कौशल किशोर की कविताएँ


कवि, समीक्षक, संस्कृतिकर्मी व पत्रकार
जन्म: सुरेमनपुर (बलिया, उत्तर प्रदेश), 01 जनवरी 1954, स्कूल के प्रमाण पत्र में।
एफ – 3144, राजाजीपुरम, लखनऊ – 226017
मो – 8400208031
मेकेनिकल इंजीनियर। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी से मार्केटिंग प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त ।

‘युवालेखन’ (1972 से 74) ‘परिपत्र’ (1975 से 78) तथा ‘जन संस्कृति’ (1983 से 90) का संपादन। दैनिक जनसंदेश टाइम्स के साहित्यिक पृष्ठ ‘सृजन’ में संपादन सहयोग (2014 से 2017)।
संप्रति : लखनऊ से प्रकाशित त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘रेवान्त’ के प्रधान संपादक।
जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में प्रमुख तथा मंच के पहले राष्ट्रीय संगठन सचिव। वर्तमान में उत्तर प्रदेश के कार्यकारी अध्यक्ष और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष।

प्रकाशित कृतियां: दो कविता संग्रह ‘वह औरत नहीं महानद थी’ तथा ‘नयी शुरुआत’। कोरोना काल की कविताओं का महत्वपूर्ण संकलन ‘दर्द के काफ़िले’ का संपादन। वैचारिक व सांस्कृतिक लेखों का संग्रह ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ तथा ‘शहीद भगत सिंह और पाश – अंधियारे का उजाला’ प्रकाशित। कुछ कविताएं काव्य पुस्तकों में संकलित। 2015 के बाद की कविताओं का संकलन ‘उम्मीद चिन्गारी की तरह’ तथा समकालीन कविता पर आलोचना पुस्तक की पाण्डुलिपियां प्रकाशन के लिए तैयार। कुछ कविताओं का अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद।

टिप्पणी

कौशल किशोर की कविताओं का संग्रह तथा उनके रचनात्मक व एक्टिविस्ट व्यक्तित्व पर लम्बे समय से चर्चा होती रही है। सामाजिक व सांस्कृतिक संघर्षों में अत्यधिक सक्रिय होने की वजह अपने कविता संग्रह प्रकाशन के प्रति उदासीनता दिखती है। यही कारण है कि उनका पहला कविता संग्रह ‘वह औरत नहीं महानद थी’ उम्र के साठ पार कर जाने के बाद आया। यह संग्रह काफी चर्चित भी रहा। इनकी कविताओं पर अनेक आलोचकों आौर साहित्यकारों ने आलेख लिखे हैं। प्रसिद्ध कवि रामकुमार कृषक की टिप्पणी है ‘ प्रगतिशीलता कौशल किशोर की कविता का केंद्रीय जीवन मूल्य है। सामाजिकता उसकी परिधि, और संप्रेषण उसकी कलाधर्मिता का निकष। कविता के इस गुण-धर्म को युगीन जीवन-जटिलताओं के नाम पर अनदेखा नहीं किया जा सकता। परिवर्तन की आकांक्षा और रूढ़िभंजन इनकी कविता का सहज स्वभाव है। इस बात को हम कवि के रचनात्मक विस्तार में देख सकते हैं। ठहराव वहां नहीं हुआ करता। वह अपने भावबोध के साथ जो यात्रा करता है, वह सिर्फ उसी की नहीं हुआ करती, बल्कि एक व्यापक समाज उसके साथ चलता है।’ जाने-माने आलोचक सुशील कुमार का कहना है ‘कौशल किशोर के कवि की जनशक्ति के संघर्ष और द्वंद्व की पहचान से कविता की समकालीनता तय होती है। गोकि, जिस कवि में संघर्षशील जन और अपने समय की बुनियादी धड़कनें नहीं होतीं, उसे वर्तमान में रहते हुए भी समकालीन कवि नहीं कहा जा सकता। कवि जितना अधिक समकालिक होगा, वह उतना ही समय से आगे जाकर रचेगा। वह वर्तमान से जुड़ कर भविष्णुता का आख्यान रचेगा। इस दृष्टि से कौशल किशोर आज के एक महत्वपूर्ण कवि हैं। 1970 से, यानी लगभग पचास वर्षों के दीर्घ कविता-काल में उन्होंने अपनी कविताओं में इसी ‘समकाल’ का कथाक्रम रचा है और उसे लोकसौन्दर्य की उन आभाओं से दीप्त किया है, जो धूसर, धवल, काईदार और जीवनसंघर्षों के अनेकवर्णी लोकरंगों में विन्यस्त दिखती है।’

