रचना चौधरी की कविताएँ
कोलकता की युवा कवयित्री रचना चौधरी सिर्फ कविताएँ ही नहीं बल्कि कहानी लेखन में भी रुचि रखती हैं।आठ लेखकों द्वारा लिखित साझा उपन्यास ‘ज़िन्दगी है हैंडल हो जाएगी ‘ का सहलेखन और संपादन भी कर चुकी हैं ।
【मज़दूर के गर्भ की पीड़ा】
छः माह हुए थे गर्भ में माँ
मैं बहुत हुई उत्साहित थी
कहने को तीन माह शेष थे
पर दुनिया के प्रति लालयित थी,
तकदीर बदल दूंगी तेरी
सारी विपदाएं हर लूँगी
मज़दूर कदापि मजबूर नहीं
उम्मीद ये सबमें भर दूंगी ,
थी गर्भ में तो मदमस्त डोल मैं
निर्भर… तेरे खाने-पीने पे
पर देख तुझे चुपचाप सा कुछ
एक हूक़ उठी फिर सीने में ,
कुछ समझ न आता था मुझको
पर जब भूखी रह जाती थी
घर का चौका खाली है
बस इतना समझ मैं पाती थी,
हर वक्त थे पापा साथ आजकल
पर चुप्पी ही गहराई थी
वो भी चुप थे, तुम भी चुप थी
घनघोर उदासी छायी थी,
कुछ समझ मैं पाती कि इक दिन
चल निकले सब बाँध के गठरी
चाहिए थी जन्मने की ताकत
पर खाली थी माँ की ठठरी ,
कुछ कदम घिसटते थे संग में
शायद उनमें न चप्पल थी
पैरों के नीचे कंकड़ थे
रक्त सुखाने को धूप अव्वल थी,
मैं भूखी थी तुम भूखी थी
जठराग्नि जान पर भारी थी
संचय की पूँजी थी महलों में
और अपने संग लाचारी थी,
तुम प्रसव वेदना से व्याकुल
सड़कों पर लाशें लांघ थी
चिकित्सालयों के निषेध द्वार पर
खुदको ढांढस बांध रही थी,
सोचा था!
जन्मूँगी भोर की लाली में
काली रातों की शमशीर बनूँगी
जन्मूँ चाहे मज़दूर के घर
पर इक्कीसवीं सदी
की तकदीर बनूँगी,
न मालूम था कि चीथड़ों में
कंक्रीटों पे गरीबी घिसटेगी
ऊपर वातानुकूलित वायुयान में
सुविधायें अट्टहास करेगी,
किस भारत की तकदीर हूँ मैं
क्या मूक अधीरता है मेरी
सशक्त विश्राम का कर रहे
अभ्यास
मजबूरी छालों में फ़फ़क रही,
विश्वगुरु बनने का तुम
अध्याय कोई भी लिख डालो
घायल भारत को स्वस्थ्य
दिखने का भरम तो मत पालो,
बेघर होने की चोट से जो
लहू बेबसी का रिस रहा
उसमें देखो तो साफ़ -साफ़
अमीरों का भारत दिख रहा,
लेते ही जन्म जो खाई गहरी
देश में अपने पायी है
कूद उसी में उमीदों ने
मेरी औकात दिखाई है,
हैं ज़ात दो ही बस इस जग में
जिसकी मानक बस जेबें हैं
कुचलों को और कुचलकर के
महल भरने की तरकीबें हैं,
देख के अपनी ज़ात की हालत
चलो ये भी था स्वीकार हमें
पर यूँ न रौंदो कुव्यवस्था से
दो जीने का तो अधिकार हमें!
दो जीने का तो अधिकार हमें ! !!
【मेडल】
उसका बौना आत्मबोध
बड़ी आसानी से पहन लिया करता है
कई सुनहरे मेडल्स और
उसकी संतुष्टि के नन्हें हाथों में
थमा दी जाती हैं
कई सारी ट्रॉफियां….
और !
और वो आत्ममुग्धा
लाकर टांग देती है
सारे मेडल्स….
उन खूंटियों पर
जो गाड़ दिए गए थे
मन की दीवारों पर
उसके सजग होने से पहले ही,
फिर सजा देती है
आत्मसंतुष्टि की मेज पर
वो सारी ट्रॉफियां !
शायद पहनाया था खुद को
पहला मेडल….
स्कूल में वृत्त की त्रिज्या
निकालने पर नहीं
बल्कि चौके पे पहली
वृत्ताकार रोटी बेलने पर,
दूसरा शायद पड़ोस वाली चाची
से मिली तारीफ..
शऊर से दुपट्टा ओढ़ने पर,
और इसी तरह
वो आभासी आदर्श के
तमगे बटोरती
गढ़ने लगी
अपनी सफलता की
परिभाषाएं !
यूँ ही कभी
अपने सौंदर्य के बलबूते
हासिल हुए अच्छे घरबार के लिये
तो कभी प्रताणित होने पे भी
चुपचाप सुबककर
अपने मर्यादित व्यवहार के लिये
वो नवाजती रही स्वयं को
भांति-भांति के मेडल्स और ट्रॉफियों से
और फिर सूने घर के
ड्राइंग रूम में रखे
अपने बच्चों की ट्रॉफियों से
धूल साफ करते वक़्त
एकांत सी किसी दोपहर
चली जाती है वापस
अपने मन के उसी तहखाने में….
