कबूतर की दास्तां –एक संस्मरण

 कबूतर की दास्तां –एक संस्मरण

कुणाल चंद्रा

हमलोग करनाल में कल्पना चावला गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज के टाइप ३ क्वाटर के ९ वीं मंजिल पर क्वाटर न. २५ में रहते हैं. हमलोगों को चिड़िया से खासे लगाव है. हमलोग सुन्दर अभिरुचि के लोग हैं और प्रकृति से प्रेम रखते हैं. क्वाटर के आस-पास कबूतर बहुतायत में पाए जाते हैं. जैसे घर तरफ गौरैया(खुद्बुदी) चिड़िया पाई जाती है. गर्मी के दिनों में तो शाम को जब दिन की गर्मी ढल जाती है, तब मेडिकल कॉलेज के चरों तरफ छज्जे पर सैकड़ों कबूतर पंक्तिबद्ध तरीके से बैठे हुए नजर आते है. प्रकृति की वह छटा निहारने लायक होती है. देखने से मन को तृप्ति होती है. वसंत ऋतु में आम के वृक्ष सुनहरी मंजरियों से लद जाते हैं और उस पर से कोयल एवं तोते की मधुर आवाज़ सुनाई देती है. पंक्षियों का गर्दन ऊँची कर विशेष भाव-भंगिमा के देखना, गर्दन को नीची कर दाना चुगना, पानी पीना एवं टेढ़ी कर शब्द सुनना आदि क्रियायों में जो सौन्दर्य है उसका अनुभव देख कर ही किया जा सकता है.
एक दिन हमलोग छत पर से एक बहुत ही सुन्दर सफ़ेद रंग का कबूतर पकड़कर अपने घर लाये. वह बहुत ही सुन्दर था. उसकी गर्दन पर जैसे फूल बने थे. किनारों पर थोड़ा नीली रंग के पंख थे. पंख के ऊपर स्याह रंग उसके खूबसूरती को चार-चाँद लगा देते. वह बहुत ही प्यारा लग रहा था. शरीर पर जैसे चित्र-विचित्र की चित्रकारी थी. ईश्वर के कलाकारी के आगे सब फेल है. हमलोगों ने उसके लिए गत्ते का डिब्बानुमा घोंसला बना दिया. वह उस घोंसला से निकलकर कमरे में खो जाता था. कभी सोफे, मेज के नीचे घुस जााता, कभी टीवी पर बैठ जाता, कभी सोफे पर अटखेलिया करने लगता

