला लगाने के लिए उपयुक्त नहीं होता है तथा इस समय में लगाई गयी फसल की रोपाई से कटाई तक की अवधि अधिक हो जाती है।

3. केले प्रमुख प्रजातियां

भारत में लगभग 500 किस्में पायी जाती है तथा राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय, पूसा के पास केले की 100 से ज्यादा किस्में उद्यान अनुसंधान केंद्र, हाजीपुर में संग्रहित है। केले की दो प्रजातियों मुसा क्युमिनाटा और बालबिसियाना से आधुनिक खाद्य किस्में विकसित की गई हैं। केले की व्यवासायिक खेती के लिये Grand Naine (G-9) को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त प्रजाति है, जिसका अनुमानित उत्पादन 25-35 किलोग्राम प्रति पौध है। उत्तर प्रदेश के प्रमुख क्षेत्रों जैसे- महाराजगंज, संत कबीरनगर, सिद्धार्थनगर, बस्ती, गोरखपुर, कुशीनगर, फैजाबाद, बाराबंकी, सुल्तानपुर, लखनऊ, सीतापुर, कौशाम्बी तथा इलाहाबाद में केले की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में, गन्ना किसान भी केले की खेती के प्रति गहरी रुचि ले रहे हैं। केले की उन्नतशील प्रजातियाँ दो प्रकार की पाई जाती है, फल खाने वाली किस्मों में गूदा मुलायम, मीठा तथा स्टार्च रहित सुवासित होता है जैसे- रेड बनाना, सफ़ेद वेलची, बसराई, रसथली, ड्वार्फ कैवेंडिश, हरी छाल, सालभोग, अल्पान, रोबस्टा, नेन्द्रन, अर्धपुरी, न्याली तथा पुवन इत्यादि प्रजातियाँ है तथा सब्जी बनाने वाली किस्मों में गुदा कड़ा, स्टार्च युक्त तथा फल मोटे होते है जैसे- कोठिया, रामभोग व बत्तीसा जो मुनथन एवं कैम्पिरगंज क्षेत्र में पायी जाती हैI वाणिज्यिक उद्देश्य से क्षेत्र विशेष के अनुसार लगभग 20 किस्में उगाई जा रही है।

4. पौध रोपण की विधियां

कायिक प्रवर्धन विधि: इस विधि में केले का प्रवर्धन प्रकंदों द्वारा किया जाता है। केले में दो प्रकार प्रकंद होते हैं (1) तलवार प्रकंद की पत्तियां कम चौड़ी होती हैं, जिनका आकार बिल्कुल तलवार के आकार का होता है। नए पौधे तैयार करने के लिए इसे उत्तम माना जाता है। (2) पानी वाले प्रकंद की पत्तियां चौड़ी तो होती हैं किंतु तलवार प्रकंद के मुकाबले बेहद कमजोर होती हैं, इसलिए पानी वाले प्रकंद को रोपाई हेतु प्रयोग में लेने से पूर्व यह स्पष्ट कर लें कि चयन किया गया प्रकंद स्वस्थ व परिपक्व हो एवं किसी रोग से संक्रमित न हो। केला संवर्धन के लिए 3-4 माह पुराने तथा 60-90 सेंटीमीटर ऊंचाई वाले प्रकंदो या पुत्तियों का चुनाव किया जाता है। प्रकंदों से तैयार पौधों से पहली फसल लगभग 17 माह बाद मिलती है।

ऊतक संवर्धन विधि: इस विधि द्वारा तैयार केले के पौधों स्वस्थ एवं रोग रहित होते है। फलों का आकार प्रकार एक समान एवं पुष्ट होता है। प्रकन्दों की तुलना में ऊतक संवर्धन द्वारा तैयार पौधों में फलन लगभग 50-60 दिन पूर्व हो जाता है। नर्सरी से लाये गये 8-10 इंच ऊंचाई के ऊतक संवर्धन द्वारा तैयार पौधे रोपण हेतु उपयुक्त होते है। पौधे के पालीथिन थैले को तेज चाकू या ब्लेड से काटकर अलग कर दें तथा पहले से भरे गये गढ्ढो के बीचो-बीच मिट्टी की पिंडी के बराबर छोटा सा गढ्ढा बनाकर पौधों को सीधा रख दें। मिट्टी की पिंडी फुटने न पाये इसका विषेश ध्यान देना चाहिए तथा जड़ो को बिना हानि पहुँचाये पिंडी के चारो ओर मिट्टी भरकर अच्छी प्रकार दबा देना चाहिए जिससे सिचाईं के समय मिट्टी में गढ़्ढ़ा न बने। पौध रोपण कार्य बहुत अधिक गहराई में नहीं करना चाहिए तथा केवल पौधे की पिंडी तक ही मिट्टी भरना चाहिए।

