गुड बॉयज़
कोलकता की रचना चौधरी उभरती हुई रचनाकार हैं ।इनकी रचनाएँ कई कविता संग्रहों में प्रकाशित हो चुकी हैं । साझा उपन्यास, ज़िन्दगी हैंडल हो जाएगी , का सहसंपादन भी कर चुकी हैं ।
उछलता, कूदता और थोड़ा बेपरवाही से भरा छः साल का “प्रथम” यानी “पृथू” अपने मम्मी पापा (नलिनी-जतिन) के साथ काउंसलर के कमरे दाखिल हुआ। काउंसलर उसे देखते ही मुस्कुराए। लेकिन पृथू ने ,उन्हें या तो देखा नहीं या फिर नज़रंदाज़ कर दिया। अपने मम्मी पापा के साथ काउंसलर के सामने वाले सोफे पर पांच मिनट मुश्किल से बैठने के बाद ही पृथू ने उस खूबसूरत से कमरे में इधर उधर नज़रें दौड़ाना शुरू किया। एक कोने में उसे एक नीची सी टेबल और उसके पास रखी चेयर्स नज़र आईं। वो पास गया तो टेबल पर कुछ प्लेन पेपर्स और कलर्स रखे थे। उसने झट से एक पेपर उठा लिया और उसे फाड़कर इधर उधर बिखेरने लगा। उसकी हरकतें देखते ही नलिनी ने जोर से डांटा…. “पृथू ! क्या तरीका है? ऐसे करते हैं गुड बॉयज़? चलो इधर आकर बैठो।”
फिर वो काउंसेलर की तरफ मुखातिब होते हुए बोली.. “देखिए सर, यही प्रॉब्लम है इसकी। सिखा सिखाकर थक गयी हूँ लेकिन कोई मैनर नहीं। इसकी परवरिश को लेकर हम दोनों ही बहुत जागरूक हैं लेकिन फिर भी इसे पता नहीं क्या हो गया है, अजीब सा व्यवहार करता है।
काउंसलर ने और विस्तार में पूरी बात जाननी चाही तो नलिनी और जतिन अपनी परफेक्ट पेरेंटिंग और पृथू के प्रति अपने कंसर्न के रेफेरेंस में अपने सारे एफर्ट्स बताने लगे। बीच बीच मे पृथू के अनुशासनहीन रवैये पर उसे टोकते भी रहे। उनकी बातों का सार ये था कि पृथू को जितना भी पोषण ज़रूरी है उसे समयानुसार खिलाने की कोशिश करती है नलिनी, फ्लेवर बदलकर भी कोशिश करती है खाने की चीज़ों का लेकिन फिर भी बिना थप्पड़ खाये या बिना अपने पसंदीदा कार्टून देखे वो कुछ भी नहीं खाता। बारी बारी से गिटार, डांस, स्वीमिंग की एक्स्ट्रा क्लासेज कराकर देख लिया लेकिन किसी मे भी इंटरेस्ट नहीं उसे। पढ़ाई के लिये अच्छा स्कूल, अच्छा ट्यूटर लगा रखा है, खुद जतिन और नलिनी भी पढ़ाते हैं ज़रूरत पड़ने पर लेकिन वो मन लगाकर पढ़ना ही नहीं चाहता। एक भी काम टाइम पर नहीं करता। कोई मेहमान आ जाएं घर तो उनसे भी ठीक से पेश नहीं आता। उसकी रूटीन में सबकुछ उपलब्ध करा रखा है जो कि उसके व्यक्तित्व और सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक है…. मगर फिर भी !!!!!
