हरीश अग्रवाल ‘ ढपोर शंख ‘ की कविता

 न्याय का द्वार 

एक लालाजी की दुकान पर रखे आटे को एक बकरी चर गयी,
उनकी दुकान से आटे को खाते देख वो लालाजी‌ को अखर गयी,
लालाजी ने एक छोटी डडीं से
उसे मारकर भगाया,
दुर्भाग्य लालाजी का,डंडी की मार से बकरी मर गयी,
बकरी के मालिक ने जाकर दरोगा जी को रिपोर्ट लिखाई,
तस्दीक के लिए तुरंत थाने से पुलिस आई,
लालाजी‌ को तुरंत थानेदार साहब ने बुलवाया,
थाने में आते ही लाला को थानेदार ने अच्छा हड़काया,
बोला,क्योंबे लाला,बाप का राज है, जहां चाहो चला लोगे,
अरे,बकरी चरने लगी ,तो क्या तुम उसे मार डालोगे,
लालाजी बोले, सरकार गलती हो गयी,माफी चाहता हूं, बताइए,
मुझे क्या और कैसी सेवा करना है ,आज्ञा फरमाइए,
थाने के मुंशीजी बोले,ठीक समझें लालाजी,इधर आइये,
और दरोगाजी की शाम की सेवा के लिए चुपचाप ढाई सौ थमाईये,
लाला जी ने तुरन्त समझदारी दिखाने में समझी भलाई,
और शाम की सेवा को ढाई सौ थमाकर अपनी जान छुड़ाई,
अब नम्बर बकरी के मालिक मौलाना जी का था,
अब इनको भी तो नम्बर से बकरा बनाना था,
दरोगा जी बोले,मिंया बकरी बांधकर नहीं रखते, जहां चाहे खाएगी,
लाला मारेगा नहीं ,तो क्या उसकी आरती उतारी जाएगी,
मुंशी जी ,मौलाना जी को भी जरा ढंग से समझा दो,
और समझ नहीं आये ,तो इनको हवालात का रास्ता दिखादो ,
मिंयाजी अच्छी तरह समझ गये कि मुझे क्या करना है,
अब आये हो थाने‌ तो, हवालात या दक्षिण भरना है,
उन्होंने भी अपनी बात मुंशी के द्वारा चलवाई,
और देकर ढाई सौ नकद,घर चलने में ही समझी भलाई,
हमें लगा कि वास्तव में पुलिस न्याय का प्रथम द्वार है,
यहां से बच गये तो फिर तो आगे न्याय का बढ़ा शाही दरबार है
फिर तो आगे न्याय का,,,,,
फिर तो आगे,,,,