डॉ मस्ताना के गीतिकाव्य में सार्वभौमिकता।
आलोचक :सन्तोष पटेल
अन्तरवृर्तिनिरूपमयी भाव सार्वभौमिकता से जुड़ा है। यानी ऐसा गीतिकाव्य जो व्यष्टि से समष्टि का भाव गेयता के साथ कांता सम्मत उपदेश वाली भावना से दूसरों तक सहजता से सम्प्रेषित हो। प्रो गमर ने गीतिकाव्य के बारे में लिखा है कि वह अन्तरवृर्तिनिरूपमयी कविता है जो व्यक्तिक अनुभूति से आगे बढ़ती है।
डॉ गोरख मस्ताना हिंदी-भोजपुरी के ऐसे कवि हैं जिनका निर्माण अभाव और संघर्षों की जमीन से होता है जैसा कि डॉ परमेश्वर भक्त कहते हैं, वे गीतों को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि ”गीत मानव जीवन के संघषों की कोख से उपजने वाली विधा है जो अपनी संक्षिप्तता, गेयता एवं प्रभविष्णु के कारण पाठकों और श्रोताओं को सदियों से आप्यायित और रस प्लावित करती रही हैं।”
डॉ गोरख प्रसाद मस्ताना के गीत ‘राग दरबारी’ में यह परिलक्षित है-
” आँसू की खेती होती है, मेरी चारदीवारी में,
जीवन को जीना पड़ता है जीने की लाचारी में।
( गीत मरते नहीं, हिंदी गीत सँग्रह, डॉ गोरख मस्ताना, 2014)
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में- गीतिकाव्य में व्यक्ति के सुख दुःख का चित्रण होने के साथ साथ अवस्था विशेष का भावमय चित्रण हो। ‘गीत मरते नहीं’ (2014) में डॉ मस्ताना की एक रचना ‘छाया’ धातव्य है-
मेरा क्या अस्तित्व मात्र एक छाया हूँ मैं,
सत्य कहूँ तो अपने लिए पराया हूँ मैं।
मरने को जीना कहता हूँ सच है क्या वह जानू मैं,
कौन पराया किसमें जाकर अपने को पहचानूँ मैं।। ( गीत मरते नहीं, पृष्ठ 84)
वहीं पाश्चात्य विद्वान बैन ने लिखा है कि गीतिकाव्य कवि का स्वलाप है यानि ‘स्व’ की अभिव्यक्ति है जिसको डॉ मस्ताना की कविता संपुष्ट करती है। उनकी एक कविता ‘ अपना सूरज’ उल्लेख करने योग्य है –
“मैने निज सूर्य उगाया है पर उससे प्रकाश कण लिया नहीं,
दुःख अभाव का विष है अपना, दूजे का अमृत पिया नहीं।” गीत मरते नहीं, पृष्ठ 105)
डॉ मस्ताना की रचनाएं गीत प्रधान हैं और उनमें विचारों की एकरूपता (uniformity)है साथ ही आत्मपरकता के लक्षण मौजूद हैं।
डॉ गोरख प्रसाद मस्ताना के इस को गीत पढ़ने के बाद मुझे प्रो एस टी लॉड की कही बात याद आती है-
उन्होंने गीतिकाव्य को हिंदी रहस्यवादी कवियों की भांति आध्यात्मिकता से संबंध माना है। वे Outlines of Aesthetics का अनुवाद करते लिखते हैं कि ‘… The lyric, a movement of fancy by which the spirit strives to life itself from limited to the universal….’ (P-99)
‘रेत में फुहार’ गीत कविता संग्रह में ‘ स्तुति क्यों?’ कविता में रहस्यवादी और आध्यात्मिकता की भाव दिखता है-
“मृत्यु अगर सत्य है साथी फिर जीवन की स्तुति क्या?
सशक्त कर जो पल समक्ष है बीते क्षण की स्मृति क्या?
वे जो सदा स्वर्ग के इच्छुक, डरते हैं पग पग पर
यथार्थवादी कहते कुछ भी, अपना नहीं यहां पर
जब कुछ नहीं यहाँ अपना तो, फिर सपनों से संगति क्या?
