ज़िन्दगी है हैंडल हो जाएगी पर एक लेखिका की राय

बिहार की उषा लाल सिंह वैसे तो पेशे से टीचर हैं लेकिन लेखन  भी बहुत बढ़िया करती हैं जो बड़ा नेचुरल और फ्लो में होता है ।

जिंदगी है… हैंडल हो जाएगी”
नाम में तो कोई खास आकर्षण नहीं पर इतना तो शीर्षक से ही तय था कि इसका विषय वस्तु किसी और लोक की कल्पना पर आधारित न होकर इसी लोक की यथार्थ की धरातल पर लिखी कहानी होगी।

स्कूल में नेटवर्क न चलने की वजह से बैग में अक्सर कोई न कोई किताब जरूर रखती हूँ।बस ऐसे ही कल अनायास ही “जिंदगी है…हैंडल हो जाएगी” को बैग के हवाले की और स्कूल जा पहुंची।अभी क्लास तो न हो रहा पर मैट्रिक का फॉर्म भराने की वजह से काम थोड़ा बढ़ गया है। अभी बच्चियों के आने में समय था।अकेले का सबसे बढ़िया साथी किताब या फिर मोबाइल।
तो “जिंदगी है….. हैंडल हो जाएगी”
किताब को निकाली,अच्छे से
उलट-पलट कर देखी।
जैसा कि वो बताये थे कि ये साझा उपन्यास है और इस पर भी लिखा है यही मेरे आकर्षण का बड़ा केंद्र रहा।
आज तक उपन्यास किसी एक ही लेखक/लेखिका का पढ़े हैं।
पर यहाँ तो आठ हैं।
1. Tej prtap जी
2.Bipin Tiger जी
3.राजीव चौधरी सहरा जी
4.कामता प्रसाद “कमल” जी (प्रकाशन के पहले ही इनका निधन हो गया)
5.Rachna Chaudhary जी
6.दमयंती गंगवार जी
7.Seema Patel जी
8.वीनस सिंह जी
पढ़ने के पहले ही बहुत कुछ सोचने लगी।
आखिर किसी एक कि सोच को अगला मूर्त रूप कैसे दे सकता है?
यदि दे भी दे तो पहले वाला उससे सन्तुष्ट हो जाएगा?
यदि ऐसा होता है तो बहुत बड़ी बात होगी।
कभी बचपन में अखबार या बाल पत्रिका में इस तरह का स्तम्भ आता था कि कहानी का चित्र या एक पैराग्राफ लिखा होता उसके बाद की कहानी पूरी करनी होती थी।कुछ वैसा ही याद आने लगा।
खैर उत्सुकता तो थी ही बस पढ़ना शुरू की।एक मध्यम वर्ग का परिवार (आशीष,पत्नी-निरुपमा व दो बच्चे सौरभ व सौम्या) जो माता-पिता,दो बहनों को गांव पर छोड़कर दिल्ली में नौकरी की वजह से पत्नी व बच्चों सहित रह रहा है।
पर गांव व जिम्मेदारियों से विमुख नहीं होता है बल्कि हर दुःख सुख की घड़ी में पूरा परिवार साथ खड़ा मिलता है।
आजकल के भाग दौड़ में इतना सब आसान नहीं पर आधुनकि व कुशल गृहिणी के रूप में निरुपमा सब कुछ अच्छे से हैंडल कर रही है।वो चाहे ननदों की शादी हो,या बाबूजी का एक्सीडेंट या बड़ी ननद के असमय विधवा होने का दुःख हो सभी में पूरे तन मन से न सिर्फ शरीक होती है तन-मन से उस परिस्थिति को सम्हालती है।इस बीच उसके बच्चों की पढ़ाई भी बाधित होती है।
कहानी में जितने भी पात्र हैं सभी के साथ न्याय किया गया है।वो चाहे गृहस्थी में जकड़ी निरुपमा के सपनों उड़ान देता उसका ऑनलाइन बिज़नेस की बात हो या काम वाली ललिता हो या रीमा या ऊंची पहुंच वाला धर्म की आड़ में छुपा ऐय्याश ढोंगी बाबा।
वन्दना के असमय वैधव्य के जरिये समाज में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति पर बदलाव पर ध्यान आकर्षित किया गया है।जिसके लिए डॉ आकाश आज का युवा अपने से न सिर्फ उम्र में बड़ी बल्कि विधवा के साथ शादी जैसे पवित्र रिश्ते के लिए आगे आता है ।जिसे उसके माता-पिता सहर्ष तो नहीं पर स्वीकार जरूर करते हैं।यह समाज में बहुत बड़े बदलाव को दर्शाता है।
किताब इतनी इंटरेस्टिंग लगी कि आधी तो स्कूल में ही खत्म की बची आधी को घर आकर शाम होते होते।
पूरे किताब को पढ़ने पर कहना मुश्किल है कि किन्होंने कितना हिस्सा लिखा है।कहीं कोई पहचान या चिन्ह नहीं जो ये बतलाए कि इतना भाग किसी ने तो इतना किसी और ने लिखा है।
पर बहुत गहराई से ध्यान देने पर थोड़ा सा अहसास होता है।
जैसे एक जगह विचारक हीगल का अंतर्द्वंद की बात आई है।जिससे पता चलता है कि ये वाला हिस्सा लिखने वाला का विषय कहीं न कहीं समाजशास्त्र रहा है।
उसी तरह न्यायलय का ताना बाना का चित्रण भी इतना सजीव है कि लगा हम भी वहीं कोर्ट परिसर में हैं।
मतलब बहुत ही अच्छा लगा कि आठ लोग बिना एक दूसरे से मिले इतना बड़ा प्रयोग कर बैठें।
मुझे एक जगह थोड़ा मिसिंग लगा निरुपमा और आशीष का अपने बढ़ते बेटे सौरभ जो किशोरावस्था की वजह से हार्मोनल चेंज की वजह से उसके व्यहवहार में जो परिवतर्न की चर्चा की गई तथा उसके भटकाव को लेकर जिस तरह पति-पत्नी चिंतित थे वो अचानक से गुम होकर रह गया।
आपसी ताल-मेल व सामंजन का यह अनूठा प्रयोग बड़ा ही बेहतरीन है।बहुत बहुत बधाई आप सभी को💐💐