सघन पौध रोपण विधि: सघन विधि से पौध रोपण में केले का उत्पादन अधिक होने के साथ-साथ उर्वरक एवं पानी के समुचित उपयोग से खेती की लगात में कमीं होती है। रोबस्टा एवं बसराई प्रजाति के पौधों की संख्या प्रति हेक्टेयर बढ़ाकर अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। प्रकंदों की संख्या एक स्थान पर एक की जगह तीन रखकर, पौधों से पौधों तथा पंक्ति से पंक्ति की दूरी 2×3 मीटर रख प्रति हेक्टेयर 5000 पौधा लगाया जा सकता है। परम्परागत पौध रोपण की तुलना में नत्रजन, फास्फोरस एवं पोटाश की 25 प्रतिशत मात्रा अधिक देना पड़ता है। सघन पौध रोपण विधि में कैवेंडिश समूह के केलों को जोड़ा पंक्ति पद्धति में लगाने संस्तुति की जाती है। इस विधि से सिचाईं टपक विधि द्वारा करने से कई लाभ होता है। उष्ण जलवायु में केला की प्रथम फसल मात्र 10-11 महिनों में ली जा सकती है। केले की अच्छी गुणवत्ता वाले फल की उपज कम से कम 60 टन प्रति हेक्टेयर तक लिया जा सकता है।

बीजोपचार: रोपाई के लिए, सेहतमंद तथा संक्रमण रहित प्रकंदों या राइज़ोम का प्रयोग करना चाहिए। रोपाई से पहले, जड़ों को धोकर क्लोरपाइरीफॉस 20 EC, 2.5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में डुबायें। फसल को राइज़ोम बिटल से बचाने के लिए रोपाई से पहले कार्बोफ्युरॉन 3 प्रतिशत CG, 33 ग्राम में प्रतिलीटर पानी में जड़ों को डुबोयें और उसके बाद 72 घंटों के लिए छांव में सुखाएं। गांठों के सूत्रकृमि के हमले से बचाने के लिए कार्बोफ्युरॉन 3 प्रतिशत CG, 50 ग्राम से प्रति जड़ का उपचार करें। फ्यूजेरियम बिल्ट की रोकथाम के लिए, कार्बेनडाज़िम 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में जड़ों को 15-20 मिनट के लिए डुबोयें या सी. एस. आई. आर. द्वारा विकसित फ़्यूजीकांट से उपचारित करें।

5. फसल की सिंचाई

केले की खेती के लिए उचित सिंचाई प्रणाली होना चाहिए तथा मृदा में नमीं की कमी के आधार पर कुल नमीं का 40 प्रतिशत नमीं होने पर सिंचाई करना जरूरी होता है। केले की जड़ें ज्यादा गहराई तक नहीं जाती है, इसलिए इसकी उत्पादकता बढ़ाने के लिए अधिक मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है। सर्दियों में 7-8 दिनों के अंतराल पर और गर्मियों में 4-5 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करना चाहिए। वर्षा के दिनों में आवश्यकतानुसार सिंचाई करें, अतिरिक्त पानी को खेत में से निकाल दें, क्योंकि जल की अधिकता पौधों की नींव और वृद्धि को प्रभावित करता है। केले के फसल की सिंचाईं के लिए टपक विधि सबसे उत्तम तकनीक होती है, जिससे 58 प्रतिशत पानी की बचत होती है और 23-32 प्रतिशत उपज में वृद्धि होती है। टपक विधि से सिंचाई में, रोपाई से चौथे महीने तक 5-10 लीटर पानी प्रतिदिन प्रति पौधे में दें। पांचवे महीने से टहनियों के निकलने तक 10-15 लीटर पानी प्रतिदिन प्रति पौधे में दें और टहनियों के निकलने से तुड़ाई के 15 दिन पहले 15 लीटर पानी प्रतिदिन प्रति पौधे में देना चाहिए।

