शून्य

 शून्य

आकांक्षा दत्ता

बस एक शून्य हूँ मैं ,
ना आदि है ना अंत।
ना शरीर है ना आत्मा ,
बस एक शून्य हूँ मैं ।
रात के घने अंधेरे की तरह ,
जिसने सच भी खो सा जाता है ।
बस एक शून्य हूँ मैं ।
साथ में चलते साये की तरह ,
जो ख़ामोश रहकर भी सब कुछ कहना चाहता है ,
बस एक शून्य हूँ मैं ।
मुरझाए हुए उस फूल की तरह ,
जो खिल के फिर एक बार जीना चाहता है ।
बस एक शून्य हूँ मैं ।
आँखों में ठहरे आँसू की तरह ,
जो बहकर अपना दर्द बतलाना चाहता है ।
बस एक शून्य हूँ मैं।
मेरा ना कोई वजूद है ना कोई अस्तित्व ,
ना कोई अपना ना पराया ।
ख़ुद ही को खोजता ख़ुद ही में खोया ।
बस एक शून्य हूँ मैं।
मेरा ना आदि है ना कोई अंत ।