कहानी – निरबंस
आज सुबह से ही चौधरी काका के चेहरे पर उदासी की पीड़ा और निराशा झलक रही थी। कुछ बताया तो नहीं पर, बिना खराई किए, सुबह से ही बाबू जी की बैठक मे अकेले ही हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे । कई बार कुरेदने पर भी सिर्फ चुप रह गये थे।आज तो काकी ने भी सुबह से एक बार भी काका की सुध नहीं ली, वर्ना तीनों बेटो के पढा़ई और नौकरी के लिए परदेशी हो जाने के बाद,काका से लाख कहा सुनी के बाद भी, काकी समय से काका को खोज कर लें जाती थी खिलाने पिलाने के लिए।कुल मिलाकर अब वहीं दोनों रह गए थे अपने बड़े से घर की, छोटी सी दुनिया में एक दूसरे को सहारा देने के लिए।
सुबह मेरे लाख पूछने पर भी खाने के लिए मना कर दिया था काका ने, तो दोपहर में मैंने भी जोर देकर कहा कि अब तो आपको भोजन करना ही पड़ेगा, अम्मा को भी चिंता हो रही है । और खड़ी हो गई काका के सामने ही,
“आज तो बिल्कुल भी भूख नहीं है बिटिया, तुम तनिक भी चिंता मत करो, अपनी अम्मा को भी कह दो की खा पीकर आराम करें। जिनको चिंता करनी चाहिए थी उनके लिए तो अब हम ना के बराबर रह गए हैं। और जो चिंता करती है, उस बेचारी बुढ़िया को भी भला बुरा सुना दिया आज, वो भी सिर्फ इसलिए कि वो आज भी अपने बच्चों के लिए कुछ बुरा नहीं सुन सकती है। मेरी ही मती मारी गई थी बिटिया, इसलिए अपने ही पापों की सजा भोग रहा हूँ आज मैं। ”
आखिरी तक बोलते-२ काका की आवाज़ भर्रा सी गई थी, सिर झुक गया था और नजरें ज़मीन में गड़ी हुई थी, पता नहीं क्यूँ मुझसे अपनी नज़र चुरा रहे थे। और फिर अपने गमछे से आंखों का कोना पोंछते हुए सिर्फ इतना पूछा , मास्टर कब तक आएंगे? मैंने बताया कि शहर गए हैं, शाम तक आएंगे, आप खा पीकर यहीं आराम करलो ,तो काका ने गहरी सांस ली, हाथ के इशारे से खाने के लिए मना किया और फिर हुक्का गुड़गुड़ाने लगे। शायद बहुत कुछ कहना चाहते थे, पर खुद को रोक लिया था उन्होंने। मुझे भी कुछ समझ में नहीं आया , काका क्या कहना चाहते हैं और कौन से पाप की बात कर रहे हैं। मन तो बहुत किया पर काका को ऐसी अवस्था में कुरेदना सही नहीं लगा। शायद इसलिए, कि काका की ऐसी हालत पहली बार देख रही थी मै।
शाम को दिया बाती के लिए जब मैं बैठक में गई तो साथ में काका के लिए खाने की थाली भी लगाकर ले गई ।
“क्या हुआ काका, तबियत ठीक है ना? किसी ने कुछ बोल दिया है क्या?पूरा दिन निकल गया आपका बिना कुछ खाए पीए, अब तो आपको खाना ही पड़ेगा”। कहते हुए मैंने थाली काका के सामने रख, पानी का लोटा उनके हाथ में पकड़ाया और हुक्के को उठा कर एक कोने में रख दिया।
वैसे तो बाबूजी और काका बचपन से ही लंगोटिया यार हैं पर बाबूजी के आज के दौर और काका के पुराने दौर के ख्यालातों के बीच अक्सर ही कहा सुनी होती रहती है,जो ज्यादातर तो हमलोगों के लिए मनोरंजन का साधन बनती है पर कभी-२ बहस का स्वरूप भी ले लेती है,और उससे उत्पन्न शीत युद्ध ३-४ दिन बाद ही खत्म होता है।उस दौरान भी तर्क वितर्क होता है पर संवाद हमलोगों के जरिए ही होता है।
