जी हाँ ! हम मज़दूर हैं
रचना चौधरी
बुद्धिजीवियों, प्रभुत्त्ववादियों से अलग,
कुछ और ही दुनिया है हमारी,
गरीबी का बिछौना बिछाए
चारों पहर थकन से चकनाचूर हैं,
जी हां !!! हम मज़दूर हैं…
ऊँची अट्टालिकाओं की नींव धरने वाले
खुद झोपड़ियों में रहने को मज़बूर हैं,
जी हां !!! हम मज़दूर हैं…
गली मोहल्लों में लैंप पोस्ट लगाते हैं,
मगर खुद के घर में ढेबरियाँ जलाते हैं,
घरों तक तार आने के बावजूद ,
अँधेरे में रहने को मज़बूर हैं,
जी हां !!! हम मज़दूर हैं…
अपनी भूख और गरीबी का बोझ
थोड़ा कम करने को , बोझा उठाते हैं,
और हमारे सहारे चलने वालों को,
खुद पर गुरूर है,
जी हां!!! हम मज़दूर हैं…
पसीना बहाकर अपना घर चलाते हैं ,
हर छोटा काम कर , लोगों की ज़िन्दगी
आसान बनाते हैं ,
चैन आराम, हमारी ज़िन्दगी से काफूर है,
जी हां !!! हम मज़दूर हैं…
सदियों से छोटे बड़े स्कूल बनाते हैं,
कॉपी किताबों के बण्डल पहुंचाते हैं,
लेकिन खुद शिक्षा से , कोसों दूर हैं,
जी हां !!! हम मज़दूर हैं….
कल की चिंता में जागने वालों से अलग,
बगैर कोई ख्वाब आँखों में सजाये ,
बेपरवाही की नींद सोते ज़रूर हैं,
जी हां!!! हम मज़दूर हैं….
इतनी सदियाँ जी लेने के बाद
शारीरिक और बौद्धिक
श्रम के फ़र्क़ से वाकिफ हम , हुज़ूर हैं
जी हां!!! हम मज़दूर हैं….