डॉ अर्चना टण्डन की कविताएँ

मुरादाबाद की डॉ अर्चना टंडन वैसे तो स्त्री रोग विशेषज्ञ हैं लेकिन समाज में व्याप्त रोगों को भी भलीभाँति पहचानती हैं और उनका इलाज़ करना चाहती हैं। स्त्री रोग के इलाज़ के लिए मेडिकल डिग्री है तो सामाजिक रोगों के लिए लेखन की कला । आप ,हिंदी एवं अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में लिखती हैं ।

【 बेशकीमती लिबास 】

जी करता है तुझे अपना कहना छोड़ दूं
फिर न कोई आशा न निराशा न आरज़ू 
ऐसा क्यूँ होता है कि आज भी 
मैं इन अपेक्षाओं से उभर नहीं पाती
आज़ाद होना चाह कर भी क्यूँ आज़ाद नहीं हो पाती
क्यूँ ये कशिश आज भी है  मन में
कि कहीं हम आज भी अधूरे हैं
क्यूँ अतृप्त सा ये एहसास है
क्यूँ ये आगोश की  तड़प और चाह  है
क्यूँ ये खुद को समझा पाने  की  कसक
तेरे अपना होने पर भी क्यूँ है ये हिचक
 क्यूँ मैं जुदा नहीं कर पाती वो अपनी तन  मन
 से भी ऊपर उठ कर  एक चाह की अपेक्षा
जीवन में सब कुछ पा कर भी एक अधूरेपन का एहसास क्यूँ है ?
सदा मुस्कुराते रहने पर भी कहीं भीतर ये तड़प क्यूँ है ?
लोग कहते हैं आत्मा लगाव नहीं रखती
ये तो शरीर   के लगाव हैं
जब आये हैं इस जहाँ में और शरीर  एक स्वरुप है
तो शरीर  से जुडी कुछ जिम्मेदारियां भी हैं
शरीर  से जुड़े कुछ रिश्ते भी हैं
कुछ दोस्त कुछ दुश्मन भी हैं
कुछ अपने कुछ पराये भी हैं
आत्मा के न दोस्त हैं न दुश्मन
न अपने न पराये बस ईश्वर से मिलन की एक आस
तो मैं कहती हूँ आत्मा बनना आसान  हैं
शरीर बनना कठिन
कर्मनिष्ठ कर्मयोगी  बनना कठिन है
योगी बनना आसान
तो तड़प मिटाने  के दो ही साधन हैं
शरीर  जो पाया है रिश्ते जो पाए हैं उन्हें निभाओ
अलगाव व आगोश दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू हैं
इस शारीर के लिए बनाए गए  हिस्साए आरज़ू हैं
जब ये बेशकीमती लिबास पाया है
और इससे जुड़े  अँधेरे और रोशनी का हमसाया  है
तो क्यूँ फिर ये अधूरेपन का एहसास
क्यूँ ये तड़प क्यूँ ये बेसुकूनी का बाहुपाश
इस शारीर के धर्म निभाओ
जो भी मिले हाथ जोड़ शुक्रिया मनाओ
आत्मा का ये सफ़र जो  तृप्त  हो कर गुजारोगे 
तो दोबारा  तृप्त  होने वापस इस धरती पर न आओगे
उसमे विलीन होने के लिए ही तो है ये सफ़र
जो समझ गए तो कठिन नहीं फिर डगर

【असीमित निर्धारण 】

टापू घिरे हैं 
चहुँ ओर फैले
जल से, दलदल से
फिर भी सहारा दे रहे हैं
अनगिनत रूपों में विद्यमान
जीवन को

सदियां लग जाएँगी
ये जानने में कि
वो थल के डूबते हुए हिस्से हैं
या कि उभरते हुए

सांसारिक स्वरूप जो 
पल पल बदल रहा है
और सदियों से 
जो खेल चल रहा है
वो दीखता कहाँ है
कभी किसी को
चक्रवात, तूफान,भूकंप 
और धरती का फटना तो
क्षणिक उथल पुथल हैं
जिन्हें झेल वो फिर
जीवन को सहारा दे
एक नया स्वरूप धरता है