काका का मानना है की सिर्फ बेटों के हाथ ही वंश को मजबूत बनाते और आगे बढ़ाते हैं, बेटियां तो जन्म लेते ही पराया धन होती हैं, उनको पढ़ाना लिखना सिर्फ फिजु़लखर्ची और दिखावा मात्र है। इसीलिए जब मेरे जन्म के बाद डाक्टर ने दुसरी संतान होने में अम्मा की जान को खतरा बताया तो काका और गाँव वालों के लाख समझाने के बावजूद बाबू जी ने ना तो दूसरा विवाह किया और ना ही किसी पुत्र की चाह दिखाई। इस बात पर गावं में बाबू जी की पढ़ाई की खूब खिल्ली उड़ाई गई, दबी जुबान में “निरबंश” का ताना भी मारा गया।
काका को भी लगता था कि बाबू जी शहरी दिखावे में आकर बहुत बड़ी गलती कर बैठे हैं, वो हमेशा बाबू जी को दूसरी शादी करने या कम से कम कोई पुत्र गोद लेने के लिए समझाने की कोशिश करते रहते थे और उसका कोई असर ना होते देख खीज़ कर बोल दिया करते थे “मास्टर, जब बुढ़ापे में निरबंश होने का दंश सहना पड़ेगा और कोई बेटा या पोता एक लोटा पानी देने के लिए नहीं होगा, तब तुम्हे मेरी बात जरूर याद आएगी।” और बाबू जी हमेशा कहा करते थे कि, बेटा बेटी में कोई अंतर नहीं होता है, अंतर सिर्फ हमारे मन में होता है, अगर बेटी को भी अच्छी परवरिश और शिक्षा दी जाए तो वो भी अपने पैरों पर खड़े होकर परिवार और वंश का नाम रोशन कर सकती है।
इतने सब के बाद जब बाबू जी ने मुझे पढ़ने के लिए पहले गाँव के स्कूल और बाद में गावं से दूर शहर भेजा तो पूरे गाँव में जैसे कोहराम मच गया था, सब की नजरों में बाबू जी सनक गए थे, और गाँव की बाकी लड़कियों को गलत रास्ता दिखाने का पाप कर रहे थे। पर बाबू जी को भरोसा था, खुद पर और मुझ पर भी। मैंने भी माँ और बाबू जी के आशीर्वाद से अपनी पढ़ाई हमेशा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की और आज पास के ही गाँव में प्राइमरी स्कूल में बतौर शिक्षिका कार्यरत हूँ। बाबू जी ने मेरी नौकरी लगते ही मुझे स्कुटी लाकर दे दी, खुद सिखाया और इस काबिल बनाया की आज मैं स्कुटी से ही अपने ससुराल, मायके और स्कुल आने जाने लगी हूँ। शुरुआत में ससुराल में भी कुछ आनाकानी हुई मेरी नौकरी को लेकर, पर बाबू जी के समझाने पर सभी मान गए। और आज उस निर्णय पर सबको ख़ुशी के साथ गर्व भी है।
इन सारी घटनाओं पर गाँव में बहुत बातें हुईं, बाबू जी को और मेरे ससुराल वालों को भी ताने मारे गए कि अब बेटी की कमाई खाएंगे घर बैठ कर। मेरी शादी के पहले काका ने भी अपनी तरफ से बाबू जी को खूब समझाया था ” मास्टर, अब तुम्हारा दिमाग पूरा ही फिर गया है क्या? बिटिया को बेटा मत बनाओ, बिटिया को बहुत पढ़ा लिखा लिए पर अब चाकरी कराकर अपने सर पर पाप मत लो, जल्दी से हाथ पीले करो और गंगा नहालो।”
