बस्ती छूट गयी
दीपक भारद्वाज ‘वांगडु ‘
जिम्मेदारी के बोझ तले
सारी मस्ती छूट गयी
चार पैसे कमाने जो निकले
वो सुहानी बस्ती छूट गयी
वो छोटा सा गांव
ठंडी पीपल का छांव
वो नदी का किनारा
हमारे बचपन का सहारा
वो यारो की टोली
मिश्री सी बोली
वो प्यारा सा स्कूल
को कैसे जाऊं भूल
सबकुछ तो याद है
हां, बस याद है
क्यूंकि वहां जो पहुंचा दे
शायद वो कश्ती ही टूट गयी
चार पैसे कमाने जो निकले
वो सुहानी बस्ती छूट गयी
चाहकर भी अब वो
दौर नही आता
बेफिक्र मुस्कुरा सकूँ
वो ठौर नही आता
दुआओं में मांगता था
जल्दी बड़ा हो जाऊं
हर कोई टोकता है
एकदिन उनको भी सुनाऊं
पर आज दुआं सुनने वाला
किसी ओर नही आता
हां, पता है नही बदलेगा
ये जो भी हालात है
लगता है मुझे अब तो
की मेरी तकदीर ही रूठ गयी
चार पैसे कमाने जो निकले
वो सुहानी बस्ती छूट गयी
अब अकेले में अटपटा सा
गुनगुनाते रहता हूँ
खोकर बीते ख्यालों में
मुस्कुराते रहता हूँ
जानता हूँ ये सब
सिर्फ एक ढोंग है
खुद को ही भरमाने का
लाईलाज रोग है
फिर भी भुला के शिकायते
किसी कोने में पड़े रहता हूँ
निहारते सड़क को
दरवाजे पे खड़े रहता हूँ
अब फर्क नही पड़ता मुझे
की दिन है या रात है
क्योंकि, रोजी-रोटी के बन्दोबस्त के आगे
सारी हसरते ही लूट गयी
चार पैसे कमाने जो निकले
वो सुहानी बस्ती छूट गयी।