दोस्त की फीस

 दोस्त की फीस

ये मुकेश कौन है ? – स्कूल की प्रधानाचार्य कक्षा ३ ख में घुसते हुए बोली।
स्कूल की प्रधानाचार्य श्रीमती पांडेय मैडम स्कूल में अनुशासन बनाये रखने के लिए बहुत सख्त है। जिसकी वजह से यह स्कूल पिछले दस सालों से ज़िले के सभी स्कूलों में अपना स्थान शीर्ष पर बनाये हुए है।

जी मैं हूँ ! – एक बहुत धीमी सी आवाज़ कक्षा के सबसे पीछे वाली सीट एक आठ साल के बच्चे की आवाज़ आयी। लाल रंग का स्वेटर और उस पर सफ़ेद कालर की शर्ट साफ़ – साफ़ दिख रही थी और नीले रंग की पैंट और काला जूता पहने ; जिसको ना जाने कितनी बार टेलर और मोची ने उस पर अपनी कला के प्रदर्शन से बार – बार उसको नया जीवन देने का संघर्ष करते चले आ रहे थे ।
लाल रंग का स्वेटर जोकि आज तक घर की आर्थिक मजबूरी को अपने अंदर छुपाये हुए था। लेकिन आज वो भी मेरे पापा की तरह मेरा साथ छोड़ दिया।

नज़रे पूरी तरह से नीचे किये हुए ; जोकि प्रधानाचार्य की तेज़ आँखों और आपस में सहपाठियों का खुसुर – फुसुर करते हुए और फिर मेरी तरफ देखकर मुस्कुराना का सामना करने के लिए ऊपर उठने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी।

तुम कल अपने पिता जी को मेरे कार्यालय में भेजना ! – एक कड़क भरी आवाज़ में प्रधानाचार्य जी बोलते हुए निकल गयी।

तुम कल अपने पिता जी को मेरे कार्यालय में भेजना ! इतना सुनते ही मुकेश की आँखों में आँसुओ की लहर पलकों तक आकर फिर अंदर चली जाए … ठीक वैसे जैसे की समुंद्र की लहरें एक निश्चित वेग के साथ एक कोने से दूसरे कोने तक चलती है। वो आज अपने पिता की कमी को महसूस कर रहा था।

इसी दर्द के साथ जैसे तैसे घर पहुँचकर !
माँ मैं कल से स्कूल नहीं जाऊँगा – मुकेश अपने दिल के दर्द को माँ से बयान करने लगा।
क्यों बेटा ? – माँ ने अपने ममता की छाँव मुकेश के सिर पर रखते हुए बोली।
जिस प्रकार कड़ी धूप में बारिश नहीं हो सकती और बारिश होने के लिए बादल की आवश्यकता होती है। । उसी प्रकार कक्षा में चारों तरफ अपमानों की वर्षा ने जिस आँसू को रोक के रखा था उसे माँ के ममता की छाया ने नदी की तरह बहा दिया ।
इस आँसुओं की बारिश को बह हो जाना ही माँ ने बेहतर समझा।
आँसुओं की धारा जैसे – जैसे कम होती जा रही थी वैसे – वैसे स्कूल की घटना भी अपने – आप निकले जा रही थी।

माँ ! आज प्रार्थना और पी.टी होने के बाद जब प्रधानाचार्य और अध्यापक लोग स्कूल के सभी बच्चों के हाथ के नाख़ून , स्कूल की टाई , बेल्ट और बिल्ला ,शर्ट के कालर और बाल कटा हुआ देखने लगे तो …. इसी के साथ फिर आवाज़ को आँसुओ की धारा ने रोक दिया।
फिर धीमे – धीमे आँसुओ को रोकते हुए आवाज़ ने अपना काम शुरू किया।

माँ ! आज उनको पता चल गया कि मेरे स्वेटर में शर्ट की जगह केवल उसका कालर ही लगा है। और आज मुझे सारे स्कूल वालों के सामने बहुत ही शर्मिन्दगी का सामना करना पड़ा। मैं अपनी मजबूरी से लड़ रहा था और मेरे दोस्त उस पर हस रहे थे।
मेरी क्लास के सारे बच्चे मुझे कॉलर – कॉलर बोलकर पूरे समय चिढ़ाते रहे। मुझे इसी सब पाबंदी के कारण स्कूल जाने की इच्छा नहीं होती है। इसी के साथ फिर आँसुओ ने अपना काम शुरू किया।

