दामिनी यादव की कविताएँ


  • प्रमुख कृतियां- अब तक तीन पुस्तकें स्वतंत्र रूप से प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें से ‘मादा ही नहीं मनुष्य भी’ स्त्री विमर्श पर आधारित है और दूसरी पुस्तक ‘समय से परे सरोकार’ समसामयिक विषयों पर केंद्रित है। तीसरी पुस्तक ‘ताल ठोक के’ कविता संग्रह है। इनके अतिरिक्त दो कविता संग्रहों में रचना प्रकाशित होने के अतिरिक्त संपादन में भी सक्रिय भूमिका रही। कुछ कविताएं साहित्य अकादमी, दिल्ली द्वारा प्रकाशित कविता संग्रह ‘कविता में दिल्ली’ में भी संग्रहीत हैं।
    सातवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तक ‘वितान’ में भी एक लेख सम्मिलित किया गया है।
    कार्य विवरण- हिंद पॉकेट बुक्स, मेरी संगिनी पत्रिका सहित देश के कई सम्मानित प्रकाशन संस्थानों के संपादकीय विभाग में विविध भूमिकाओं में अपनी सेवाएं दे चुकी हैं। कुछ समय तक आकाशवाणी दिल्ली से भी जुड़ी रहीं। डायमंड प्रकाशन समूह की पत्रिका गृहलक्ष्मी में बतौर वरिष्ठ सहायक संपादक कार्यरत रही हैं।
    डी डी नेशनल, ज़ी सलाम आदि चैनल्स पर आयोजित कई काव्य पाठों में हिस्सा ले चुकी हैं।
    साहित्य अकादमी, दिल्ली, विश्व पुस्तक मेला, दिल्ली, हरियाणा साहित्य सृजन महोत्सव, श्रीअचलेश्वर महादेव मंदिर फाउंडेशन, सोनभद्र, बनारस सहित देश-भर में आयोजित अनेक काव्य समारोहों में भाग लेती रही हैं।
    ज़ी सलाम पर इनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर आधारित पर एक साक्षात्कार प्रसारित हो चुका है।
    लेखन, संपादन, अनुवाद व काव्य पाठों में सक्रियता आदि फ़िलहाल की व्यस्तताएं हैं।
    संपर्क- damini2050@gmail.com
  • 【यूज़ एंड थ्रो वाला भगवान】
  • मैं कूड़े-कचरे के ढेर पर
  • पड़ा हुआ भगवान हूं
    मैं ही तो तुम्हारे मंदिर की
    बीती हुई शान हूं
    जिस के नाम पर कर देते हो तुम
    बेघर कितनों ही को
    देखो इस बेरंग खंडित मूर्ति को
    जिसमें देखा था मेरा अंश तुम्हीं ने
    फिर पुराना पड़ते ही ठुकराया तुम्हीं ने
    फेंक दिया मुझको कचरे के ढेर पे
    तुम्हीं से बदनाम-बेबस हुआ
    मैं वही उपेक्षित हुआ राम हूं …….
    मेरे मंदिरों में जो धागा तुमने बांधा था,
    थी वो श्रद्धा या सिर्फ़ स्वार्थ साधा था?
    मेरी इन्हीं मूर्तियों के आगे तुम करते रहे दंडवत जो,
    मुझ पर विश्वास था या कोरा पाखंड वो?