आसानी से हमारे घर पर रहने खाने लगा. हमलोग उसे देख कर खुश होते थे. वह हमलोगों के साथ घुल-मिल गया था. खाना तो वह अच्छे से खा लेता था. लेकिन गंदगी इधर-उधर फैला देता था. कभी-कभी ये भी लगता कि हमलोग उसके आजादी से खेल रहें हैं. इसी बीच एक और स्लेटी रंग का कबूतर लाया. मैंने उसे सफ़ेद कबूतर के साथ रख दिया. लेकिन दोनों साथ-साथ कुछ ज्यादा हुड़दंड करने लगे. घूम-घूमकर रागिनी अलापने लगे. कुछ दिन बाद हमने सलेटी रंग कबूतर को उड़ा दिया. फिर कुछ दिनों बाद ०१ जनवरी २०१८ को नववर्ष एवं अपने पिताजी के जन्म दिन पर सफ़ेद कबूतर सुबह को बालकनी में उड़ने के लिए रख दिया. कुछ देर तक तो वह इधर-उधर देखता रहा फिर  आज़ाद हो गया. कुछ देर तक उसे हमलोग देखते रहे और उसके साथ बिताये पल को याद करते रहे. वह करीब बीस दिनों तक हमलोगों के साथ रहा. अबतक हमलोग तीन-चार कबूतर बारी-बारी से पालकर उसे उड़ा चुके हैं.
कुछ दिनों बाद एक नर और एक मादा कबूतर बालकनी में आये. दोनों कबूतर इधर-उधर ताक-झांक करने लगे. कभी पर हिलाते, कभी फुदकने लगते. अपनी नन्ही सी चोच से कभी-कभी गुटर गूं की आवाज निकाल रहे थे. उनकी स्वच्छंदता बड़ी प्यारी जान पड़ती थी. हमलोग भी कुछ देर तक उनका थिरकना देखते रहे. फिर देखा कि वे वहां एक-एक तिनका लाकर घोंसला बनाने लगे. हमलोग ये सब देखकर खुश थे. कुछ दिनों में वे अपना घोंसला तैयार कर लिए और रहने लगे. फिर कुछ दिनों बाद उसने दो अंडे दिए. हमलोग अंडे को देखकर खुश हुए. हमारा बेेटा सोहम एवं बेटी सुकून अंडे को देखने जाने लगे. हमलोग भी कबूतर के लिए दाना-पानी रख देते थे. करीब दस दिनों तक वे अंडे का देखभाल करते रहे. फिर अचानक एक दिन जोर की आंधी एवं बर्षा आयी. कबूतर का आना बंद हो गया. हमलोग चिंतिति थे अंडे का क्या होगा?. शायद असमय ही अंडे के माँ-पिता किसी दुर्घटना के शिकार हो गए थे. धीरे-धीरे अंडे ख़राब हो गए.
फिर कुछ महीने बाद हमलोग अक्तूबर २०१८ में एक स्लेटी रंग का कबूतर अपने घर लाये. उसके पंख चमकदार स्याह रंग के थे. हमलोग १२ अक्तूबर शुक्रवार को उसे उड़ा देना चाह रहे थे. बच्चों को रविवार तक छुट्टी होने से मैंने सोचा कि रविवार को १४ अक्तूबर को उसे उड़ा देंगे. लेकिन ऐसा हो न सका और १३ अक्तूबर २०१८ को रात पौने दस बजे अचानक मेरे पिताजी हृदयाघात के चलते अपने निवास स्थान अमरपुरा में संसार को अलविदा कर दिए. हम दुःख और आत्मग्लानी से भर उठे. मेरी माँ बेचैन हो उठी, जब मेरे पिताजी की ह्रदयाघात से अचानक मृत्यु हो गई थी. उनकी देहावसान की पीड़ा ने हमें भीतर तक झकझोर दिया. मैंने जल्दी से उस कबूतर को बालकनी से उड़ा दिया और हमलोग घर के लिए रवाना हो गए.
फिर एक दिन दिसंबर २०१८ के शुरुआत में एक नर और एक मादा कबूतर बालकनी में आये. हमलोगों ने देखा कि वे वहां एक-एक तिनका लाकर घोंसला बनाने लगे. हमलोग ये सब देखकर खुश थे. कुछ दिनों में वे अपना घोंसला तैयार कर लिए और रहने लगे. फिर कुछ दिनों बाद उसने दो अंडे दिए. हमलोग अंडे को देखकर खुश हुए. हमारे बेटा सोहम एवं बेटी सुकून अंडे को देखने जाने लगे. हमलोग भी कबूतर के लिए दाना-पानी रख देते थे. करीब दस दिनों तक वे अंडे का देखभाल करते रहे. फिर नए साल के आगमन पर कबूतर के घर आई दो नन्ही परी. दोनों ही बच्चे बहुत प्यारे और नाजुक थे. कबूतर उसका भरपूर ख्याल रख रही थी. कबूतर बाहर से अपने गले में दाना भरकर लाती थी और अपने बच्चों को प्यार से खिलाती थी. अपनी माँ को आता देखकर बच्चे चूं-चूं की आवाज निकालने लगते थे. धीरे-धीरे बच्चे बड़े होने लगे. उनका कायाकल्प वैसा ही क्रमशः हो रहा था जैसे इल्ली से तितली का रूपांतरण होता है. समय ख़ुशी-ख़ुशी से बीत रहा था. कबूतर के बच्चे अब बाहर आकार बालकनी में खेलने लगे थे. उन छोटे बच्चे को छत के मुंडेर पर खेलता देखकर मन बाग-बाग हो जाता था. बीच-बीच में बच्चों के कबूतर माँ आती और