6. खाद तथा उर्वरकों का प्रयोग

केले में वानस्पतिक वृद्धि की मुख्य चार अवस्थाएं होती है, रोपण के 30, 75, 120 और 165 दिन बाद एवं प्रजननकारी अवस्था की भी मुख्य तीन अवस्था में होती है 210, 255 एवं 300 दिन बाद। भूमि के उर्वरता के अनुसार प्रति पौधा 300 ग्राम नत्रजन, 100 ग्राम फास्फोरस तथा 300 ग्राम पोटाश की आवश्यकता पड़ती हैI फास्फोरस की आधी मात्रा पौध रोपण के समय तथा शेष आधी मात्रा रोपाई के बाद देनी चाहिएI अच्छी उपज के लिए नत्रजन का 25 प्रतिशत सड़ी हुई कम्पोस्ट के रूप में अवश्य प्रयोग करना चाहिए। नत्रजन की पूरी मात्रा 5 भागों में बाँटकर अगस्त, सितम्बर, अक्टूबर, फरवरी एवं अप्रैल में देनी चाहिए। पोटाश की पूरी मात्रा तीन भागो में बाँटकर सितम्बर, अक्टूबर एवं अप्रैल में देना चाहिए। पोटैशियम की भूमिका केला की खेती में अति महत्वपूर्ण है, इसे खेत में सुरक्षित नहीं रखा जा सकता है तथा इसकी उपलब्धता तापक्रम द्वारा प्रभावित होती है। केले में फल लगते समय पोटाश की लगातार आपूर्ति आवश्यक है क्योंकि फल लगने के प्रक्रिया में इसका महत्वपूर्ण योगदान होता है।

7. केले के साथ सह-फसली

केले की फसल 10-12 महीने में तैयार होती है। इसकी जड़ें ऊपरी सतह पर पायी जाती हैं जो खेती करने की से क्षतिग्रस्त हो सकती हैं। अतः सतह पर आच्छादित होने वाली फसलों को नहीं लगाना चाहिए। केला के साथ शुरूआती चार महिनों के लिए अल्प अवधि की फसलों जैसे- पत्तागोभी, फूलगोभी, आलू, टमाटर, शिमला मिर्च, पपीता, हल्दी, लोविया, मूली, शलजम, पालक, धनिया आदि को अन्तरवर्तीय नकदी फसल के रूप में लगाने की संस्तुति की जाती है। केले के साथ अन्तरवर्तीय फसल के रूप में कद्दू वर्गीय सब्जियों को कभी भी नहीं लगाना चाहिए, क्योंकि इन फसलों से विषाणु जनित रोगों के फैलने की संभावना बनी रहती है।

8. अन्य कृषिक गतिविधियां

खरपतवार नियंत्रण: अवांछनीय खरपतवार उगने से आवश्यक पोषक तत्वों को ये अपने पोषण के लिए प्रयोग कर लेते हैं, फलस्वरूप फसल का उत्पादन घट जाता है। खेत को स्वच्छ रखने के लिए आवश्यकतानुसार निराई-गुड़ाई करके खरपतवार को समय-समय पर नष्ट करते रहना चाहिए, जिससे पौधों को हवा एवं धूप आदि अच्छी तरह से मिलता रहता है जिससे फसल का विकास अच्छा होता है।

घास-पात से ढ़कना: केले के खेत की मिट्टी में प्रयाप्त नमीं बरकरार रहनी चाहिए। केले के थाले में पुआल या गन्ने की पत्ती का 8-10 सेटींमीटर मोटी पर्त बिछा देने से सिंचाईं कम करनी पड़ती है तथा खरपतवार भी कम या नहीं उगते है, भूमि की उर्वरता शक्ति बढ़ जाती है, फूल एवं फल एक साथ आ जाते है तथा उपज भी बढ़ जाती है।

प्रकंदों की कटाई-छटाई: केला लगाने के दो माह के अन्दर ही आस-पास से नई पुत्तियाँ निकलने लगती हैं, इन पुत्तियों को समय-समय पर काटकर निकलते रहना चाहिए। पौधे को सहारा देने के लिये पौध रोपण के दो माह पश्चात मिट्टी से 30 सेंटीमीटर व्यास का 25 सेंटीमीटर ऊँचा चबूतरा नुमा आकृति बना देना चाहिए।