बाबू जी सब सुनकर भी हमेशा शांत रहते और वही करते जो हमारे लिए सही होता था। गाँव वालों और काका को भी कई
बार समझाने की कोशिश की पर कोई असर नहीं हुआ। सबको यही लगता था कि पढ़ लिख कर बाबू जी का दिमाग फिर गया है।
और आज चारपाई पर बैठे वहीं काका चुपचाप जमीन की तरफ देखे जा रहे थे, बैठक में सन्नाटा पसरा हुआ था। कोई बात थी जो उनको अन्दर ही अन्दर खाए जा रही थी , जिसका जवाब वो शायद खुद मे ही ढुंढने की कोशिश कर रहे थे। खाने की तरफ देखे बिना ही हाथ जोड़कर बोले ” ले जाओ बिटिया, अभी तो एक निवाला भी हलक के निचे नहीं जाएगा।जब तक मास्टर से मैं अपने पाप के लिए माफी नहीं मांग लेता, तब तक कुछ भी नहीं खाया जाएगा मुझसे।”
” कैसा पाप काका? मैंने भी पूछ लिया,पर काका ने कुछ नहीं कहा। सुबह से ही कई सवाल मेरे मन में घूम रहे थे। आज तक जिस चौधरी काका को घर या गाँव कि पंचायत में दहाड़ते हुए देखा था उनको ऐसा टूटा हुआ देख कर सुबह से ही मेरे मन में तरह तरह की शंका हो रही थी। अम्मा और काकी से भी जानना चाहा पर किसी ने कुछ नहीं बताया। अम्मा ने सिर्फ इतना बताया की दो दिन पहले काका के तीसरे बेटे राजेश भैया और भाभी आए थे और कल देर रात अचानक वापस चले गए ।
काका के दोनों बड़े बेटों ने दुर के महानगरों में अपना अपना घर बसा लिया है और अब व्यस्त जीवन और बच्चों की पढ़ाई-लिखाई कि वजह से उनका गाँव आना जाना बहुत कम हो गया है। सभी की व्यस्त दिनचर्या की वजह से ही काका काकी का मन कभी नहीं लगा अपने बेटों के पास। तीसरे राजेश भैया,जो सबसे छोटे और दुलारे हैं, पास के शहर में ही किराए के मकान में रहकर कोई छोटा सा व्यवसाय करते हैं और बीच -२ में घर आते जाते रहते हैंं खर्च और राशन के लिए, जिससे काका और काकी का मन भी लगा रहता है। तो फिर कल ऐसा क्या हुआ ,ये सोच कर मैं और भी परेशान हो गई।
काकी को दोपहर में ही मैं अपने घर ले आई थी। मेरे और अम्मा के काफी मान मनौव्वल के बाद ही काकी ने थोड़ा बहुत भोजन किया था, पर दोपहर से ही वो भी चुपचाप
बैठीं थीं अम्मा के कमरे में। ज्यादा पुछने पर उनकी आंखों में आँसू आ जारहे थे, इसलिए अम्मा ने भी मना कर दिया मुझे कुछ भी पूूूहने से।
इन सारी उधेड़बुन में उलझी हुई मैं थाली वहीं काका के बगल में चौकी पर रख कर बैठक से बाहर निकल आई, अब मेरे सारे सवालों और काका की समस्या का समाधान मुझे सिर्फ बाबू जी में दिखाई दे रहा था। बैठक से निकली तो सामने अम्मा दिखाई दीं, वो भी बाबू जी की राह देख रही थीं। मैं अम्मा से कुछ पूछने ही जा रही थी, तब तक सामने सड़क से दुआर की तरफ आता हुआ बाबू जी का स्कूटर दिखाई दिया। बाबू जी को देखकर मेरी तो खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा, ऐसा लगा जैसे एक दिन नहीं, एक महीने बाद वो वापस आए हैं। मै तो सब कुछ जल्दी से बताना और पूछना चाह रही थी पर अम्मा ने इशारे से मना कर दिया और पहले बाबू जी के हाथ पैर धुलाने के बाद चाय नाश्ता कराया फिर विस्तार से पूरी बात बताई।