( रेत में फुहार, पृष्ठ 36)
संस्कृत के विद्वान कालीदास के शब्दों में – स्वरों का गठन जो मनोरंजक हो, गीत है परन्तु Methods and Materials of Literary Criticism में डॉ चार्ल्स मिल्स ने अपनी परिभाषा में काव्य के सभी विधाओं पर गीतिकाव्य को हावी कर दिया और उसे सर्वश्रेष्ठ स्वीकार करते हैं।(पृष्ठ 7)
ऐसी धारणा को और आगे ले जाते हुए हम आधुनिक हिंदी गीत के संदर्भ में अगर बात किया करें तो डॉ मस्ताना द्वारा लिखित हिंदी गीतों का जो संग्रह है यथा, ‘गीत मरते नहीं’ और ‘रेत में फुहार’ का अवलोकन करें तो हमें प्रो श्यामनंदन किशोर की एक बात याद आती है जो ‘आधुनिक हिंदी गीतिकाव्य स्वरूप और विकास’ नामक पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं। उसी भांति डॉ गोरख प्रसाद मस्ताना के गीत अधिक व्यापक पृष्ठभूमि पर रचे गए हैं। उनके गीत अधिक विस्तृत हैं। उनमें बहुत अधिक विविधताएं हैं। उनमें सामाजिक, राजनीतिक, और सांस्कृतिक तत्वों की ग्राहिका शक्ति है। उनमें व्यक्तिकता का विस्फोट है और मानव- जीवन के अधिक रागात्मक स्तरों पर चित्रण है। प्रकृति के रूपरंग की इनके गीतों में अधिक सूक्ष्म लकीरें हैं और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की कसौटी पर डॉ मस्ताना गीतकार के रूप में बहुत अधिक खरा उतरते हैं।
छायावाद की प्रमुख कवयित्री महादेवी वर्मा गीतिकाव्य के बारे में कहती हैं कि “सुख दुख भाववेशी अवस्था विशेष का, गिने-चुने शब्दों में स्वर साधना के उपयुक्त चित्रण कर देना ही गीत है और इस आधार पर मस्ताना के गीत खरे उतरते हैं।”
आधुनिक दार्शनिक हेगेल ने गीतिकाव्य के लिए दो आवश्यक शर्ते माना है –
1.गीतिकाव्य के पूरे छंद में सम्बद्धता हो।
2.कथन और घटना प्रभाव में त्वरित परिवर्तन की स्थिति हो।
इस शर्त के बरक्स हम देखते हैं कि भावुकता और प्रभाव की समान स्थिति का अटूट निर्वाह डॉ मस्ताना करते हैं जिसके कारण प्रभावान्विति क्षरित नहीं होती है, दूसरी बात वे नई बात कहकर इसे तुरंत हिस्से से जोड़ देते हैं इससे उत्पन्न कर प्रभाव को उत्कर्ष मिलता है और यही एक सफल गीतकार का कौशल है। उदाहरण देखें-
‘ वर्तमान के धुंधलेपन में कैद पड़े हैं लोग यहाँ
भविष्य की चिंतामय उलझन लाइलाज है रोग यहाँ।
किसने पढ़ी सुमन की पीड़ा, कितना घाव सहा उसने
मुझे डाल मत शोषक शव पर सौ सौ बार कहा उसने
उसकी अकथ वेदना को, कंटक ही कहते ढोंग यहाँ।
(धुंधला वर्तमान, अक्षर अक्षर बोलेगा, साझा सँग्रह में संकलित डॉ गोरख मस्ताना की कविता, सम्पादन- डॉ गोरख मस्ताना, पृष्ठ 25, 2019, नवजागरण प्रकाशन, 2019)
‘गीतिकाव्य’ नामक पुस्तक में डॉ रामखेलावन पांडे (पृष्ठ संख्या 26) में लिखते हैं कि व्यैक्तिक अनुभूति की संवेदनशील संगीतात्मक अभिव्यक्ति ही गीतिकाव्य है और गीतिकाव्य कवि के मन पर पड़ने वाले जीवन के एक पहलू के प्रभाव की सौंदर्यमय कलात्मक अभिव्यक्ति है। प्रस्तुत कविता में डॉ पांडे के दिए परिभाषा को विवेचित कर सकते हैं।
मस्ताना के गीतों में कविता के श्रेष्ठ गुण संगीतात्मकता का पुट है जिसे रॉबर्ट रीड भी कहता है कि कविता के श्रेष्ठ गुणों में ही संगीतात्मकता का समावेश किया और उसके व्यापक अर्थ में भाषा भाव विचार आदि से सम्बद्ध माना है।
Form in Modern Poerty में रीड लिखता है- “Words, their sound and even their very appearance, are, of course, everything to the poet;the sense of words have associations carrying the mind beyond sound to visual image and abstract idea.” (P. 45)
उपरोक्त विचारों के परिधि में डॉ मस्ताना के गीतों की विवेचना करें आवश्यक है। ‘भोर’ कविता को यहां उधृत करना समीचीन है-
भोर लिख रहा हूँ अंजोर लिख रहा हूँ
विहग वृंद विह्वल विभोर लिख रहा हूँ
जीवन के पन्नों पर आशा के रंग से
पलछिन का सुख भी पुरजोर लिख रहा हूं।
