रीना गोयल
आजकल जब कविताएँ छंद मुक्त और मुक्त छंद में ज़्यादातर लिखी जा रहीं हैं ऐसे में हरियाणा की रहने वाली कवयित्री रीना गोयल की विभिन छंदों में रची जाने वाली कविताएँ पवन के शीतल झोंके के समान हैं ।
[1] कुहुक- कुहुक कोयलिया बोले
उपवन-उपवन शाखा- शाखा ,कुहुक- कुहुक कोयलिया बोले ।
मीठे- मीठे गीत सुनाकर, आमों में मीठा रस घोले ।
आम्र वृक्ष फल-फूल रहे हैं ,हरियाली हर ओर छा रही ।
वात बह रही मदिर मदिर जब,हाय!सजन की याद आ रही।
अंग-अंग पुलकित धरणी का ,अरु अम्बर छाई उमंग है ।
लहर-लहर आनन्दित करती ,सागर में उठकर तरंग है ।
पावन रुत की छटा सुहावन,डोल रहा मन पवन हिंडोले ।
उपवन-उपवन शाखा- शाखा ,कुहुक- कुहुक कोयलिया बोले ।
अमराई में रंग- बिरंगे ,भांति- भांति के पुष्प खिले हैं ।
दिशा दिशा से चंचल पक्षी,करे चकित यूं यहां मिले हैं ।
प्राकृतिक अद्भुत सुंदरता ,सृष्टि गहन विस्तार लिए है।
मुग्ध करे यह दृश्य मनोहर,हृदय उतारे नयन दियें हैं ।
स्वर्णिम इन अनमोल पलों में, चहक कोकिला इत उत डोले ।
उपवन-उपवन शाखा- शाखा ,कुहुक- कुहुक कोयलिया बोले
[2] मजदूर {रूपमाला छन्द (मदन छन्द)}
भोर से ही काम मे रत हो रहे मजदूर ।
साँझ को थक हार घर को लौटते मजदूर ।
ध्येय है पैसा कमाना ,पेट की है मांग ।
किन्तु धन अर्जन नहीं हो ,सत्य निष्ठा लांघ ।।
बोझ कांधो पर चढ़ा है ,पालते परिवार ।
फावड़ा ले हाथ करता ,कर्म हेतु प्रहार।
बांध नदियों पर बनाते ,श्रम करें भरपूर ।
तोड़ते हैं पत्थरों को ,रात दिन मजदूर ।।
चीथड़े तन पर लपेटे ,कर्म में तल्लीन ।
जूझते मजबूरियों से ,लोग कहते दीन ।
है बना उनका बसेरा ,ये खुला आकाश ।
एक दिन किस्मत खुलेगी ,मन भरा विश्वास ।।
[3 ] घिर आयी आँगन बदराई (सुगत सवैया )
रिमझिम सी पड़ी फुहारों का ,श्रृंगार धरा कर इतराई ।
आया मौसम बरसातों का , घिर आयी आँगन बदराई ।।
खिला-खिला सा नील गगन है ,छायी धरती पर हरियाली
तपती आकुल भू को सिंचित , करती बूँदनियां मतवाली
मन का वृंदावन झूम रहा , देह बाँसुरी धुन लहराई ।।1।।
आया मौसम बरसातों का , घिर आयी आँगन बदराई ।।
सौंधी माटी की मधुर गंध , हिय के सब ताप हरे मेरे ।
हर शाख-शाख पर बैठे खग ,कलरव करते चित के चेरे ।
टप-टप ,छप-छप की लिए थाप ,बूंदों की बजती शहनाई ।
आया मौसम बरसातों का , घिर आयी आँगन बदराई ।।
घनघोर घटा की थिरकन पर ,सुर साध जिया नग़मे गाये ।
सैलाब उमड़ता भावों का , कोमलता सपनों पर छाये
शब्दों की लड़ियाँ गूंथ रही , ले ले कर कविता अँगड़ाई ।।
आया मौसम बरसातों का , घिर आयी आँगन बदराई ।।
[4 ] सावन की रुत आयी है (ताटंक छन्द गीत )
बौराए तरु हैं अमुवा के ,मस्त-बहारें *छाई है।
इन्द्र -धनुष* के रंग बिखेरे ,सावन की रुत आयी है।
कोकिल ,*कूक करे नित मोहक ,चहक रही क्यारी-क्यारी *।
गंध बिखेरी है पुष्पों ने ,सुध बिसराई है सारी ।
मधुकर की मीठी गुंजन ने ,अजब रागिनी गायी है ।
बौराए तरु हैं अमुवा के ,सावन की रुत आयी है ।
अकुलाई सी शुष्क धरा पर ,जब रिमझिम बूँदें *आती ।
अहा!सुहाना दृश्य प्रकृति* का ,मैं अविरल तकती जाती ।
निर्झर बहकर सरित,* मनोहर ,सागर बीच समाई है ।
बौराए तरु हैं अमुवा के ,सावन की रुत आयी है ।
झूले पड़ने लगे डाल पर, राधा मोद करें प्यारी ।
छन- छन* पायल बजे पाँव में ,अँखियाँ* काजल से कारी ।
अपलक-* रूप निहारे सजना,लाज,* नयन भर आयी है ।
बौराए तरु हैं अमुवा के ,सावन की रुत आयी है ।
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[5] हरियाली ही हरियाली थी (सुगत सवैया )
हरियाली ही हरियाली थी ,नज़र जहां तक भी जाती थी ।
धरणी सजकर फलित वनों से ,दुल्हन जैसी कहलाती थी ।।
आज समय कैसा आया है ,मानव दानव बन बैठा है ।
अपने थोड़े लाभ के लिए ,तरुवर से तन कर बैठा है ।
काट-काट वन उपवन तुमने,खग को बेघर करके छोड़ा ।
मूक जीव की हँसी छीनकर,उनका हाय ! घरौंदा तोड़ा ।
सुबह सवेरे जहाँ कोकिला ,कलश सुरों के छलकाती थी ।
धरणी सजकर फलित वनों से ,दुल्हन जैसी कहलाती थी ।।
प्रात काल मे नीड़ छोड़कर ,पक्षी नभ में उड़ जाते थे ।
दिन भर वो दाने चुगते थे ,साँझ ढ़ले ही घर आते थे।
खोज रहे नव नीड़ बिचारे,कहाँ ठिकाना अब पाएंगे ।
विवश वनों के कट जाने से ,असमय सब मारे जाएंगे ।
वही घोंसलें टूट गए हैं ,जिनमें साँस सुकूँ पाती थी ।।
धरणी सजकर फलित वनों से ,दुल्हन जैसी कहलाती थी ।।
समय अभी है मनुज चेत लो ,यूँ विकास की जिद को छोड़ो ।
जीवन का वरदान प्रकृति है ,वन विनाश से मुख को मोड़ो ।
सबके हित की बात करोगे ,तभी सुखी तुम रह पाओगे ।
जन जीवन का बनो सहारा ,प्रीत दिलों में पा जाओगे ।
लौटा दो मुस्कान वही जो ,सबके दिल को महकाती थी ।।
धरणी सजकर फलित वनों से ,दुल्हन जैसी कहलाती थी ।।