    मेरे रंग क्या फीके हुए, तुम्हारी भक्ति के रंग भी मिट गए,
    मेरी दया-इंसानियत के संदेश, धर्मों तक सिमट गए,
    तुमने बदली धर्म की परिभाषाएं, पर मैं बदनाम हूं,
    तुम्हीं से बदनाम-बेबस हुआ
    मैं वही उपेक्षित हुआ राम हूं…
    मेरे आदर्शों को न समझो, चाहे उन्हें न अपनाओ
    पर अपनी स्वार्थ-भरी परिभाषाओं में मुझे तो न बसाओ,
    ना बनाओ मेरी मूर्तियां, अगर उनकी परिणति विसर्जन है
    सीख सको तो सीखो मेरे जीवन से, वही मेरी भक्ति का अर्जन है
    वनों में न भटको मुझ सा, पर मेरी दुनिया को जंगल न बनाओ
    मेरे भक्तों तुमसे रहम चाहता मैं तुम्हारा भगवान हूं,
    मैं ही तो तुम्हारे मंदिरों की बीती हुई शान हूं
  • 【लॉकडाउन में ठहरे पल 】
  • किसकी ख़ैर मांगूं
    किसके लिए दुआ करूं
    सभी तो अपने हैं,
    किसके पोंछूं आंसू
    किसे हौसला दूं
    सभी के टूटे सपने हैं,
    जो चुभ रहे हैं पांवों में
    जिन्होंने किया है लहलुहान
    वो इंसानियत की किंरचें हैं,
    मेरे अपनो, संभाल लो ख़ुद को
    हम भी टूटे टूटे हैं
    हम भी बिखरे बिखरे हैं…
  • 【अपने वर्तमान के नाम…】
    जब बोटी बेच के भी रोटी नहीं मिलती
    और बिकने को तैयार लोगों को कीमत नहीं मिलती
    उस समय से डर जाना चाहिए,
    जब मुर्दों को कांधा देते ज़िंदा लाशें हैं चलती
    और किसी की आंख नहीं उमड़ती
    उस समय से डर जाना चाहिए,
    जब किसी की थाली के घी में
    ऊपर-ऊपर किसी का लहू तैरता हो
    और फिर भी कोई कौर किसी गले में न अटकता हो
    उस समय से डर जाना चाहिए,
    जब ओलों से चपटी हुई फसल पर
    कोई किसान हो शव सा लेटा
    और कोई बादल को तकता
    चाय का प्याला और कविता लिये हो बैठा
    उस समय से डर जाना चाहिए,
    जब बचाने वालों के हाथ कवच ही न हों
    और मारने वालों के पास वजह तक न हो
    उस समय से डर जाना चाहिए,
    जब नन्हीं लाशों की छायाएं हों विकराल
    और किलकारियों से खौफ खाए संसार
    उस समय से डर जाना चाहिए,
    उन हालात को भी अपने हाल पे
    तरस खाना चाहिए,
    उस समय से डर जाना चाहिए…
  • 【उदास मौसम के नाम】
    मौसम नहीं है मुस्कुराहटों का
    फिर भी मुस्कुराओ,
    कि मुस्कुराने से
    उदास मौसम भी मुस्कुराते हैं,
    हालात बन जाते हैं ज़मीं
    और अश्कों की झड़ी बारिश
    फिर इन्हीं में से
    नई बहारों के पैग़ाम आते हैं,
    ये जो आज बीतता ही नहीं
    कल ये भी बीते कल बन जाएंगे,
    मुस्कुराओ की मुस्कुराने से
    उदासियों के सफर भी
    जल्दी कट जाते हैं।
  • 【घर को वापसी 】
    पंछियों को घरौंदों में फिर से बसा दो
    मौला मेरी दुनिया का सुकून लौटा दो
    वो लोग जो सड़कों पे हैं, मजबूर बहुत हैं,
    वो अपने आशियानों से दूर बहुत हैं,
    उनके थके कदमों को छालों से बचा लो,
    मौला मेरी दुनिया का सुकून लौटा दो,
    दो वक्त की रोटी ने हर वक्त तरसाया,
    जब ही तो मजबूरी में पांव आगे बढ़ाया,
    अधर में लटके पांवों को ज़मीं पे टिका दो,
    मौला मेरी दुनिया का सुकून लौटा दो,
    ज़िंदा रहूं तो मुझको मेरे वतन की हवा दो,
    मरना है जो लिखा तो मेरी ज़मीन ओढ़ा दो,
    अभी हूं लापता मुझे मेरा ही पता दो
    मौला मेरी दुनिया का सुकून लौटा दो…

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