उजाले की तलाश
मुकेश कुमार उभरते हुए कवि और कथाकार हैं ।भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी हैं ।
रामधन अपनी पत्नी बढकी के साथ पैदल चले जा रहा था. पैर की चप्पलें टूट गयीं थीं. कपड़े की रस्सी से बद्धी का काम चला रहा था. धूप से सड़क तप रही थी.पैर झुलसे जा रहे थे.दो बच्चे भी थे. एक सात बरस का दूसरा माँ की गोद में.
“बड़ी उम्मीदन से दिल्ली आयेन रहे हम लोग.ज़िंदगी म उजेरे की तलाश मा.” बढकी ने कहा.
“हाँ, आए तो यही उम्मीद से रहे.” राम धन धूप से बच्चे के ऊपर हाथ करते हुए चलता- बोला.
फिर एक लम्बी साँस ली-
”मुदा करोना दिल्ली के उजाले की असली तासीर देखाय दिहिसि”
सिर झुकाए चलते- चलते बढकी बोली-“हाँ,लेकिन अब तो गाँव मा ही उम्मीद है उजाले की.”