【बाबूजी के सपने】

बाबूजी कलम घिसते रहे
कागज पर
जिन्दगी भर
और चप्पल जमीन पर

वे रेलवे में किरानी थे
कहलाते थे बड़ा बाबू

उनकी औकात जितनी छोटी थी
सपने उतने ही बड़े थे
और उसमें मैं था, सिर्फ मैं
किसी शिखर पर
इंजीनियर से नीचे की बात
वे सोच ही नहीं पाते थे

ऐसे ही सपने थे बाबूजी के
जिसमें वे जीते थे
लोटते-पोटते थे
पर वे रेल-प्रशासन को
अन्यायी से कम नहीं समझते
उनकी आंखों पर चश्मे का
ग्लास दिन-दिन मोटा होता जाता
पर पगार इतनी पतली
कि जिन्दगी उसी में अड़स जाती
इसीलिए जब भी मजदूरों का आंदोलन होता
पगार बढ़ाने के लिए
हड़ताल होती
‘जिन्दाबाद-मुर्दाबाद’ करते
वे अक्सर देखे जाते
उनके कंधे पर शान से लहराता
यूनियन का झण्डा
लाल झण्डा!

एक वक्त ऐसा भी आया
जब सरकार ने छात्रों की
बेइन्तहां फीस बढ़ा दी
फिर क्या ?
फूट पड़ा छात्र आंदोलन
मैं आंदोलनकारी बाप का बेटा
कैसे खामोश रहता
कूद पड़ा
मैं भी करने लगा ‘जिंदाबाद-मुर्दाबाद’
मेरे कंधे पर भी लहरा उठा झण्डा
छात्रों के प्रतिरोध का झण्डा!

बाबूजी की प्रतिक्रिया स्तब्ध कर देने वाली थी
आव न देखा ताव
वे टूट पड़े मेरे कंधे पर लहरा रहे झण्डे पर
चिद्दी चिद्दी कर डाली
वे कांप रहे थे गुस्से में थर-थर
सब पर उतर रहा था
सबसे ज्यादा अम्मा पर
वे बड़बड़ाते रहे और कांपते रहे
वे कांपते रहे और बड़बड़ाते रहे

हमने देखा
उस दिन बाबूजी ने अन्न को हाथ नहीं लगाया
अकेले टहलते रहे छत पर
अपने अकेलेपन से बतियाते रहे
उनकी यह बेचैनी
शिखर से मेरे गिर जाने का था
या उनके अपने सपने के
असमय टूट जाने का था

वह अमावस्या की रात थी
बाबूजी मोतियों की जिस माला को गूंथ रहे थे
वह टूट कर बिखर चुकी थीं
मोतियां गुम हो गई थीं
उस अंधेरे में!
(1972 में लिखी)

【लौटना】

कवि केदारनाथ सिंह ने कहा –
‘जाना/हिन्दी की सबसे खौफनाक क्रिया है’

और लौटना ?

जीवन में इस तरह असंगत कि
मैं अपने गांव में खड़ा हूं
या जड़ से उखड़े वृक्ष की तरह
धरती पर पड़ा हूं

लौटा हूं
जैसे लौटती हैं चिड़िया
अपने घोसले में
मैं भी
लौटा हूं

चिड़िया को घोसला न मिले
वह क्या करेगी
पंख फड़फड़ायेगी
ची ची के शोर से आसमान को भर देगी
चोच मारेगी
अपने को लहूलुहान कर देगी

और क्या कर सकती है वह ?

