मराठों के छावा छत्रपति संभा जी राजे
तेज प्रताप नारायण
{ मराठा शासक छत्रपति संभा जी के जन्म दिवस पर उनके जीवन पर आधारित एक लेख }
छत्रपति संभा जी छत्र पति शिवा जी की पत्नी सई बाई के पुत्र थे ।इनकी माता सई बाई का इनके जन्म के दो वर्ष के बाद निधन हो गया और इनकी दादी जीजाबाई ने इनका पालन पोषण किया ।जीजाबाई जैसी वीरांगना के लालन पालन का असर इनके व्यक्तित्व पर पड़ा ।इन्हें ‘ छावा ‘ भी कहकर पुकारा जाता है जिसका मराठी में अर्थ शावक या शेर का बच्चा भी होता है ।इनका उपनाम शम्भु जी राजे भी था ।
मात्र 32 वर्ष की उम्र में शम्भा जी वीरगति को प्राप्त हुए थे ।इनका पूरा जीवन बहुत उथल पुथल से भरा था ।
संभा जी केवल एक वीर योद्धा ही नहीं थे बल्कि कई भाषाओं के जानकर भी थे ।उन्होंने कई किताबें भी लिखी हैं ।
14 मई 1657 में जन्मे संभा जी को पुरंदर की संधि के तहत मात्र 8 वर्ष की अवधि में मुग़ल सेना को अपनी सेवाएँ देनी थी जिस कारण से शिवा जी और संभा जी ने खुद को औरंगजेब के दरबार में प्रस्तुत किया ।जहाँ उन्हें नज़रबंद करने का आदेश दिया गया लेकिन वहाँ से किसी तरह वे बचकर भागने में सफल हो गए ।शिवा जी को लगा कि पुत्र की जान को ख़तरा हो सकता है इसलिए उन्हें एक रिश्तेदार के यहाँ छिपाकर उनके मरने की अफ़वाह उड़ा दी ।
यह भी माना जाता है कि संभा जी थोड़ा विद्रोही क़िस्म के थे जिस कारण शिवा जी ने उन्हें नज़रबंद भी कर दिया था ।जहाँ से भागकर वे मुगलों से मिल गए लेकिन औरंगज़ेब की क्रूरता देखकर वे वहाँ से फिर चले आए थे ।कई सारे विद्वान इस घटना को विवादित भी मानते हैं ,लेकिन यह सच है कि परिवार में उत्तराधिकार को लेकर विवाद था ।शिवा जी की दूसरी पत्नी सोयराबाई अपने पुत्र राजा राम को राजा बनते हुए देखना चाहती थी और पूरा परिवार भी राजा राम के पक्ष में ही था ।
अप्रैल 1680 में शिवा जी की मृत्यु के समय भी संभा जी नज़रबंद थे ।जब राजा राम को सिंहासन पर बिठाया गया तब अपनी शक्ति के बलबूते पर संभा जी ने क़िले पर क़ब्ज़ा कर लिया तथा राजा राम, उनकी माँ और उनकी पत्नी जानकी देवी को क़ैद कर लिया । जुलाई 1680 में संभा जी राजा बने और अक्तूबर 1680 में सोयराबाई को फाँसी दे दी गयी।
संभा जी एक साथ दो मोर्चे पर लड़े।एक ओर पुर्तगालियों से पंगा लिया तो दूसरी ओर मुग़लों के भी दाँत खट्टे करने शुरू कर दिये ।बुरहानपुर जैसे शहर पर हमला कर उसे नेस्तनाबूद कर दिया और इसके बाद से वे लगातार औरंगज़ेब की आँखों की किरकिरी बने रहे ।
1687 में मराठों की मुग़लों से भयंकर लड़ाई हुई जिसमें मुग़लों की हार हुई ।इसका असर यह हुआ कि घर में ही उनके दुश्मन पैदा हो गए । 1689 में संगमेश्वर में उन पर घात लगाकर हमला किया गया जिसमें इनके एक रिश्तेदार शिर्के परिवार की महत्वपूर्ण भूमिका रही ।इस हमले में सभी सरदार मारे गए और संभा जी को उनके साथी कवि कलश के साथ पकड़ लिया गया ।
गिरफ़्तार करने के बाद औरंगज़ेब ने उनके सामने प्रस्ताव रखा कि वे अपने सारे क़िले उन्हें देकर इस्लाम क़ुबूल कर लें फिर उनकी जान बख्श दी जाएगी लेकिन संभा जी इसके लिए राज़ी नहीं हुए और फिर सिलसिला हुआ यातना का ।उन्हें खूब प्रताड़ित किया गया । दोनो का शहर में जुलूस निकाला गया ,हर तरह से अपमानित किया गया ,लेकिन किसी भी सूरत में संभा जी ने स्वाभिमान से समझौता नहीं किया ।अंततः दोनो की ज़ुबान काट ली गयी ,आँखें फ़ोड़ दी गयी और फिर शरीर के टुकड़े टुकड़े कर दिए गए ।एक स्वाभिमानी वीर योद्धा का दुखद अंत हो गया ।
ऐसा भी मत है कि संभा जी ने अपने शौर्य से औरंगज़ेब के क़ब्ज़े वाले क़ई किलों को जीत लिया था और औरंगज़ेब अपनी उम्र के ढलान पर होने की वजह से ये इलाक़े पुनः जीतने की स्थिति में नहीं था और उसने संभा जी के महामंत्री पेशवा बालाजी विश्व नाथ भट्ट के साथ मिलकर संभा जी के साथ संधि करने का षड्यंत्र रचा और उनकी हत्या कर दी ।
संभा जी की मौत के बाद बिखरे हुए मराठा सरदार फिर से एकत्रित हुए और औरंगज़ेब का अपनी मौत तक दक्खिन पर अधिकार का ख़्वाब नहीं पूरा पाया ।संभा जी की मृत्यु के बाद उनके भाई राजाराम फिर से गद्दी पर बैठे और 11 वर्षों तक शासन किया ।राजाराम का भी लगातार मुग़लों से संघर्ष चलता रहा ।