कहानी – ठेले वाले की भेंट
- २००७ , जयपुर,की तपती मई की दोपहरी में , मैंने परिक्षा भवन से बाहर निकल कर छाँव के लिए एक बरगद के पेड़ की शरण ली,तो पास ही तपती धुप में खड़े एक ठेले वाले पर नजर पड़ी और वहीं टीक गयी। संभवत: पेड़ के नीचे लगी स्थायी दुकानों और लोगों की भीड़ में ठेले के लिए जगह पाने में असहाय होकर,रोजी-रोटी के लिए वो उस दिन धुप में खड़े होकर ही अपनी दुकान दारी करने के लिए विवश था। सिर पे रखे एक मटमैले गमछे, जिससे वो बीच बीच में अपना पसीना भी पोंछ लिया करता था, के सहारे ही वो लू का डटकर सामना कर रहा था।शायद इसी संघर्ष में गमछे व उसके मालिक, दोनों ने ही अपना मूल रंग गवाँ दिया था, और अब ढंग से उन दोनों को किसी एक रंग से परिभाषित कर पाना बहुत मुश्किल था। कपड़ो के नाम पर सूखे बदन से चिपकी हुई फटी पुरानी बनियान और धुल धूसरित लुंगी ही उस गवंई से दिखने वाले ठेले वाले का साथ दे रहे थे।
पर उसके ठेले में रंग बिरंगी लकड़ी के काठ से बनी जानवरों की आकृतियां ,चाभी के छल्लों के रूप में सजी हुईं थीं,जो जरूर सबको आकर्षित कर रहीं थीं। कूछेक लोग ही इतनी कड़ी धूप में निकल कर उसके ठेले के पास जाने की हिम्मत कर पा रहे थे पर मोलभाव के करके आगे निकल जा रहे थे। ठेले वाले के चेहरे पर उम्मीद और मायुसी की रेखाएं आ जा रही थी पर वो हार मानने वाला नहीं था, कड़ी धूप में भी डटा हुआ था। शायद एक पूरे परिवार की जिम्मेदारी और पेट की भूख उस दिन की कड़ी धूप पे भारी पड़ रही थी।
कहीं भी जाने पर वहां से कुछ ना कुछ लाने के आदत अनुसार मैं भी उस ठेले पर पहुंच ही गया।
“एक-२ छल्ले कैसे दिए भईया?” मैंने पूछा।
“बाबू जी दस का एक है, कितने दे दूं? ठेले वाले ने खुशी और उत्साह से पूछा।
“थोड़ा मंहगा दे रहे हो भईया, तीस रूपए के चार दोगे क्या ?”
“बाबूजी नुकसान हो जाएगा मेरा,इतने की तो खरीद भी नहीं पड़ती है।आप पैंतिस ही दे दिजिए” थोड़ा उदास होकर ठेले वाले ने जवाब दिया।
“तुम भी खरीद कर लाते हो, खुद से क्यूं नहीं बनाते?”अब मेरी जिग्यासा भी जागने लगी थी।
“बाबू जी हम ठहरे गांव के अनपढ़ किसान,सुखे की मार और पेट की आग ने हमे शहर लाकर छोड़ा,हम भला क्या जाने ये सब बनाना।”
“फिर कहाँ से लाते हो? परिवार का गुजारा हो जाता है इस एक ठेले से?” सहानुभुती से मैंने पूछा। मैं भी गांव से निकल कर ही शहर आया हूंँ, किसानी नजदीक से देखा है, इसलिए किसान शब्द सुनकर अब मेरे अंदर का गांव प्रेम भी जाग गया था।
“बाबूजी, लकड़ी के कारखाने से ले आते हैं उधार और ब्याज पर। नहीं तो कभी मजदूरी करके ही परिवार का पेट पालना पड़ता है।”बेबसी झलकती आवाज में ठेले वाले ने उत्तर दिया ।
“और कौन कौन है घर में? बच्चों को स्कूल भेजते हो की नहीं? तुम भी कुछ पढ़ना लिखना जानते हो की नहीं?” सारे सवालों का जवाब मैं एक बार में ही जान लेना चाहता था।
“बाबूजी, यहां शहर में तो कोई ठौर ठिकाना है नहीं,आज यहां , तो कल वहां । जहां रात हुई, वहीं सड़क के किनारे रात काट लेते हैं।हम तो अंगुठा छाप हैं,पर गांव में रहते हैं तो लड़कों को स्कूल जरुर भेज दिया करते हैैं,एक वक्त का खाना भी मिल जाता है वहां।” बड़ी तन्मयता से उसने बताया।
“अच्छा करते हो,जब भी मौका मिले, अपने बच्चों को स्कूल जरूर भेजा करो। और तुम भी कुछ पढ़ना लिखना सीख लिया करो उनसे।पढ़ाई लिखाई से कुछ ना कुछ जरूर भला होगा सबका।”मैंने भी आदतन सलाह दे डाली।
“चलो अच्छा अब तीस रुपए के तीन छल्ले दे ही दो, मैं भी निकलूं,वर्ना कोई गाड़ी नहीं मिलेगी “मैंने घड़ी पे निगाह डालते हुए कहा।
“बाबूजी,आप तीस के चार ले जाओ।” पता नहीं क्यूं, पर जिस अपनेपन से उसने कहा, उसने मुझे मुझे चकित कर दिया।
“पर ऐसे तो तुम्हें नुकसान हो जाएगा,वो भी इतनी मेहनत के बाद ? और पुरे परिवार की जिम्मेदारी भी तो है तुमपे ? तुम दस के एक का ही भाव लगाओ और तीन छल्ले ही दो हमें।” मैंने उसके हाथ में तीस रुपए पकड़ाते हुए कहा।
“बाबूजी आप ने हमारे लिए इतना प्रेम जताया और रुक कर हमारा हालचाल पूछा,हमारी मेहनत को समझा,यहीं बहुत है हमारे लिए। वरना इस परदेश में भला कौन कदर करता है , कौन पुछता है हमें?” एक छोटे पैकेट में चार तरह के चार छल्ले डालकर मेरे हाथों में पकड़ा कर उसने विनती भरी मुस्कान के साथ अपने हाथ जोड़ लिए।
“पर ~~~” बस इतना ही निकल पाया था मेरे मुंह से। मैंने बहुत प्रयास किया पर उसने पुरे पैसे लेने से इन्कार ही किया हर बार।
“बाबूजी,ले लिजिए बस । हमारे पुरे परिवार की तरफ से एक छोटी सी भेंट ही समझ लिजिए।भगवान भला करे आपका।”अभी भी वो ,उसी भाव से हाथ जोड़ कर खड़ा था।
मैं और कुछ नहीं कह सका,बस किंकर्तव्यविमूढ़ सा उसे देखता रह गया था।कहीं कुछ पिघलने लगा था मेरे अंदर और बरबस ही मेरे भी हाथ जुड़ गए थे, उस कभी अन्नदाता किसान, कभी सरल हृदयी ठेले वाले तो कभी मेहनतकश मजदूर की तरफ, जिनके पास कुछ रहे या ना रहे पर वो देने के लिए सदैव तत्पर रहता है।
आज भी उस भेंट के छल्लों में से एक छल्ला सहेज कर रखा है मेरे पास, उस अनोखी भेंट और विशाल हृदयी ठेलेवाले की याद स्वरूप में।