दमयन्ती की कविताएँ
दमयन्ती गंगवार,उत्तर प्रदेश सरकार में कार्यरत हैं ।
अनुभूति की बारीकी कविता तक ले आयी और कविता स्वयं तक ।
【1】
आसमान का आंगन नीला और धरती माँ का दामन गीला है आजकल!
क्या आसमान के आंगन की आह जमीन से उठे धुएं और कालिख से बनी है!
ऐसा लगता है आसमान ने सदियों बाद अपने घर में झाड़ू लगाई औऱ अपने आंगन का दर्द धरती की ओर ठेल दिया है.
क्या बसंत का पिता अनिवार्य रूप से पतझड़ को होना नियत है!
प्रकृति के यहाँ आम बौराया है सभ्यताओं के यहाँ आदमी.
पर दोनों में भेद उतना ही है जितना कि दो विपरीत जाती हुई दिशाएँ।
आसमान और धरती अब किसी व्यवस्था में सहचर नहीं होते.
दोनों के दर्द के रंग पृथक होते हैं.
【2】
एक छोटा कोई डेरा हो
जहाँ चारो ओर सबेरा हो
हो कोयल की सी कूक जहाँ
बिरहा गीतों की हूक जहां
ख्वाबों का शहर हो ,मेला हो
न कोई जहाँ अकेला हो.
हो आसमान ,आसमानी सा
जहाँ सबका मन हो पानी सा
जहाँ प्रेम से भरी दीवाली हों
लोगों के दिल न खाली हों.
जहाँ सबका कोई अपना हो
सबकी आंखों में सपना हो.
जहाँ सपना पूरा होता है
धरती का दिल न रोता हो
एक छोटा कोई डेरा हो
वहां चारो ओर सबेरा हो.
【3.】
यदि कोई आदि लिपि होगी मनुष्यत्व की
वो होगी प्रथम मुस्कान
अपरिचित ,पवित्र और महीन रूई के मासूम गोले सी
लिखे होंगे
ईश्वर ने सबसे मासूम और पवित्र प्रेम पत्र
इसी लिपि में
हड़प्पा की रहस्यमयी और अबूझ लिपि से भी अधिक
प्राचीन
दुनियाँ की किसी भी लिपि से अधिक नवीन
यह सर्वमान्य और सर्व सुलभ है भाषा है जिसे पढ़ा जा सकता है
पढ़ा भी जाता है बिना कोई भाषा -विज्ञानी या भाषा -ज्ञानी होते हुए
दुनियाँ के प्रथम पुष्प ने खोले होंगे अपने नेत्र इस धरा पर प्रथम बार
उच्चारित हुआ होगा कोई अक्षर
मुस्कान की भाषा में
आश्चर्य के साथ ही तोतली जबान में
मुस्कुराहटें सबसे सरल और मासूम लय वाले प्रेम -ग्रंथ हैं.
मुस्कुराहट से ज्यादा लोकतांत्रिक और वैश्विक
नही होती होगी
कोई भाषा
किसी देश की और किसी भी दुनियाँ की
मुस्कान नहीं करती कोई भेद
बालक- बृद्ध,अमीर -गरीब ,स्त्री -पुरुष ,उत्तर और दक्षिण के बीच
यह मनुष्य है उसकी भावनाएँ हैं जो
बना देती हैं उसे
सरल और कुटिल, मधुर अथवा मारक
सबसे अधिक विनिमय -व्यापार ,आदान -प्रदान , कहने और सुनने की भाषा मुस्कुराहटें होती होंगी शायद
अपने मूल स्वाद में बेहद प्रेमिल और संक्रामक होती हैं मुस्कुराहटें.