बाबू जी को अम्मा ने ही बताया कि कल शाम राजेश भैया और भाभी आए थे, उनके व्यापार में घाटे कि वजह से वो दोनो परेशान थे , इसलिए गांव की बची जमीन और घर बेचकर, शहर में अपना नया घर लेना चाहते थे और नया व्यापार शुरू करना चाह रहे थे, पर काका काकी का हमेशा से यही मन था कि वो लोग भी गावं में आकर रहें और यही आस पास कोई काम शुरू करे। सभी बच्चों की पढ़ाई लिखाई में वैसे ही काका की लगभग सारी जमीन बिक गई थी, सिर्फ गावं की थोड़ी सी जमीन और घर ही बचा था, पुरखो की निशानी के तौर पर ,जिससे काका काकी का बहुत लगाव था। और होता भी ना क्यों, उसी घर में उनकी जवानी और उनके बच्चो का बचपन बीता था, उसकी दीवारों में उन सबकी यादें बसी हुईं थीं, जिन्होंने आज अपने दूसरे घर बना लिए थे।
इसी बात पर कल रात शायद काफी बहस हुई और काका काकी के लाख मनाने पर भी अंत में भैया भाभी नाराज होकर रात में ही शहर वापस चले गए, फिर कभी वापस ना आने की बात कह कर, जिससे काका को शायद बहुत धक्का लगा और सारी रात ही वो रोते रहे अपने बच्चों को याद करके।
अब सारी बात मुझे थोड़ी थोड़ी समझ में आने लगी थी, पर इससे पहले कि मै सारी बात बताती , बाबूजी उठे और तुरंत बैठक में जा पहुंचे। बाबू जी को देख कर काका की जैसे जान में जान आगई थी और वो सब कुछ भूल कर बाबूजी से गले लग कर रोने लगे थे। ऐसा दृश्य देखकर बाबूजी , मै और अम्मा भी अपने आप को रोक नहीं पाए। कुछ देर बाद जब बाबू जी ने काका को सम्हाला और ढाढस देना चाहा तो काका ने सिर्फ इतना कहा ” नहीं ,मास्टर, ये सब मेरे ही पापों की सजा है, ऊपर वाले ने मेरी ही लाठी से मुझे मार कर आज सजा दी है। जो पाप मैंने अपनी बिटिया को खोकर किया, और तुम्हे भी पता नहीं क्या क्या कहा अपने बेटों के मद में चूर हो कर, आज सब उसी की सजा मिल रही है, जो मै आज तीन बेटों का बाप होने के बावजूद “निरबंस” सा हो गया हूं और तुम्हारी एक बेटी ने ही दो दो परिवारों को रोशन किया हुआ है। भगवान सबको ऐसी ही संतान दे।
बिटिया, मास्टर , मास्टरनी , मै सबका अपराधी हूं, सबसे आज माफी मांगता हूं।” इतना कहकर काका हाथ जोड़कर खड़े हो गया सबके सामने, तो बाबू जी ने फिर से उनसे ढांढस देते हुए गले लगा लिया।
इतना सुनकर काकी भी बैठक में आ गईं थीं, उनकी तरफ भी हाथ जोड़कर काका ने माफी मांगी ” राजेश की मां, मैंने तुम्हारी भी कभी नहीं सुनी, आज सब उसी की सजा मिल रही है, और मेरी वजह से तुम्हे भी ये सब सहना पड़ रहा है। तुम भी मुझे माफ करदो”।
” पर काका किस बात की इतनी माफी मांग रहे हैं आप, आप ने नहीं, भैया लोगों ने आपके साथ गलत किया है, माफी तो उनको आपसे मांगनी चाहिए।” काका के बार बार इस तरह से माफी मांगने से मै अपने आप को नहीं रोक सकी ,और पूछ ही लिया।