इतने में पृथू नलिनी के पास आया और पेपर वेट से नलिनी को ज़ोर से मार दिया। जतिन चिल्लाया… देखा डॉक्टर.. ऐसे ही रिएक्ट करता है ये, एक भी लक्षण इसमें गुड ब्वायज वाले हैं ही नहीं।
काउंसलर ने पृथू को अपने पास बुलाकर बिठाया और थोड़ा इधर उधर की सामान्य बातें करने के बाद पूछा “पृथू ! ऐसी क्या चीज़ है जो आपको मम्मी पापा की अच्छी लगती है?” थोड़ा सोचते हुए पृथू बोला… ” वो मेरी बहुत केअर करते हैं।” काउंसलर ने पुनः पूछा … ” आपको क्या चीज़ पसंद नहीं।”
इस बार पृथू के चेहरे पर थोड़ा गुस्सा और झल्लाहट थी । मगर वो चुप था। फिर कई बार पूछने पर वो बिफर पड़ा और बोला… “मुझे नहीं अच्छा लगता इनके साथ। हर वक़्त कभी ये करो, कभी वो करो। गुड ब्वायज़ ऐसे करते हैं। सुबह स्कूल, फिर एक्स्ट्रा क्लासेज, और फिर ट्यूटर। बीच बीच मे ज़बरदस्ती कुछ न कुछ खिलाते रहेंगे। एक भी बार मुझे चैन से नही बैठने देते। हर वक़्त बस कहेंगे कि तुम्हारे साथ के बच्चों को स्वीमिंग आती है तुम्हे क्यों नही आती है, तुम ठीक से क्यों नही सीखते। पार्टी में डांस क्यों नहीं करते तुम ? तुम ये नहीं खाते, वो नहीं खाते। स्ट्रांग कैसे बनोगे? अच्छे से व्यवहार नहीं करते। क्लास में अच्छी पोजीशन क्यों नहीं है तुम्हारी…..” इतना कहते कहते वो हो जोर जोर से रोने लगा था। काउंसलर एक टक उस नन्हे से बच्चे की व्यग्रता, अकुलाहट , बेचैनी और अवसाद को को उसकी आँखों से बहते आसुओं में पढ़ने की कोशिश करते रहे। उसकी सिसकियों में वो उसकी दबी घुटी चीखों को सुन पा रहे थे।
थोड़ी देर तक पूरा कमरा पृथू की सिसकियों और अवसाद से भर कर बोझिल हो चुका था। तभी जतिन थोड़ा नम लहजे में बोला … “पृथू बेटा! मम्मा पापा जो भी कर रहे हैं, वो आपके भले के लिए ही कर रहे हैं। आपको अच्छा इंसान बनाने के लिए ही कर रहे हैं। ” बीच मे ही पृथू चिल्लाया… ” मगर मुझे कुछ नहीं करना । मुझे कुछ भी करना पसंद नहीं। ” और एक बार फिर वो तेज आवाज में रोने लगा।
नलिनी और जतिन भी भावुक हो उसे चुप कराने लगे। उन्हें समझ नही आ रहा था कि आखिर वो कहाँ गलत हो रहे हैं।
थोड़ी देर बाद जब पृथू शान्त हुआ तो काउंसलर ने उसे अपने सहायक के साथ प्ले रूम में भेज दिया। और फिर नलिनी-जतिन की ओर मुखातिब होते हुए बोले…. “दरअसल! पृथू एकदम सामान्य बच्चा है। कोई मानसिक रोग नहीं उसे। लेकिन हां , ये आप लोगों की आदर्शवादिता और उसे परफेक्ट बनाने की कोशिश में उठाये गए एक – एक कदम ज़ंज़ीर की एक एक कड़ी बनकर उसे आपके मानकों पर आधारित आदर्श परवरिश की बेड़ियों में जकड़ते जा रहे हैं। और वो अवसादग्रस्त होता जा रहा है।
नलिनी और जतिन कुछ देर तक एक दूसरे की तरफ विस्मय और नम आंखों में कई प्रश्न लिए हुए देखते रहे। काउंसलर को समझ आ रही थी उनकी दशा। वो बोले… “देखिए, मैं आपकी स्थिति समझ रहा हूँ। लेकिन आप लोग अपने बच्चे को भी समझने की कोशिश करिए। उसकी उम्र अभी खुदसे उड़ना सीखकर संभावनाओं के अनंत आकाश में उड़ने की है। यूँ उसे अपने परफेक्शन के सांचे में फिट बिठाने के लिए बेड़ियों में जकड़ना उसके स्वाभाविक विकास को अवरुद्ध करेगा। हां माना कि उसे कुछ करना पसंद नहीं। लेकिन उसे आज़ाद रखकर देखिए। देखिए , वो क्या करता है, क्या करना चाहता है। कब खाना चाहता है, कब नहीं। यूँ ज़बरदस्ती उसपर अपनी ‘अच्छी परवरिश का बोझ’ न थोपिए। हर बच्चा अलग है। आपका बच्चा आपकी आदर्शवादिता में जकड़ा महसूस करता है। उसे स्वतंत्र रखकर देखिए। एक दिन वो खुद आकर बोलेगा कि उसे क्या चाहिए।”
अब तक नलिनी-जतिन को भी समझ आ चुका था कि मां बाप की भूमिका बच्चे को किसी सांचे में ढालने की नहीं बल्कि उसे इस काबिल बनाने की है कि वो अपने लिये सही आदर्श चुनकर उसके अनुरूप ढलने की कोशिश करे।