अब इस परिस्थिति में माँ का दायित्य और भी बढ़ जाता है। वो शिक्षा का महत्व भली – भांति जानती है। इसीलिए दूसरो के घरों पर काम करके ; घर पर अखबार से लिफाफा बनाकर और सौन्दर्य को चार चाँद लगाने वाले सभी गहनों को अपने बेटे के शिक्षा के लिए न्योछावर कर दिया था।

नहीं बेटा ! ऐसा मत बोलो इस संसार की ऐसी रीति रही है कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना ही पड़ता है। जैसे कि डॉ भीमराव आंबेडकर कैसे उस विपरीत स्थिति में शिक्षा ग्रहण किये थे। जब समाज में दलित वर्ग को काफी दबाया जा रहा था और बाद में वो स्वतंत्र भारत के प्रथम विधि एवं न्याय मंत्री , भारतीय संविधान के जनक और भारतीय गणराज्य के निर्माता बने।
हमारे भगवान् श्री राम भी अपने सभी अनुजों के साथ शिक्षा लेने के लिए राजमहल का ठाट – बाट छोड़कर जंगल में गुरु की शरण में चले गए।
इसीलिए बेटा अगर शिक्षा पाने के लिए अगर समाज का अपमान भी झेलना पड़े तो हसकर झेल लो। अगर तुम पढ़ लिख कर कुछ बन जाओगे तो समाज का नज़रिया तुम्हारे प्रति भी बदल जाएगा।

अब उस आठ साल के बेटे को क्या पता उस समय दलित वर्ग , भारतीय संविधान के बारे में !
वो तो बस ये जान गया कि माँ तो मेरे अच्छे के लिए ही बोल रही होगी।
माँ मुझे माफ़ कर दीजिये आज मुझे शिक्षा की महत्तवता का ज्ञान हुया। अब मैं कभी भी स्कूल ना जाने के लिए आप से नहीं बोलूंगा । और ख़ुशी – ख़ुशी बाहर खेलने चला गया।

क्या मुकेश ! कुछ इनाम मिला है क्या इतना खुश – खुश दिख रहे हो ? – मुकेश के साथ स्कूल जाते समय विवेक ने पूछा।
इस पूरे स्कूल में एक विवेक ही उसका घनिष्ठ मित्र है। जिससे वो अपने दिल की बात बोल सकता है बाकी सब तो बस केवल मज़ाक उड़ाते रहते है । लेकिन वो कक्षा ३ क में पढता है। एक ही कक्षा में ना होने के कारण मुकेश को बिना किसी दोस्त के हमेशा अकेला – अकेला सा लगता है।

आज मुझे अपना लक्ष्य मिल गया है।
लक्ष्य ! क्या लक्ष्य है तुम्हारा ? – एकदम हकबके की स्थिति में पूछा।
कल माँ ने मुझे शिक्षा के महत्तव के बारे में बताया। अब मैं भी बड़ा होकर दूसरो की परेशानियाँ कुछ कम करूँगा।
अच्छा सही है ! ये लो तुम्हारा लक्ष्य भी आ गया – इतना बोलते हुए विवेक स्कूल के छोटे से दरवाज़े से अंदर घुस लिया।

