स्त्री विमर्श और हिंदी साहित्य -बिपिन टाइगर

लेखक चर्चित कवि और आलोचक हैं ।

भारत में स्त्री विमर्श कोई नई बहस नहीं है । समता-समानता की डींगें मारने वाले व्यवस्था साधकों की कोरी लफ्फाजी के बीच आज भी मूल मुद्दा गौण है ।
आर्यावर्त में साहित्य शताब्दियों से लिखा जाता रहा है, परन्तु स्त्री की जिन्दगी को शब्दों की दुनिया में आने अनुमति नहीं मिली । महाकवियों की अटूट श्रृंखला के वाबजूद भी यदि उनकी निगाह कभी पड़ी भी तो यह टोला उन्हें नरकों की खान लगी ।
यदि उन्होंने कभी किसी विवशता के कारण दो बूंद स्याही चलानी भी चाही तो महिलाओं को गंगा माँ लिख दिया । एक तरफ रहस्य, रोमांच और सौंदर्य के प्रतीक तो दूसरी तरफ शक्ति, लक्ष्मी, काली, दुर्गा और न जाने क्या-क्या ।
यह जानकर खेद होता है कि जो ग्रन्थ आजतक स्त्रियों को पत्नी, रखैल और वेश्या से ऊपर कोई दर्जा न दे सका, उन पुस्तकों को वे न तो वे जलायी और न ही कूड़े में फेंका बल्कि उल्टे उसे आज भी गले मे मंगलसूत्र की भांति लटकाये घूमती दिखाई देती है ।
लगभग सभी इतिहासकारों और साहित्यकारों ने भारत में प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक के समय में वेश्याओं के होने की बात की, परन्तु वेश्या कैसे बनाई जाती है इस बात पर वे मौन साधना बेहतर समझे ।
भारत में न तो कभी समाजसेवी संस्थाओं की कमी रही है और न ही समाज सुधारकों की, बावजूद इसके समाज में महिलाओं की भयंकर रूप में उत्पीड़न हुए । इस बात पर इतना ही कहा जा सकता है कि वैसे समाज सुधारकों में अधिकांश मिट्टी के लौंदे से अधिक कुछ न थे ।
जैसे उदाहरण के तौर पर न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानाडे की बात ले लें ।
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध ने शायद ही ऐसा कोई आंदोलन या संस्था रही हो, जिससे रानाडे का नाम न जुड़ा हो। लेकिन व्यवहार में देखें तो वे कभी भी कथनी और करनी में समानता नहीं रख पाएं ।
जब रानाडे की पहली पत्नी की मृत्यु हुई तो उन्होंने एक 10 साल की बालिका से ही विवाह करना उचित माना । यह है भारत में सुधारकों की स्त्री के प्रति सम्मान ।
हमारा साहित्य भी इसे सम्मान के तौर पर ही देखता है जैसे कब्र में पैर लटकाये गंगाधर राव के साथ 10 वर्षीय बालिका मणिकर्णिका अर्थात लक्ष्मीबाई से बेमेल शादी भारतीय साहित्यकारों को शिव-पार्वती की जोड़ी दिखाई देती है ।
याद रखना होगा कि ठूँठ की कलम लगाने से कोंपल नहीं फूटा करती ।
असल में भाषिक कलाओं में काव्य-विधा वह कला है जिसमें मनुष्य अपनें मनोभावों को सशक्त तरीके से व्यक्त करता है । जिसके चलते सत्ता और व्यवस्था साधकों ने इसे अपने-अपने तरीके से साधा । कभी स्वर्ण मुद्राएँ लुटाकर बिरदावलियाँ गवायी गयीं तो कभी नवरत्न, पद-प्रलोभन देकर कलम को खरीदने के प्रयास किये गये । फरहा-फरहा बिका भी और अपने को गिरवी तक रख दिया । मसि के बदले राशि का ढेर देने वाला वर्ग अपनी कली खुलने के प्रति सावधान रहा । परन्तु भाटगिरी से इतर कुछ कबीर भी निकले जिन्होंने व्यवस्था की नाक में दम कर दी, हाँ, इसके बदले बड़ी भारी कीमत भी चुकायी इन महात्माओं ने ।
हमें आगे बढ़ने से पहले भारतीय समाज की बुनावट पर गौर कर लेना बेहतर होगा ।
आर्यवर्त समाज का चरित्र ही अपराधिक रहा है यह अपने हर अपराध को धर्म के लिहाफ़ में लपेट कर न्यायसंगत साबित करने पर उतारू रहा है । सड़ी-गली मान्यताओं का बोझ अपने सिर पर लादे आधुनिक होने का दम्भ भरने में कभी गुरेज नही किया । दलील दी जाती है कि मनु जिन्होंने सामाजिक व्यवस्था रची वे वैज्ञानिक जैसे अधिक थे या ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें आज की व्यवस्था में किसी बड़े कॉर्पोरेशन के मानव संसाधन विभाग के प्रमुख के रूप में वर्णित किया जा सकता है । यह तो अपनी ही बुद्धि पर आत्ममुग्धता की स्थित है चाहे दूसरा इससे असहमत ही क्यों न हो । आर्यवर्त इतिहास में मनुस्मृति विचारधारा के सबसे अनुकरणीय ग्रन्थों में एक रही है । इसके चिन्तन के केंद्र में रोजमर्रा के तमाम क्रिया-कलाप समाहित है । दूसरे वेद, जो कहते हैं कि पुरोहित का दायित्व इस ब्रह्मांड में चल रही ‘खाने की प्रवृति’ में सबसे प्रथम और उच्च वर्ग को बचाना है । इसके पीछे झाँकें तो पुरोहितों और सत्ताधारियों के बीच एक अघोषित अनुबन्ध दिखाई देता है । जहाँ स्त्री को भोग्या से अधिक कोई दर्जा नहीं उस समाज की स्थिति क्या होगी इसका मात्र अंदाजा ही लगाया जा सकता है ।
आजकल हिंदी साहित्य की स्थिति ऐसी हो गई है कि जहाँ प्रसव पीड़ा का दर्द स्त्री लेखिकाओं से अधिक पुरुष लेखक अधिक महसूस कर रहें है जैसे कालांतर से सृष्टि संचालन का भार पुरुष कांधें पर ही टिका हो ।