मिट्टी चढ़ाना: वर्षा के बाद पौधों के चारो तरफ की मिट्टी धुल जाती एवं घौद या घार निकलने से पौधे नीचे की ओर कुछ झुक जाते है जिससे तेज हवा में उनके उलट जाने की संभावना बनी रहती है इसलिए सदैव पौधे के चारो तरफ मिट्टी चढ़ा देना चाहिए।

पत्तियों की कटाई व छटाई: पौधों की वृद्धि के साथ-साथ नीचे की पत्तियां सूखती जाती हैं। सूखी पत्तियों से फल क्षतिग्रस्त हो जाते हैं तथा इनसे रोग का फैलने की संभभावना बनी रहती है। सूखी एवं रोगग्रस्त पत्तियों को तेज चाक़ू से समय-समय पर काटते रहना चाहिए, इनको काट देने से हवा एवं प्रकाश नीचे तक पहुंचता रहता है, जिससे कीटों की संख्या में भी कमी हो जाती है। अधिकतम उपज के लिए 13 से 15 पत्तिया ही पर्याप्त होती है।

सहारा देना: तेज हवाओं से केला की खेती को खतरा बना रहता है और कई बार चक्रवात के प्रकोप से पूरी फसल ही नष्ट हो जाती है। अतः लम्बी प्रजातियों में सहारा देना जरूरी होता है। केले के फलों का गुच्छा भारी होने के कारण पौधे नीचे तक झुक जाते है, यदि उनको सहारा नहीं दिया जाय तो वे उखड़ भी सकते है। बांसों की कैची बना कर पौधों को दोनों तरफ से सहारा देना चाहिए जिससे की पौधे गिरने न पायें।

नरपुष्प की कटाई एवं गुच्छों को ढ़कना: घार का अग्रभाग नरपुष्प होता है जो बिना फल पैदा किये बढ़ता रहता है। घार में फल पूर्ण मात्रा में लग जाने के पश्चात् उसे काट कर अलग कर देना चाहिए, जिससे वह भोज्य पदार्थ लेकर फलों की वृद्धि को अवरूध न कर सके। नरपुष्प का प्रयोग सब्जी बनाने में किया जाता है, जिसे बेचकर किसान अतिरिक्त लाभ ले सकते हैं। नरपुष्प की कटाई बरसात के समय में करना आवश्यक होता है, जिससे केले के फल का रंग और आकर्षक हो जाता है। पौधों में घार आ जाने पर वे एक तरफ झुक जाते है, यदि उनका झुकाव पूर्व या दक्षिणपूर्व या दक्षिण की तरफ होता है तो फल तेज धूप से खराब हो जाता है। अतः केले के घौद को उपर वाली पत्तियों से ढ़क देना चाहिए। उष्ण एवं उपोष्ण जलवायु में फलों को पारदर्शी छिद्रयुक्त पोलिथीन से ढ़कने से 15-20 प्रतिशत तक पैदावार में वृद्धि होती है तथा फल 7-10 दिन पहले ही परिपक्य हो जाते हैं।

9. फसल की कटाई

रोपाई के बाद केले की फसल 11-12 महीनों में लिए तैयार हो जाती है। केले में फूल निकलने के बाद लगभग 25-30 दिन में फलियाँ निकल आती है, पूरी फलियाँ निकलने के बाद 100-140 दिन बाद फल तैयार हो जाती है, जब फलियाँ की चारो घरियाँ तिकोनी न रहकर गोलाई लेकर पीली होने लगे तो फल पूर्ण विकसित होकर पकने लगते है। कटाई से पहले एक हफ्ते या उससे भी पहले केले की फसल में सिंचाईं नहीं करना चाहिये। बाजार में मांग के अनुसार फलों को पूरी तरह पक जाने पर तुड़ाई करें। नज़दीक के बाजार के लिए फलों की तुड़ाई पकने की अवस्था पर तथा लंबी दूरी वाले स्थानों पर ले जाने के लिए 75-80 प्रतिशत पक जाने पर फलों की तुड़ाई करें, जबकि निर्यात के लिए एक जगह से दूसरी जगह ले जाने से एक दिन पहले या उसी दिन तुड़ाई करें। गर्मियों में फल की तुड़ाई दिन में करें और सर्दियों में जल्दी सुबह तुड़ाई नहीं करना चाहिए। आमतौर पर फलों की तुड़ाई, फल पकने से पहले की अवस्था में की जाती है। आकार, रंग और पकने के आधार पर फलों की छंटाई करें तथा छोटे, ज्यादा पके हुए, नष्ट हुए और रोगग्रस्त फलों को निकाल दें। केले के फलों एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिये 12-13°C तापक्रम उपयुक्त रहता है क्योंकि उक्त तापक्रम पर श्वसन सबसे कम होती है।