आज मुकेश के प्रसन्नचित मन को सुनील की हरकतें कहाँ तक शांत कर पाती। रोज की तरह हर रोज सुनील अपने दो दोस्तों के साथ कुछ न कुछ करके मुकेश को परेशान करने का कोई भी पल गवाना नहीं चाहता था। चाहे वो कागज़ का राकेट बनाकर उससे मारना हो ; किताब छुपा लेना हो ; सफ़ेद शर्ट के पीछे तरफ पेन की स्याही फेंक देना हो या सीट पर चिलगम चिपका देना हो।
आज तक मुकेश, सुनील के सारे अपमान चुपचाप सहे जा रहा था। जैसे महाभारत के युधिष्ठिर की तरह दुर्योधन के सारे अपमान चुपचाप सहे आ रहा था। लेकिन आज तो हद ही हो गयी। लंच के समय जब मुकेश हाथ धोकर बाहर से अंदर आया तो वहाँ के दृश्य ने उसको अंदर से तोड़ दिया।
सुनील उसका स्टील का टिफिन अपने हाथ में उठाये कक्षा के चारों तरफ नारा लगाए जा रहा था तीन रोटी दो अचार … जिसको भी भूख मिटानी हो अपने हाथ खड़ा कर दे।

मेरे को देखते ही उसके हाथों से टिफिन नीचे गिर गया। नीचे गिरते ही तीन रोटी और दो अचार ज़मीन पर सुनील के जूत्तो पर अपना स्थान बना लिए।
सुनील की हरकतों पर यहाँ भी लगाम नहीं लगी।
दोस्तों अब आप सभी लोग अपने हाथ नीचे कर ले ; क्योंकि तीन रोटी और दो अचार किसी को नसीब ना होते हुए कचड़े के डिब्बे को नसीब होगा। – इस तरह रोटी को अपने जूतों से एक तरफ करते हुए अपनी सीट पर जाकर बैठ गया और उसका देखा – देखी सभी बच्चे अपनी – अपनी सीट पर बैठकर अपनी माँ के हाथों से बने प्यार का एहसास लेने लगे।

सुनील अपनी सीट पर बैठकर देशी घी के पराठे और गोभी की सब्ज़ी खाते हुए मुकेश को चिढ़ाने लगा।
इधर मुकेश अन्न को हाथ जोड़ते हुए रोटी और अचार नीचे से उठाकर उसे टिफिन में लेकर अपनी सीट पर बैठकर सिर नीचे किये एक – एक करके रोटी खाने लगा।और उस रोटी के पीछे की मेहनत को सोचने लगा।
उस समय उससे अपनी माँ के माथे से बहता हुया एक एक बूँद पसीना ; बार – बार चूल्हे में आग तेज़ करने के लिए फुकनी से फूकने के बाद उससे निकले धुएं से आँखो से आँसू निकलना ; कई बार आग में रोटी सेंकने से हाथों में छाले पड़ जाना ये सभी दृश्य एक – एक करके याद आ रहे थे। कैसे एक शेर गेहूँ के लिए परचून की दूकान पर कितनी बार रहम करना और फिर पैसे की कमी की वजह से खुद ही पीसना।
सुबह पाँच बजे उठकर ओस से भीगी लकड़ी को जलाने के चक्कर में खुद को जला लेना ; छोटे से टिन के कमरे के कोने में रखे चूल्हे की आग में अपने को झोंकते हुए मेरे लिए ये तीन रोटी ! सिर्फ तीन रोटी ही नहीं बल्कि मोतियों के समान है।

अभी लंच के बाद की कक्षा शुरू हुई नहीं थी कि इतने में प्रधानाचार्य हाथ में छड़ी लिए हुए अपने साथ किसी के अभिभावक के साथ आ गयी।
ये सुनील कौन है ? – एक कड़क भरी आवाज़ में !
जी मैं हूँ मैडम ! – शेर की आवाज़ भींगी बिल्ली की तरह करते हुए सुनील ने बोला।
तुमने कल इनके लड़के की पेन चुरा ली थी ?
नहीं मैडम ! मैंने नहीं चुराई थी।
नहीं मैडम ! ये झूठ बोल रहा है आप इससे भी पूछ सकती है। – तभी उस लड़के ने अपने बगल में खड़े लड़के की ओर इशारा करते हुए।

बरहहाल चुराया कोई भी हो लेकिन प्रधानाचार्य के चार डंडे और सारी कक्षा के सामने मुर्गा बनना सजा हो गयी। बस मुकेश को छोड़कर सारी कक्षा सुनील के मुर्गा बनने पर उसका मज़ाक उड़ा रही थी।