इससे पहले कि बाबू जी या अम्मा कुछ बोल पाते, काका ने सबको निरीह और पश्चाताप भरी नजरो से देखा और अपना चेहरा पकड़ के वहीं खाट पर बैठ गए । कुछ देर बाद अपने आप को सम्हालते हुए बोले ” बिटिया मैंने जो पाप किया है, उसको सुन कर तुम भी मुझे माफ नहीं कर पाओगी।
मुझे भी तीसरी संतान के रूप में एक फुल सी बेटी दिया था भगवान ने, पर पैदा होने के बाद ही उसे फेंफड़ों में कोई इंफेक्शन हो गया था। बेटी होने की वजह से मै खुश नहीं था, दो बेटों के बाद भी मेरे इस अनपढ़ दिमाग में सिर्फ बेटों का बाप बनने का भूत सवार था, इसलिए मैंने सस्ते नीम हकीमों से ही उसका इलाज कराया। तुम्हारी काकी, अम्मा , और मास्टर ने मुझे लाख समझाया कि बेटी को इलाज के लिए शहर के जिला अस्पताल या किसी अच्छे नर्सिंग होम लेकर जाओ, अच्छा इलाज कराओ तो बिटिया बिलकुल ठीक हो जाएगी, यहां तक कि गांव के हकिम ने भी कहा, पर मेरी मती मारी गई थी, मै पैसों का बहाना करके सबको टालता रहा। तुम्हारी काकी रोती रही पर मुझपे कोई असर न हुआ और बिटिया कि बिगड़ती तबीयत ने एक महीने बाद उसकी जान ले ही ली।”
“बहुत बड़ा पाप हुआ है मुझसे बिटिया, बहुत बड़ा पाप।
शायद मेरे उस पाप का ही फल है कि जिन बेटों को मैंने अपनी जमीन बेच कर भी पढ़ाया, आज वो भी मुझसे दूर हो गए हैं।
मै मास्टर को हमेशा एक बेटी को लेकर तुमको लेकर , तुम्हारी पढ़ाई लिखाई को लेकर बहुत कुछ बुरा भला कहता रहा, ताने देता रहा, पर आज मेरा ही कोई बेटा नहीं है यहां हमारे आंसू पोंछने के लिए, हमें सहारा देने के लिए, या एक लोटा पानी पूछने के लिए। आज सिर्फ तुम्हीं हो जिसको हमारी परवाह है, मेरे खाने पीने की चिंता है, और मै अभागा, तुम्हे ही लेकर मास्टर को जिंदगी भर नीरबंस कहता रहा, जबकि आज मै खुद , तीन बेटों का बाप होते हुए भी “निरबंस” हो गया हूं। मै “नीरबंस ” हो गया हूं।”
बिटिया में ही घर की लक्ष्मी – दुर्गा और काली मां होती है, ये अब समझ में आया मुझे। मुझे माफ कर देना बिटिया, तुम माफ कर दोगी तो समझ लूंगा कि मेरी स्वर्गवासी बेटी ने भी मुझे माफ कर दिया है।”
इतना कह कर काका मेरे पैरो की तरफ झुके, काका की सारी बात सुनकर सबकी आंखों में आसूं आगये थे, मुझे तो जैसे लकवा मार गया था, पर तुरंत आंसू पोंछते हुए झुक कर मैंने काका का हाथ पकड़ कर उठा लिया, और बाबू जी ने काका को गले लगाते हुए कहा ” चौधरी,जो हुआ, सो हुआ, पर अब आगे अच्छा होगा। आज तुमने सही कहा, बेटियां ही घर की लक्ष्मी- दुर्गा और काली होती हैं, पर हम उन्हें मंदिरों में ढूंढ़ते रहते हैं।”
और आज से हमारी बिटिया , तुम्हारी भी बिटिया है।”
काका अपने आंसू पोंछते हुए बाबू जी के गले लग गए और मै ,काकी और अम्मा के गले।