दुष्यंत कुमार (01-09-1933 — 30-12-1975 ) की गज़लें
दुष्यंत कुमार का जन्म 1 सितम्बर, 1933 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के गांव राजपुर नवादा में हुआ था। उनका पूरा नाम दुष्यंत कुमार त्यागी था। उन्होंने इलाहबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की थी। शुरुआत में वे परदेशी के नाम से लिखा करते थे, किन्तु बाद में वे अपने ही नाम से लिखने लगे।
उन्होंने साहित्य की कई विधाओं में लेखन किया । उन्होंने कई उपन्यास लिखे, जिनमें सूर्य का स्वागत, आवाजों के घेरे, जलते हुए वन का बसंत, छोटे-छोटे सवाल, आंगन में एक वृक्ष, दुहरी ज़िंदगी सम्मिलित हैं। उन्होंने एक मसीहा मर गया नामक नाटक भी लिखा। उन्होंने काव्य नाटक एक कंठ विषपायी की भी रचना की। उन्होंने लघुकथाएं भी लिखीं। उनके इस संग्रह का नाम मन के कोण है। उनका गजल संग्रह साये में धूप बहुत लोकप्रिय हुआ। प्रस्तुत हैं उनकी तीन ग़ज़लें ।
[ 1 ]
कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए
न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए
ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए
तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए
जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए
[ 2 ]
आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख
घर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख
एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ
आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख
अब यक़ीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह
यह हक़ीक़त देख, लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख
वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे
कट चुके जो हाथ ,उन हाथों में तलवारें न देख
दिल को बहला ले इजाज़त है मगर इतना न उड़
रोज़ सपने देख, लेकिन इस क़दर प्यारे न देख
ये धुँधलका है नज़र का,तू महज़ मायूस है
रोज़नों को देख,दीवारों में दीवारें न देख
राख, कितनी राख है चारों तरफ़ बिखरी हुई
राख में चिंगारियाँ ही देख, अँगारे न देख
[ 3 ]
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है
सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है
इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है
पक्ष औ’ प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है
रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है
हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है
दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में संभावना है ।