(गीत मरते नहीं, पृष्ठ 56)
प्रो देवशंकर नवीन गीतिकाव्य के बारे में कहते हैं कि ऐसी भावनात्मक अनुभूति की जिसमें संक्षिप्तता और मानवीय भावनाओं के रंग और गति हों। संक्षिप्तता इसका बड़ा ही आवश्यक बंधन है, गीतिकाव्यहै। डॉ मस्ताना के गीतों को पढ़ने के उपरांत प्रो नवीन की संकल्पना सिद्ध हो जाती हैं
पाश्चात्य विद्वान साहित्यकार रस्किन गीतिकाव्य के संदर्भ में कहते हैं -गीतिकाव्य निजी भावनाओं का प्रशासन होता है । सहज शुद्ध भाव स्वच्छंद कल्पना तर्क वाद और न्यायमूलकता से उच्च विचार,ये गीतिकाव्य के वास्तविक विशेषताएं हैं और इस आधार पर डॉ मस्तना के गीतों को अभिव्यक्त किया जाए तो हम पाते हैं की मस्ताना के गीतों में आत्म अभिव्यक्ति, विचारों की एकरूपता एवं संगीतात्मकता के आग्रह व्याप्त हैं जिसे डॉ रामकुमार वर्मा कहते हैं कि गीतिकाव्य की रचना आत्मभिव्यक्ति के दृष्टिकोण से ही होती है और उसमें विचारों की एकरूपता रहती है।
मस्ताना के गीतों की विशेषता है कि इसमें गेयता, संक्षिप्तता, आत्मभिव्यंजकता, अनुभूति प्रवणता, भावोच्छ्वास की सहजता, प्रभावान्विति, अंतर्निहित संगीतात्मकता और सशक्त भाषा शैली उपस्थित है इसलिए उनके गीतों को पढ़ने के बाद जाफ्राय की बात याद आती है कि आत्मनिष्ठा सहज आत्म प्रेरणा और भावावेश की तीव्रता ही गीतिकाव्य के स्वरूप को निर्धारित करती हैं। इस काव्य-रूप का एकमात्र उद्देश्य जीवन की आशा- निराशा, वेदना-आल्हाद, हर्ष-उन्माद, रहस्य आदि को उद्घाटित करना है। अमेरिका से प्रकाशित द्विभाषिक पत्रिका ‘सेतु’ के फरवरी अंक 2020 में डॉ गोरख मस्ताना का ललित गीत बहुत ही प्रभावशाली है-
पतझड़ मेरे नाम से लिख दे,बसंत अपने पाले रख
तम बयनामा कर दे मुझको,खुद सुरमयी उजाले रख
मेरा क्या मैं मरूं भले,मुस्कान से अपनी डंस दे
मेरा रहना क्या रहना बस,बांह से अपनी कस दे
छाले मेरे पांव में भर दे,स्वयं को सुमन हवाले रख
मेरे यौवन का अवसान दिवस हो,मुझे मुबारक
रूप तुम्हारा, चन्द्र ज्योत्सना का,पल छिन हो धारक
मेरे नाम झुर्रियां लिख,अपना सौंदर्य संभाले रख
तेरे नयन बान से घायल, होना लगता अच्छा
यहीं प्रेम का प्रत्यावर्तन,पाता है सुख सच्चा
मर मर जीते दिलवाले,उनपर ये भावनिराले रख
विहग भले मैं पर तू ही,मेरी उड़ान का पर हो
अपर भले मैं हो जाता, पर तू साक्षात सपर हो
भले थकूं मैं तू निज को नित,नव ऊर्जा में ढाले रख
वस्तुतः मस्ताना के गीतों का विश्लेषण करते समय आचार्य श्यामसुंदर दास की बात उधृत करना अपेक्षित है कि गीतिकाव्य में कवि अपनी अंतरात्मा में प्रवेश करता है और बाह्य जगत को अपने अंतःकरण में ले जाकर उसे अपने भावों से रंजीत करता है।
जीवन के सत्य पर अवलम्बित डॉ मस्ताना की एक रचना पर चिंतन करें। कहीं निराश होने की जरूरत नहीं पर सत्य तो सत्य है-
श्मसान में चिता की अग्नि गुनगुना रही
निज सुर में साधने को हर घड़ी बुला रही
जलते हुए शव का धुआं हवा संग बह रहा
हर घमंड का हिसाब है मुझी में कह रहा
सब कुछ नश्वर है छवि धुएं की बता रही।
जीर्ण-शीर्ण देह की यह,समापन का पर्व है
आत्मा परमात्मा के मिलन वाला गर्व है
आग भी चिंगारियों से अल्पना बना रही।
कल जो आसमान थे इसकी शरण में आ गये
थे विराट कल वे लघु बन यहीं समा गये
सबको आना है इसी गोद में बता रही।
जीवन यदि है निबंध, मौत महाकाव्य है
इसके अध्ययन से ही मुक्ति संभाव्य है
माटी मरघट की यही दर्शन समझा रही।
अंत में समकालीन काव्य धारा में जहाँ कविता का स्वरूप पूरी तरह बदलता जा रहा है फिर भी गीतिकाव्य का महत्व कम नहीं हुआ है क्योंकि इसमें अब भी संगीतात्मकता व्याप्त है। प्रसिद्ध आलोचक हंस कुमार तिवारी कहा करते थे कि कि गीतिकाव्य में वह गुण अभी नहीं आ पाया है न सम्वेदनीयता में, ना संगीतात्मकता में परन्तु डॉ गोरख प्रसाद मस्ताना गीतिकाव्य की यह अपेक्षा पूरा करते दिखते हैं।