दुनिया का सबसे बड़ा भारतीय संविधान,लिखित,अलिखित नियम,भ्र्ष्टाचार और हमारा समाज

रजनीश संतोष
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समाज दो तरह के नियमों से चलता है एक लिखित नियम और दूसरे अलिखित नियम।
दुनिया में अलिखित नियम पहले आए और लिखित नियम (संविधान के रूप में या किन्ही अन्य रूप में ) बहुत बाद में आए।
किसी भी समाज की सामूहिक चेतना, विवेक, संवेदनशीलता, लोकतांत्रिक सोच आदि को जांचने के कई पैमाने होंगे लेकिन लिखित और अलिखित कानूनों के बीच का अनुपात और उनका प्रकार मेरी नज़र में सबसे प्रभावी तरीका है।
जो समाज जितना परिपक्व होता है उसे उतने कम और उदार लिखित नियमों की ज़रुरत पड़ती है। जो समाज जितना अपरिपक्व और अराजक होता है उसके लिए उतने ज़्यादा और कठोर लिखित नियमों की आवश्यकता होती है। एक परिपक्व समाज के अलिखित कानून संवेदनात्मक/लोकतांत्रिक/तार्किक होते हैं और उनका पालन भी बहुत ही सहजता के साथ होता है।
‘जॉर्ज सेबिलिस’ और ‘डोमिनिक जे. नार्डी’ ने OECD (आर्गेनाईजेशन फॉर इकनोमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेन्ट) देशों के संविधानों की लम्बाई (शब्द संख्या के आधार पर ) और GDP एवं भ्रष्टाचार के बीच संबंधों को दर्शाने वाले अपने तथ्यात्मक और तार्किक लेख में दो निष्कर्ष मोटे तौर पर स्थापित किये हैं। ( A Long Constitution is a (Positively) Bad Constitution: Evidence from OECD Countries)
1-बड़े संविधान वाले देशों में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का स्तर नीचे रहने और भ्रष्टाचार ज्यादा होने की प्रवृत्ति होती है। प्रति व्यक्ति जीडीपी पर संवैधानिक लंबाई का प्रभाव जारी रहता है, भले ही भ्रष्टाचार पर नियंत्रण हो।
2- लम्बे संविधानों में संशोधन करना अधिक कठिन होता है फिर भी आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि छोटे संविधानों की तुलना में इन्हे अधिक बार संशोधित किया जाता है।
संविधान की लंबाई और संशोधनों के बीच संबंध के बारे में लुत्ज़ ने शंका जताई थी कि बड़े संविधानों को अधिक बार संशोधित किया जाएगा, क्योंकि उनमें विस्तृत प्रावधान शामिल होने की संभावना है जो समय के साथ अप्रचलित होने का जोखिम रखते हैं। जब ऐसे प्रावधान सत्ताधारी बहुमत के कार्यों को प्रतिबंधित करते हैं, तो उन्हें या तो संशोधित किया जाएगा या पूरी तरह से हटा दिया जाएगा। नेग्रेट्टो ने लैटिन अमेरिका के लिए लुत्ज की भविष्यवाणियों की पुष्टि की।
समाज जैसे-जैसे परिपक्व होता जाता है वैसे-वैसे लिखित कानूनों की आवश्यकता कम होती जाती है। कई कानून तो सिर्फ कागज़ में रह जाते हैं और उनके अनुपालन के लिए सरकार या सत्ता को कोई प्रयास नहीं करना होता है। समाज को नियंत्रित करने वाले नए कानूनों की आवश्यकता नहीं होती यानी व्यवहारिक रूप में अलिखित कानूनों का अनुपात बढ़ता जाता है। नए कानून या नियम उन्ही क्षेत्रों में बनाने पड़ते हैं जो क्षेत्र नए विकसित हुए होते हैं, उदाहरण के लिए साइबर क़ानून।
इसके उलट अगर समाज अपरिपक्व हो रहा है तो आये दिन सरकार या सत्ता द्वारा नए नए क़ानून बनाये जाते हैं या अदालतों द्वारा बार बार परिभाषित किए जाते हैं और उनके अनुपालन के लिए तमाम तरह की संस्थाएं खड़ी की जाती हैं और कठोर दंड के प्रावधान करने पड़ते हैं। अर्थात लिखित कानूनों/ नियमों का अनुपात बढ़ता जाता है और दंड की कठोरता भी उसी अनुपात में बढ़ती है। साथ ही साथ कई नियम और कानून जो अर्से से निष्क्रिय पड़े थे उन्हें भी पुनर्जीवित किया जाता है।
किसी भी देश में अविश्वास का स्तर जितना ज़्यादा होता है उस देश में आर्थिक विकास की दर उसी अनुपात में कम होती है। ऐसे देश संविधान की लम्बाई का उपयोग अविश्वास की राजनीतिक संस्कृति के लिए एक प्रॉक्सी के तौर पर करते हैं। चूंकि संविधान बनाने वाले लोग या समिति अविश्वास के चलते दूसरे राजनीतिक दलों या सदस्यों को विवश रखना चाहते हैं इसलिए अधिक अविश्वास वाले देश अधिक विस्तृत कानून लिखने की संभावना रखते हैं।
भारतीय संविधान दुनिया का सबसे बड़ा संविधान है यानी जब संविधान बना तब हम दुनिया के कुछ सबसे अपरिपक्व और अविश्वास से भरपूर समाज में से एक थे इसलिए इतने बड़े संविधान की आवश्यकता हुई। लेकिन इससे भी भयावह पहलू यह है कि संविधान बनने के बाद से नियमों और कानूनों की संख्या और सज़ाओं की कठोरता में बढ़ोतरी ही हुई है। यानी हम एक समाज के तौर पर कतई परिपक्व नहीं हुए हैं।
एक उदाहरण के साथ मैं अपनी बात ख़त्म करूँगा। मैं नॉएडा में रहता हूँ और यहाँ अभी तक चौराहों पर ट्रैफिक सिग्नल तो हैं लेकिन उसे तोड़ने पर चालान करने के लिए ट्रैफिक पुलिस नहीं है ,इसके उलट दिल्ली में हर चौराहे पर ट्रैफिक पुलिस तैनात रहती है। आपने सिग्नल ब्रेक किया नहीं कि तुरंत आपको दंड मिलेगा। तो वही लोग जो दिल्ली में हर ट्रैफिक रूल फॉलो करते हैं, नॉएडा में घुसने के बाद बड़े इत्मीनान से सिग्नल ब्रेक करते हुए चलते हैं। जिससे अराजकता फैलती है।
यानी लिखित नियम भी समाज कितना मानता है यह भी एक बड़ा पहलू है। जो समाज लिखित नियम भी सिर्फ दंड मिलने के डर से मानता है वह अलिखित नियम कितना मानता होगा इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।