इधर मुकेश को अपनी गरीबी और पापा के ना होने का आभास हो रहा था। उसके पापा होते तो क्या किसी की मज़ाल होती कि कोई उसको ऐसे परेशान करता ।
और हर बार की तरह स्कूल में उसकी फ़रियाद सुनने वाला कोई नहीं था इसीलिए उसने हार मानकर फ़रियाद की गुहार लगाना ही छोड़ दिया।

अध्यापिका ने कक्षा शुरू होने से पहले ही फरमान जारी कर दिया – कल सभी लोग अपनी फीस ले आएंगे। और अपने – अपने पिता जी को बता देना कि जिनकी भी फीस जमा नहीं हुई फिर उसका नाम काट दिया जाएगा।
इधर मुकेश कल की फीस जमा करने के बारें में सोचने लगा कि कैसे माँ से कहुँ ?
क्योंकि उसको घर की स्थिति पता थी कि इस समय घर में जो भी पैसा है वो पीलिया से ग्रस्त छोटे भाई के इलाज़ में लग गया है। और अपने इस दर्द को दिल में बैठाये हुए अगले दिन स्कूल जाते समय !
क्या हुआ मुकेश आज बहुत परेशान से दिख रहे हो ? – विवेक अगले दिन स्कूल जाते समय मुकेश के चेहरे पर आ रहे पसीने की बुँदे देख कर पूछा।
नहीं ऐसी कोई बात नहीं है।
मन ही मन स्कूल में एक और अपमान की परीक्षा में भाग लेने के लिए खुद को तैयार करने लगा। अरे क्या होगा ? यही ना कि फीस जमा ना करने के डाट पड़ेगी और सभी स्कूल वाले फिर से मज़ाक़ उड़ायेंगे। तो इसमें नया क्या है ? इसी तरह मन को ढाँढस देते हुए स्कूल के गेट पर पहुँच गया।
वह स्कूल का गेट जो आपके ज्ञान के द्वार खोलता है। जहां कितनो को मेरी उम्र में ना चाहते हुए भी आना पड़ता है। लेकिन आज मेरे मन में गजब का आत्मविश्वास बढ़ा है। जो मुझे सारे अपमान को झेलने की शक्ति और स्कूल जाने के लिए प्रेरित कर रहा था ।
इस बढ़े हुए आत्मविश्वास के साथ जैसे ही अपनी सीट पर पहुंचा कि फिर से सुनील की हरकतों ने उस बढ़े हुए आत्मविश्वास को नीचे कर दिया।

मेरी सीट पर मेरा कॉलर वाला कार्टून बना के रखा हुआ था। एक में वो सड़क पर गिरी हुई रोटी उठाते हुए ; दूसरे में रोटी को मुँह में खाते हुए जिसको पास के खड़े बच्चे देखकर हॅसते हुए ; और तीसरे में बिना कपड़ो की फोटो में स्कूल के गेट को पकड़े जिसके माथे पर लिखा था पहले फीस लाओ फिर अंदर आओ। मैं इस टूटे हुए आत्मविश्वास के साथ खुद से एक सवाल पूछने लगा कि इसके लिए क्या मैं ज़िम्मेदार हूँ ? या फिर मेरी गरीबी ! अगर मेरे पास पैसा होता तो क्या ये सब मुझे ऐसे परेशान करते ? अगर मेरे पास भी पापा होते तो क्या प्रधानाचार्य और स्कूल के और लोग मेरी बात ना सुनते ? यही सब सोचते – सोचते फीस लेने के लिए अध्यापक भी आ गए।
फीस ना होने की वजह से जैसे – जैसे मेरा रोल नंबर पास आये जा रहा था वैसे -वैसे मेरे दिल की धड़कन भी बढ़े जा रही थी। तभी एक ज़ोर से आवाज़ आयी। मुकेश …
जी मैडम ! – एकदम डरी और सहमी भरी आवाज़ मुकेश के मुख से निकली।
फीस लेके आओ ! – सामने से एकदम तेज़ सी आवाज़ आयी।
इधर मुकेश डर के मारा आवाज़ जुबान पर नहीं ला पा रहा था । और मन ही मन कुछ बोलने लगा।
अरे सुनाई नहीं देता है क्या ! फीस लेके आओ।
तभी धीमे से आवाज़ आयी – फीस नहीं ला पाया मैडम।