जहां अभी भी
लटके पड़े हैं
न जाने कितने अनगिनत
मेडल्स….
उन्हीं गाड़ी गयी खूंटियों पर !
【बालपन】
ज़रूरी नहीं कि रौनक
सिर्फ बेटियों से होती है
ज़रूरी नहीं कि सबलता
सिर्फ बेटों से आती है |
बचपन तो बच्चों का
वैसे भी चहका करता है,
चाहे बेटी हो या बेटा
घर तो दोनों से महका करता है |
उन्हें ‘मेरी बेटी मेरा मान ‘ या
‘मेरा बेटा सर्वशक्तिमान ‘
कहकर किसी भी तरह का
ठप्पा मत लगाइये ,
वो स्वाभाविक रूप से जैसे हैं
उन्हें उनके ‘बालपन ‘ की
नादान हरकतों से ही अपनाइये |
खुशहाल बचपन पर किसी
भारी भरकम अपेक्षा का
बोझ मत डालिये ,
उन्हें गिरकर ,खुद सँभलने दीजिये
हाँ कोई भी नकारात्मक सोच
उनके ज़ेहन से फ़ौरन निकालिये |
बेटे या बेटी दोनों को
एक ”लायक औलाद ” बनने दीजिये
गिनती सीखने की उम्र से ही
उनकी योग्यता या उपयोगिता का
मोल भाव मत कीजिये |||
【भ्रष्टाचार】
आचारों विचारों का स्तर ही
तय किया करता है ,
एक समाज का स्तर…
मगर जब अचार विचार ही
भ्रष्ट हो जाएँ,
आत्मकेंद्रित हो जाएँ , तो
पनपने वाला भ्रष्टाचार
स्याह कर डालता है ,
कई ज़िंदगानियाँ…
छीन लेता है ,
रोटियों के लिए बचाये हुए रुपये भी…
सुकूं से जीने की उम्र को भी
लाचार कर देता है,
कचहरी और दफ्तरों के चक्कर लगाने को…
ढहा देता है स्वप्नमहलों को ,
उन्हें खड़ा करने वाले आँखों के सामने ही..
रौद डालता है किसी पुल के नीचे ,
बच्चों के लिए टॉफियां ले जाते किसी बाप को…
अनसुना कर जाता है ,
भूख से दम तोड़ती तमाम सिसकियों को…
ईमानदारी से बने घरौंदों को बौना कर देता है ,
बेईमानी की नीव पर खड़े विशाल महलों के सामने..
न्याय की भीख मांगते हुए पीड़ित या पीड़िता को
घुटनो के बल लाकर छोड़ता है , अन्याय के सामने…
बेमौत मार देता है , कहीं किसी अस्पताल में
किसी अक्षम रुग्ण शरीर को…
रोक देता है तमाम सुविधाओं के प्रवाह को
उसके अपेक्षित उपभोगकर्ताओं तक आने से पहले..
भर जाता है , पहले से भरी हुयी तिजोरियों को
और भी ज्यादा , और फटेहाल क़र जाता है
पहले से ही तंग जेबों को..
और ये भ्रष्टाचार मिटाएगा कोई कैसे
अलिखित जो है इसका कारोबार..
श्वेतवसनधारियों के स्वनिर्मित
नैतिकता के सूत्रों पर आधारित
इस भ्रष्टाचार पर प्रहार
भला कैसे हो पायेगा….
यदि कोई साहस क़र भी ले , तो
इन भ्रष्ट आँधियों के आगे कोई दीप
आखिर कब तक जला रह पायेगा…
इसीलिए कलम की स्याही से
भ्रष्टाचार को लीपने की कवायद
बड़ी जीर्ण शीर्ण प्रतीत होती है
किन्तु ये विश्वास भी अटल है
कि बेरंग और सफेदी के आवरण में
मुंह छुपाये भ्रष्टाचार पर
कभी तो स्याही का रंग
अपना असर दिखायेगा ही….
【मृत्यु】
ढोना अपने ही काँधे पर
अपनी ही भूख को
मानसिक लाचारी को
शारीरिक विवशता को
किसी भयावह बिमारी को,
ठहर जाना ज़िन्दगी का
कभी दुखों में डूबकर
कभी अपना सबकुछ खोकर
कभी ख्वाहिशों को मुखाग्नि देकर
कभी कोई गलत राह चुनकर,
निष्क्रिय हो जाना
उम्मीदों का
इच्छाओं का
नैतिकता का
अच्छाइयों का,
सुषुप्त पड़ जाना
मानववादी मूल्यों का
ह्रदय की उदारता का
कर्मठता का
आत्मीय संबंधों का,
शिथिल हो जाना
शरीर के अंगों का
कभी विचारों का
जीवन प्रवाह का
सभी संबंधों का
ये सभी कुछ
मृत्यु का ही तो
विभिन्न पर्याय है
मृत्यु जीवन का अंत भले सही
किन्तु ऐसी निष्क्रियता,
सुषुप्तता, शिथिलता
असल में इसी मृत्यु का
अलग अलग अध्याय है।
1 Comment
बहुत सुंदर कविताएँ ।