मेरा लौटना उसी की तरह है
अन्तर बस इतना कि
वह सुबह गयी
लौटी शाम में
और मैं लौटा चालीस साल बाद

नदी बहते हुए
अपनी राह आने वाले अवरोध को
कूड़ा कचरा को
लगाती जाती है किनारे
मैं भी लग गया हूं किनारे

न गांव था ऐसा
न मैं रहा वैसा
सब हुआ ऐसा वैसा।

【जाना, लौटना और भटकना】

एक कवि को
जाना हिन्दी की
सबसे खौफनाक क्रिया लगे
फिर भी उसे जाना पड़े

दूसरे को लौटना
असंगत नजर आये
इस कदर कि
वह अपने गांव में खड़ा हो
इस दुस्वप्न के साथ कि
वह उखड़े वृछ की तरह
धरती पर पड़ा है

तीसरे को कदम कदम पर
चैराहे मिले
सही दिशा लुप्त हो
और भटकना नियति बन जाय

जाना, लौटना और भटकना
त्रिभुज की
सीधी-सरल रेखाएं नहीं
जीवन की
उबड़-खाबड़ क्रियाएं हैं
हमारे समय का
सबसे बड़ा सत्य है।

【गाँव वापसी 】

लॉक डाउन के दिनों में
जब लाखों लोग लौट रहे हैं गांव
मुझे भी बहुत
याद आ रहा अपना गांव

शहर में रहते बरसों बीत गए
यहां अपनी पहचान को
बचाकर रखना
आसान नही
उसमें होती है माटी की सुगंध
और होता है अपना लोक
कोशिश यही रही कि
बनूं तो पेड़ बनूं
ठूंठ नहीं

यह जिंदगी की आपाधापी है
बरस पर बरस बीत गये
मैं नहीं जा पाया गांव
भला हो नींद का और सपने का
जहां अक्सर पहुंच जाता हूं गांव

यह भी है बहुत खूब
कि जागते कभी गांव न जा पाया
और सपने में
कभी गांव से लौट न पाया

गांव से आती रहीं खबरें
दुविधा से घेरती रहीं खबरें
जैसे जब मैंने सोचा
जाने को तैयार हुआ
खेत के बिक जाने की
खबर आयी
और पांव वहीं ठिठक गए

जाता तो क्या
यह नहीं समझा जाता
कि मैं पहुंचा हूं अपना हिस्सा लेने

इसी तरह की खबरें आती रही हैं
कभी बाग के बिक जाने की
तो कभी बगीचे के
वह आखिरी खबर थी
कि घर भी
रामपूजन सोनार के हाथ बेच
सभी चले गए शहर
यह खबरों के
सिलसिले का ही नही
आस की अन्तिम डोर के
टूटने की खबर थी

मैंने कभी नहीं चाहा
खेत-बघार, बाग-बगीचा
माल-मवेशी, घर-दुआर
उनमें अपना हिस्सा
यही सोचता रहा कि
अपने जांगर से
जो पाया, बना पाया
वही अपना है,
उसी पर अधिकर है मेरा
इससे अधिक कुछ नहीं

क्या पेड़ का धरती से अलग
कोई अस्तित्व हो सकता है
यही रिश्ता है मेरा
वहां मेरा बचपन है, उसकी किलकारियां हैं
मेरी हंसी है, रुलाई है, तरुणाई है
बाबा और दादी का इंतजार है
अम्मा और बाबूजी का प्यार है
वहां एक दुनिया है
जिसने मुझे
कविता की तरह रचा है

अब वहां मेरा कुछ भी नहीं है
बस बचा है मेरे लिए तो सिर्फ गांव का नाम
कोई पूछता भी है
तो बताने से हिचकता हूं, झिझकता हूं
पहचान भी दिन-दिन घिस रही है
वह धुंधली होती जा रही है

यह संकट की घड़ी है
देश लाॅक डाउन में है
लोग लौट रहे हैं
अपने गांव की ओर
सोचता हूं
इस संकट से
मुझे दो-चार होना पड़ता
लौटने वालों की तरह
मुझे भी लौटना होता

क्या होता मेरा ?

न शहर होता, न गांव होता
कहां होता मेरा बसेरा?