10. फल पकाने की विधि

केले को पकाने के लिए घार को किसी बंद कमरे में रखकर केले की पत्तियों से ढ़क दें, एक कोने में उपले अथवा अगींठी जलाकर रख देते हैं तथा कमरे को मिट्टी से सील बंद कर देने से लगभग 48-72 घंटे में केला पककर तैयार हो जाता है। कच्चे केलों को पेपर बैग के अंदर या किसी भी कपड़ें में लपेटकर रख दें, इसमें एथलीन गैस होती है जो केले के पकने में सहायक होती है। आप किसी भी तरह के ओवन के अंदर केलों को रखकर आसानी से पका सकते हैं। केला पकाने में पहले कैल्शियम कार्बाइड रसायन का इस्तेमाल किया जाता था जिसको स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ने के कारण अब प्रतिबंधित कर दिया गया है। एथिलीन से केले को पकाने के लिए एथिलीन गैस का उपयोग गैस चेंबर में ही करना चाहिए है। शीत गृहों में वैज्ञानिक विधि से केला पकाने की नई तकनीक आ गई है जिसमे रसायन का इस्तेमाल नहीं किया जाता है।

11. फसल का उत्पादन

सभी तकनीकी तरीके अपनाने से की गई केले की खेती से लंबी किस्म जैसे पुवान से 15-20 टन प्रति हेक्टेयर जबकि छोटी प्रजाति के कैवेंडिश द्वारा 25-30 टन प्रति हेक्टेयर उतपादन किया जा सकता है।

12. रोग तथा पौध संरक्षण

केले में होने वाले प्रमुख रोग जैसे- पनामा रोग, माइकोस्फेरेरेला पत्ती का दाग़, एंथ्रेकनोस, बैक्टीरियल विल्ट, बैक्टीरियल सॉफ्ट रॉट, केला ब्रेक मोज़ेक वायरस, केला स्ट्रीक वायरस है, इनके अलावा, केले का बंची टॉप विषाणु (बीबीटीवी), हेड रॉट, हार्ट रॉट, क्राउन रॉट, स्टेम रॉट आदि बीमारियां भी केला फसलों को प्रभावित करती हैं। विभिन्न प्रकार के कीट जैसे- पत्ती बीटिल (बनाना बीटिल), तना बीटिल, माहों (एफिड्स), थ्रिप्स, सूत्रकृमि इत्यादि केले की फसल को नुकसान पहुँचते हैं। रोगों तथा कीटों के नियंत्रन के लिये बाजार में विभिन्न रासायनिक कीटनाशी एवं फफूंदनाशी उपलब्ध हैं।

13. आर्थिक महत्व

केला की खेती मुख्य रूप से फल, सब्जी, रेशों के उत्पादन तथा सजावटी पौधे के रूप में की जाती है। केला अन्य फलों की अपेक्षा अधि‍क पौष्टिक एवं ग्लूकोज से भरपूर होता है, जो शरीर को तुरंत उर्जा प्रदान करता है। केला में 75 प्रतिशत जल होता है, इसके अलावा, विटामिन ए, विटामिन सी, विटामिन बी-6, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम, फास्फोरस, लोहा और तांबा का उत्कृष्ट स्रोत है। केले में भरपूर मात्रा में फाइबर पाया जाता है, वसा की मात्रा कम होती है, कोलेस्ट्रॉल मुक्त तथा सोडियम भी कम मात्रा में पाया जाता है। केले की गिनती हमारे देश के उत्तम फलों में होती है तथा इसका हमारे मांगलिक कार्यों में भी विशेष स्थान है। केले में कई प्रकार के औषधीय गुण पाये जाते हैं। केले के फूल और तना का भी स्वादिष्ट व्यंजन बनाया जाता है, यह हर दृष्टि से यह एक उत्तम फल है। अत: केला उत्पादन से किसान अपने आर्थिक सुदृढ़ कर सकते है।