उसके चोच में अपनी चोच डालकर भरपेट खाना खिला देती थी. लेकिन बच्चे आस-पास गंदगी फिला देते थे. मेरी पत्नी बच्चों के गंदगी साफ करने में व्यस्त रहती थी. एक दिन मेरी पत्नी बालकनी में गई तो देखती है कि कबूतर के कुछ पंख बिखरे हैं. हमलोग कुछ समझ पाते उससे पहले देखा कि मांस के कुछ लोथड़े भी पड़े हुए हैं. हमलोगों ने देखा कि कबूतर के एक ही बच्ची घोसला में है. समझते देर न लगी की कबूतर के एक बच्ची को किसी दुष्ट ने मरकर खा गया है. हमलोगों को चमगादर पर शक हो रहा था क्योंकि पास के पेड़ पर कई चमगादर भी रहते थे. हमलोग शोक और असमंजस में डूब गए थे.
अब हम कबूतर दुसरे बच्चे का अच्छे से ख्याल रखने लगे थे. करीब एक हफ्ते तक सब ठीक-ठाक रहा. ३१ जनवरी २०१९ की रात करीब पौने दस बजे जब हमलोग टीवी देख रहे थे कि अचानक बालकनी तरफ से कुछ आवाज आने लगी. हमलोग घबरा गए. आशंका हुई को जरुर कबूतर की बच्ची को कोई मारने आया है. मेरी पत्नी जल्दी से खिड़की के परदे खोल दी. मैं बालकनी के दरवाजे को खोलने के लिए दौरकर भागा. मेरी पत्नी ने देखा कि एक बड़ा सा उल्लू कबूतर की बच्ची को मरने का प्रयास कर रहा है. मेरी पत्नी की आँखे जैसे उल्लू की बड़ी-बड़ी आँखों से टकरा गई हो. मेरी पत्नी जोर से चिल्लाई, ” कबूतर को उल्लू मार रहा है.” रौशनी एवं हमलोगों की आवाज से उल्लू घबरा कर भाग गया. लेकिन उसके मुंह लहू लग गई. बच्ची को घायल कर दिया था. अब हमोगों को समझते देर न लगी की पहले बच्चे को भी उल्लू ने ही मरकर खा गया. हमलोग डर गए थे. अब रोज रात को जब कबूतर की माँ बच्चे को खाना खिला लेती थी तब हमलोग बालकनी का चिक बंद कर देते थे. कुछ दिनों उसकी माँ रात में बहार ही रह रही थी. बच्ची अब डरी-डरी सी रहने लगी थी. लेकिन उल्लू के दुष्ट नजर हम बच्ची को ज्यादा दिन तक नहीं बचा सके. २ फ़रवरी २०१९ की शाम हम पिताजी की जीवनी टाइप करने में व्यस्त थे. मेरी पत्नी खाना बनाने में व्यस्त थी. हमारे बच्चे टीवी देखने और खेलने व्यस्त थे. मैं टाइप करने के बाद उठा ही था कि मेरी पत्नी ने आवाज लगाई, ”बालकनी के चिक को बंद कर दीजिए और कबूतर को देख लीजिए.”
मैं बालकनी का दरवाजा खोलकर बालकनी तरफ गया और जो देखा उससे तो मेरा होश ही उड़ गया. नजारा बहुत ही भयावह था. कबूतर के बच्ची के चिथड़े-चिथड़े हो गए थे. हमलोग बहुत दुखी और आत्मग्लानी से भरपूर थे. हमलोग कबूतर के बच्ची का जान नहीं बचा सके. उस दिन मेरे बालकनी एवं मन में भूचाल आ गया. मैं भगवान और प्रकृति के नियम पर सवाल उठा रहा था. प्रकृति का ऐसा नियम क्यों है कि मजबूत जीव, कमजोर जीव को सताता, मारता और खाता है. माना की प्रकृति में जीव-जंतु और पौधों का संतुलन जरुरी है. लेकिन क्या ऐसा संभव नहीं था कि सभी को दो ही बच्चे एक मादा और एक नर होता. सभी प्राकृतिक मौत मरते. क्या बिना दुसरे को मारे जनसंख्या पर नियंत्रण नहीं हो सकता था एवं सभी शाकाहारी नहीं हो सकते थे. मनुष्य चाहे तो वे तो शाकाहारी हो सकते है. यही सब बातें रात भर घुमरता रहा. सुबह में जब कबूतर की बच्ची की माँ आई तो वे अपने बच्चे को नहीं पाकर ब्याकुल हो उठी. वह गुटर गूं गुटर गूं करके अपने बच्चे को खोजने लगी. जैसे वह रो-रोकर हमलोगों से पूछ रही हो, “ हमारी बच्ची को देखा है क्या?”
हमलोग बार-बार उसे बता रहे थे कि तुम्हारी बच्ची को एक उल्लू ने मरकर खा गया. लेकिन उसे विश्वास नहीं हो रहा था. शायद वो हमारी भाषा भी नहीं समझ पा रही थी. उसका दुःख हम समझ रहे थे लें हम कुछ नहीं कर पा रहे थे. उसकी आँखे अपनी बच्ची को तलाश रही थी, वे बेचैन थी. इसी तरह कबूतर कई दिनों तक मेरे बालकनी में आती रही. अपने बच्ची को ढूंढती और आवाज लगाती रही. वैसे तो हमलोग कबूतर के बच्चे को उल्लू से नहीं बचा सके. परन्तु हमलोग पक्षी-प्रकृति के विभिन्न रूप से अवगत जरुर हुए.

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