क्या ! – एकदम से सामने से आवाज़ आयी। जब फीस नहीं है तो यहाँ क्या नेवता खाने आया है। और छड़ी उठाकर दो जड़ दी। मैंने कल बोला था कि नहीं जो फीस नहीं लाएगा उसका नाम काट दिया जाएगा।
तभी आगे से सुनील और उसके साथी की ज़ोर से हसने की आवाज़ आयी।
जी मैडम – एकसाथ साड़ी क्लास ने हामी भर दी।

फि तुमको अलग से पत्र लिखना पडेगा कि श्रीमान कल की फीस लाने की कृपा करें। और फिर दो छड़ी जमाते हुए ब्लैक बोर्ड के सामने मुर्गा बनवा दिया। तभी पीछे से किसी ने कुकड़ूँ -कूँ … बोलते हुए चिढ़ाने लगा।

कक्षा की अध्यापिका उसको डाँटने के बजाय खुद मुस्कुराने लगी। खाली कक्षा में टॉप करने से तुम्हारी गलती छुप नहीं सकती। यहाँ के नियम भी मानते पड़ते है। जाओ अपनी सीट से बैग उठाओ और कल फीस लेके ही आना नहीं तो परसों से मत आना।

चुप चाप नज़रे नीची किये हुए पीठ पर बस्ता लादे ; हाथ में पानी की बोतले लिए निकल ही रहा था कि सुनील ने कुकड़ूँ -कूँ … बोलते हुए मुर्गा बना हुया कार्टून मुझे दिखा – दिखाकर चिढ़ाने लगा।
इधर मुकेश अपमानों का स्वाद चखते हुए ; रणभूमि में हारे हुए योद्धा की तरह एक – एक कदम आगे बढ़ाते हुए बाहर जाने लगा ।

आज तेरा जन्मदिन जन्मदिन है क्या खायेगा बेटा ? – बसंत चाट भण्डार के सामने सुनील के पापा उससे पूछ रहे थे। चाट खाते है फिर राजू स्वीट्स के यहाँ गरमागरम इमरती जलेबी खाते है। जिसको गरम – गरम खाने का स्वाद जीभ से उतरे नहीं उतरता।
बसंत चाट भण्डार जहाँ मुकेश अपने परिवार की आमदनी में कुछ सहयोग देने के लिए शाम के समय बर्तन माजने का काम करता था।
इधर मुकेश अंधकार में बैठा बर्तन माँजते हुए ये सब देख रहा था। और अपने जन्मदिन के बारे में सोचने लगा लेकिन याद भी कैसे आये जब कभी मनाया गया हो तब तो !

ऐ छोटू ! ये ले दो प्लेट चाट साहब को देआ – चाट वाले मालिक आखिर में कटी हुई प्याज और मिर्च चाट पर डालते हुए बोले।
अभी तक अंधकार ने मुझे कल के तूफ़ान से बचाये रखा था , लेकिन उसके भी रुकसत लेने का वक़्त आ गया। दो प्लेट चाट दोनों हाथ में लिए सर नीचे किये हुए ठीक वैसा अनुभव कर रहा था जैसा कि कक्षा में प्रधानाचार्य के सामने।
साहब दो प्लेट चाट ! एक प्लेट सुनील और दूसरा प्लेट उसके पापा को देते हुए और धीमे से सुनील को हैप्पी बर्थडे बोलते हुए आ गया।

सुनील ने कुछ जवाब ना देते हुए मेरा वही कॉलर वाला स्वेटर और नीली पैंट देखने लगा।

इधर मुकेश कल के तूफ़ान को सोच – सोचकर उसका मन घबड़ाने लगा। अब ये जाकर सारी क्लास में मेरा कार्टून बनाकर चिढ़ायेगा। सब मुझे अब छोटू चाट वाला … कहकर चिढ़ाएँगे।
तभी मन में अलग सा विचार आया कि
मोची भी तो लोगों के पैर से निकले जूते को अपने हाथों से निकालकर उसको ठीक करता है। जमादार भी तो दूसरों के घरों और स्कूलों के बाथरूम साफ़ करते …
सभी अपना और अपने परिवार के लोगों के पेट की भूख को शांत के लिए किसी भी तरह का काम करते है तो मैं क्यों नहीं ?