【ठेंगे से…..】

आओ नाचे, गायें
मुंह न लटकायें, कमर हिलायें
डांस करें
वह कहती है
और लगती है गाने कि
आओ डांस करें,
थोड़ा रोमांस करें

मैं कहता हूं
अभी इसका समय नहीं है
वह मुंह बिचकाती है
हूं, समय कभी किसी का
नहीं होता
उसे अपने अनुसार
ढालना होता है, जीना होता है

मैं समझाता हूं
यह लाक डाउन का समय है
सब घरों में बन्द हैं
बंद रहना ही जीवन है

ठेंगे से, मैं तो
सदियों से बन्द रही हूं
नहीं स्वीकारती
यह मेरा जीवन है
चाहे अकेले उड़ूं या तुम्हारे साथ या कोई और हो
या चाहे न उड़ूं

यह भी तो गिरफ्तार होना है
अपने मन के पिंजड़े में

नहीं, नहीं, मुक्त होना है
उस अभिशाप से
जिसे रोज-रोज नये विशेषण से सुसज्जित करते हो

देखता हूं
उसके चेहरे पर खौफ नहीं
न अन्दर का, न बाहर का
उसके डैने खुल गये थे।

7 Comments

  • प्रतिरोध के बहुत से कवि शाब्दिक प्रतिरोध तक सीमित रहते हैं। ज़मीनी संघर्ष की उनकी कूवत नहीं होती। या फ़िर वे इसे समय या ऊर्जा का अपव्यय समझते हैं। इस समय और ऊर्जा का “सदुपयोग” वे सोफ़े पर बैठकर कुछ कविताएँ लिखने में कर लेना चाहते हैं, कि वे साहित्य में अमर हो जाएँ। कौशल जी ऐसे “कवियों” के लिए एक मिसाल हैं। यहाँ प्रस्तुत कविताएँ उनके “काव्य-मूल्य” को स्थापित करने के लिए पर्याप्त हैं।ऐसी संवेदनापूर्ण क्रान्तिकारी कविताएँ वे बीस वर्ष की उम्र से लिख रहे हैं। फ़िर भी अब तक चंद और क़िताबों के अलावा कविता संग्रह मात्र दो ही आए हैं। कारण सिर्फ़ यह कि एक इंजीनियर की नौकरी में रहते हुए भी लगातार वे कामगारों के हित में संघर्षरत रहे। इसका बहुत सा खामियाज़ा उन्हें भुगतना पड़ा, मगर वे पीछे नहीं हटे। लगातार छपना और प्रसिद्धी कभी भी उनकी प्राथमिकता नहीं रही। मैं कौशल जी को व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता, किंतु साहित्य और कामगार समाज के प्रति उनके समग्र योगदान को जानता हूँ। उस आधार पर ही मैं यह कह रहा हूँ। बहरहाल यहाँ प्रकाशित धीर-गंभीर, संवेदनापूर्ण एवं क्रांतिकारी कविताओं के लिए कौशल जी को हार्दिक बधाई …. और परिवर्तन वेब पेज का भी आभार।

    • शुक्रिया प्रशान्त जी। आपकी टिप्पणी एक कवि के लिए धरोहर है। मेरे लिए कविता जीवन की पुनर्रचना के साथ जीवन की आलोचना है। आप स्वयं अच्छे कवि हैं। आपकी सृजनात्मकता की शुभकामनाएं।

  • शुक्रिया प्रशान्त जी। आपकी टिप्पणी एक कवि के लिए धरोहर है। मेरे लिए कविता जीवन की पुनर्रचना के साथ जीवन की आलोचना है। आप स्वयं अच्छे कवि हैं। आपकी सृजनात्मकता की शुभकामनाएं।

  • आपका सृजन ठिठक कर मनन करने पर मजबूर कर देता है।
    अत्यन्त प्रभावी व प्रेरक ।
    आभार ।

  • Bhiya bahut hi sunder or dil ko chune wali racna likhi hai apne. Aap ese hi aage badhte jay.

    • शुक्रिया मनीषा।

  • शुक्रिया राजवंत राज जी।

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