इक घर बेघर सा

 इक घर बेघर सा

दीपक भारद्वाज “वांगडु”

इक घर, बेघर सा
अब यादों में बस याद लिए
अनगिनत फरियाद लिए
मुस्काते भ्रमित इन होंठों में
दबे हुए आवाज लिए
नीर भरे इन नैनों में
झूठे से एहसास लिए
ये दौर जो अब चल रहा है
बिन बोले बहुत कुछ कह रहा है
उजले कल की चाह लिए
सुनहरे पल की राह लिए
उम्मीद भरे सपने लिए
इच्छाएं सब अपने लिए
मंजिल की तलाश लिए
गिन-गिन के सब सांस लिए
ये वक्त जो बिन रुके बह रहा है
बिन बोले बहुत कुछ कह रहा है
भुला के अपनी मनमानी भी
वो अपनी सारी नादानी भी
वो गुजरा मौज का मंजर भी
बीता जीवन मस्त कलन्दर भी
वो छूटा हुआ गांव भी
प्यार भरा सब छांव भी
बनकर इक धरोहर सा साथ रह रहा है
बिन बोले ही बहुत कुछ कह रहा है
ये जो नया बसेरा है
खूबसूरत यहां भी सवेरा है
फैली हुई हरियाली है
चहुं ओर खुशियाली है
प्यार भरा सब नाता है
फ़िर भी रहा न जाता है
न जाने क्यूँ ये जीवन क़हर सा लग रहा है
घर से दूर ये घर यहां बे-घर सा लग रहा है !