ऐ छोटू जा प्लेट ले आ ! – इतने में मालिक की आवाज़ आ गयी।

अपने सहपाठी की झूठी प्लेट उठाने और उसे साफ़ करने में कोई दुःख नहीं हुआ ; क्योंकि यही मेरा काम है। लेकिन उसका मुझसे बात ना करना दिल को चोट कर गया।
अगर मैं आर्थिक रूप से कमज़ोर हूँ तो इसमें मेरी क्या गलती है।
माँ तो कहती हैं कि दोस्ती दिल से होती है लेकिन यहाँ तो लोग अपनी हैसियत के हिसाब से दोस्ती करते है।

कल फीस जमा करने के बारें में सोच – सोचकर कब नींद आ गयी पता ही नहीं चला।
अगली सुबह नाम कट जाने के डर से मेरा लक्ष्य स्कूल के बजाय पार्क में बीता।
रोज की तरह शाम को प्लेट धो ही रहा था कि दूर से सुनील स्कूल के अपने दो दोस्तों के साथ आते दिखा । और दूर से ही उनकी हसी मुझे नाम कटने का आभास करा रही थी इसीलिए वे मुझे ये खुशखबरी देने चले आ रहे थे।

तीनों आपस में मुझे एकदम से नज़र अंदाज़ करते हुए सिर्फ स्कूल की बात करते हुए ठहाका लगाकर ज़ोर – ज़ोर से हसे जा रहे थे। इन लोग को थोड़ी सी भी शर्म नहीं आ रही है कि इनके दोस्त का जिसका स्कूल की फीस ना भर पाने की वजह से नाम कट गया है और अपने परिवार की रोज़ी रोटी के लिए यहां बैठकर बर्तन माँझ रहा है। और ये उसका दुःख बाटने के बजाय उसके घाव पर नमक छिड़क रहे है।
आज इस आठ साल के बच्चे ने भी अपना आपा खो दिया। लेकिन उसको जुबान पर ना लाते हुए दुःख को मन ही मन पी गया। उनकी एक – एक हसी उसके आखों से आँसुओ की धरा बहाये जा रही थी।

ऐ छोटू जा चाट दे आ बाबू लोग को !
मैं एक छोटी थाली में चार प्लेट चाट लिए उनके सामने एक हारे हुए खिलाड़ी की भांति खड़ा हो गया। तीनों एक मुस्कराहट के साथ अपने – अपने चाट ले लिए तभी बचे एक चाट को देखते हुए।
ये चाट किसको देना है ? – मैंने तीनो को एक आँसुओ से भरी निगाह से देखते हुए पूछा।
तीनों बिना कुछ बोले खाये जा रहे थे।
फिर मैंने वही बात दोहराई – लेकिन उसका भी कोई जवाब नहीं आया।
मालिक ये चौथा प्लेट किसको देना है ? – मालिक की तरफ इशारा करते हुए मुकेश ने पूछा।
बाबू लोग ये चौथा प्लेट किसको देना है ?

चाचा जी ये जो चौथा प्लेट ! हमारे जिगरी दोस्त को देना है।
तो बुलाओ उसको ! – चाट वाले ने बोला।
चाचा जी अगर आपकी आज्ञा हो तो ये प्लेट उसको देदें ।
अरे ! तुम्हारा दोस्त है इसमें मेरी आज्ञा क्या चाहिए ?
क्योंकि आपका छोटू ही वो है।

इतना सुनते ही मुकेश की आंखो ने कब दुःख के आंसू को ख़ुशी में बदल दिया पता ही नहीं चला। फिर सुनील अपने जेब से जमा की हुई फीस की कॉपी मुकेश के हाथों में देते हुए उसको गले लगा लिया और फिर तीनों ने एक दूसरे को गले लगा लिया। कब ये आँसुओ का सिलसिला दो आँखो से आठ आँखों में बदल गया कुछ पता ही नहीं चला।

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