आज का टापू 
शायद कल का 
हिमशिखर है 
और सदियों बाद का
समुद्रतल

【 Let her bloom 】

Her dress, her drape
Her colour, her shape
Her built her gait
Are not the things
For anyone to comment

Love and Care will vanish
And the earth wilt away
If she is not allowed 
To blossom and bloom
Twirl and croon

For her to pour in her best
To put your qualms to rest
And make every home
And earth a paradise
Paying her respect
For all that she is
Is not such a big price

【 केंद्रित मन 】

कभी कलम बहती थी
विकेन्द्रित मन को केंद्रित 
करने के लिए
आज जब कोई ख्याल आता है
ढल नही पाता वो किसी भी रूप में
दो शब्द लिखती हूँ
और विश्लेषण में खो जाती हूँ
अनेकार्थता का बोध
रंगों का गुबार खड़ा कर देता है
जो बहा ले जाता है
गुबार को, घेराव को, अंतर्वेदना को
और ला देता है एक ठहराव
पर ये कहना गलत होगा
कि कविता अधूरी रह जाती है
या मिटा दी जाती है
वो तो अंदर ही अंदर कहीं 
झंकृत कर जाती है मन को
अलंकृत कर जाती है तन को
अस्पष्टता की स्पष्टता के बोध से

【क्या सही क्या गलत सोच का फेर है 】

कैसा अजब है ये दुनिया का आलम
हर इंसान क्यूँ है दूसरे को टोपी पहनाने में मगन 
सबको है खुद से वास्ता कम
दूसरों  की चिंता अधिकतम
पर ये सोच क्या हमें कहीं ले जाएगी

या फिर सीधे धरातल या उससे भी नीचे कहीं पहुँचाएगी 
क्यों हम अपने आप को नहीं है देख पाते
दूसरों को बुरा कह क्यों हैं हम सुकून पाते
क्या किसी का भी सच कभी कोई जान पाया

क्या आदमी खुद को ही कभी पहचान पाया
दूसरे की जिम्मेदारी उसकी खुद की है
ये जान कर भी हम क्यों दूसरो में रमे हैं
क्यूँ हम दूसरों को कम 
खुद को ज्यादा आंकने में लगे हैं 

जो जैसा बोएगा वैसा ही पाएगा
उस के कर्मों का फल दूसरा कभी न बाँट पाएगा
ये अगर है सच तो फिर अपने आप को धवल दिखाने के लिए
लोग क्यों है दूसरों  इस्तेमाल करते 
खुद को बचा दूसरों को फंसा क्यों है वो सुकून पाते 
हमें ये तय  करना होगा कि न कोई सही है न कोई गलत

अपने आप में सब सही हैं संभालने में अपनी सल्तनत
समय सबको सही और गलत बना देता है
मोहरों की तरह इस्तेमाल करवा देता है
आज जो सही है कल वो गलत होगा
 और आज जो गलत है  कल वो सही होगा
ये एक ऐसा मकड़जाल है जिससे हमें निकलना होगा
दूसरों से नहीं खुद से वास्ता रखना होगा

हम जो खुद को तलाशेंगे तो खुदको पाएंगे
दूसरों को तलाशेंगे तो भटक जाएंगे
नदी की तरह मदमस्त बहने में ही आनंद  है
अपने आप में रमने में तो परमानन्द  है
पार तो है  सबको लगना
रास्ता अपना है सबको खुद ही तय करना
तो फिर क्यों दें हम दूसरों की आँखों को  नमी
और ऐसा कर क्यों  करें पूरी  अपनी कमी
तो क्यों न हम अपना अपना सच  जियें
दूसरों  का सच हम क्यों जानने की कोशिश करें
यही सुकून का रास्ता है जो व्यथित होने  से बचाता  है
कोई सही नहीं और कोई गलत नहीं ये हमें  समझाता  है ।

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