दिनेश कुमार सिंह की कविताएं

【कुछ न कुछ टूट ही जाता है..】

कुछ न टूटे ये असम्भव है
कुछ न कुछ रोज टूटना
लाज़िमी है
सोचता हूँ,लिखता हूं
पढ़कर फाड़ देता हूँ
उकड़ू बैठ जाता हूं
मन मे एक नया भाव आता है
फिर कुछ न कुछ टूट ही जाता है!

जिंदगी क्या है आग धुंआ
या पानी
या फिर भूख प्यास
या झूठ की कहानी
सोचते सोचते जीने
का सामान जुटाने,
बाजार चला जाता हूं
फिर कुछ न कुछ टूट ही जाता है!

सीधे चलते चलते
पगडंडी छूट जाती
आ खड़ा होता हूं
चौराहे पर
मन सोचने लगता है
अब किधर जाऊ
लाल,पीली,हरी
बत्ती में उलझ जाता हूं
फिर कुछ न कुछ टूट ही जाता है!

ये कर लूं, वो कर लूं
ये मेरा है, वो मेरा है
जीवन की उधेड़बुन में
न जाने क्या क्या छूट जाता है
फिर कुछ न कुछ टूट ही जाता है!

घर परिवार खेत, खलिहान
धन वैभव,बड़े मकान
ये सब सुख के साथी है
दुख में केवल अपना
आत्मबल ही काम आता है
फिर कुछ न कुछ टूट ही जाता है।

【गूंगे बहरे हो या बिके हुए..】

मैं ढूंढ़ता हूं खबर अखबार में ,
कि फंदे पर लटका किसान
क्या भुगत रहा था ?
आखिर
मजदूर की पत्नी से
उसकी बेटी ने
ऐसा क्या मांग लिया था?
जो वह कूद गई कुंए में,
बेटी की बाइट और कवरेज दिखाओ,
जिसमें वह बता रही हो
मां से अंतिम संवाद!

सड़क पर किसानों की
बेरोज़गारों की आवाज उठाते,
क्रांतिकारियों से तुम्हारी मुलाकात नहीं होती क्या?
या तुम अनाज के अलावा कुछ और खाते हो,
यह सब जो तुम देखकर
खामोश और गैर-जिम्मेदार बने बैठे हो,
तुम्हारी नसों में बहते लहू को
सफेद कर चुका है शायद?

पलायन करते गरीब
पानी के लिए कोसो भागती महिलाये
बीमार माँ बाप को छोड़ कर
दो हजार कि.मी. दूर
रोजी के लिए गये युवकों की कहानियां
दिखा सकते हो क्या?

किसी कुष्ठ पीड़ित की व्यथा बताने
आदिवासी छात्रावास में नर्क भुगत रहे बच्चों,
बंधुआ मजदूरों तक
कभी क्यों नहीं पहुंचते तुम…?
वनवासियों की लुप्त होती भाषाओं
और खत्म होती संस्कृति पर
रपट क्यों नहीं आती
तुम्हारे अखबारों और चैनलों में?

नहीं…तुम पत्रकार नहीं हो
तुम भी मजदूर हो
जो दिहाड़ी पर गया है
परिवार की रोटी कमाने,
तुम कभी किसान नहीं हो सकते
बेरोज़गार नही हो सकते
ढीठ हो तुम सब
गूंगे बहरे हो
या फिर बिके हुए,
शायद मरने का साहस नहीं तुममें,
किसान और बेरोज़गार की तरह?

【 देखे न थे.】

मन भ्रमित,भटके चरण,
ऐसे प्यासे अधर देखे न थे!

हर युवा के स्वप्न्न धुंधले,
ऐसे तन झुके देखे न थे!

हँसते मुसकराते थे सभी,
ऐसे सूखे नयन देखे न थे!

झूठ को सच मान बैठे रहे,
ऐसे छली कभी देखे न थे!

हर तरह फैली है लाचारी,
ऐसे दिन कभी देखे न थे!

धर्म को धंधा बना बैठे है,
ऐसे ढोंगी कभी देखे न थे !

दरख्तों के साये में धूप लगती है,
ऐसे मौसम कभी देखे न थे!

चारो तरफ भूख पसरी है,
ऐसे आलम कभी देखे न थे!

हर चेहरे पर छलकता है डर,
ऐसे निगेहबान कभी देखे न थे !

हर तरफ फैला ख़ौफ़ का सन्नाटा,
इससे अच्छे दिन कभी देखे न थे!

【आवाजे फिर भी उठेंगी..】

तुमको जर्रे-जर्रे का दरकना नजर नहीं आता
दर्द का हद से गुजरना समझ नहीं आता
अब तो बेख़ौफ लोग कहते हैं सरकार
तुम्हारा चेहरा, उन्हें नहीं भाता!
हम सबने कुछ और समझा था
पर क्या निकले?
छलावे वाला रूप धरकर
लोकतंत्र के हरण की योजना बना डाली!

लेकिन यह भी सच है कि आवाजें फिर भी उठती रहेंगीं,
जब तक कि सब सुधर न जाये।
पीड़ितों, वंचितों, प्रपंच के शिकार हुए लोगों की चीखें,
बड़ी ताकतवर होती हैं
वह नए रूप में आकर
तुमसे अपना हिसाब अवश्य करेंगीं।

【 पीछे मुड़कर .】

चलते-चलते अचानक पीछे मुड़कर देखना जरूरी है,
तब पता चलता है
कुछ “यादें” हंस रही है
कुछ रिश्ते “दम” तोड़ रहे है
मन को अच्छा लगता है,
अतीत की सुनहरी यादों में भटकना,
कुछ कड़वे मीठे अनुभव
सच्ची झूठी बाते,
बाल मन की उल्टी सीधी
हरकते,
अल्हड़ पन की नादानियां
जवानी का संघर्ष,
अपनो के उलाहने
यही तो सब पूंजी है
जिंदगी की,
आगे बढ़ना जरूरी है
पर वर्तमान में जीना
और पीछे मुड़कर देखना
बहुत जरूरी है!
अंदाजा लग जाता है,
क्या खोया क्या पाया?
जिंदगी का का हिसाब किताब रखना बहुत
आसान हो जाता है।

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