वंदना पराशर की कविताएँ
परिचय- वंदना पराशर
जन्म- 1984,सहरसा, बिहार
शिक्षा-एम.ए, नेट
पी.एच.डी (अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी)
भाषा-हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत,मैथिली(मातृभाषा),
कुछ प्रकाशित कविताएँ- कादंबनी, अभिनव प्रत्यक्षा में प्रकाशित आदि।
वर्तमान पता- अलीगढ़, उत्तर प्रदेश
टिप्पणी : वंदना पराशर की कविताओं के केंद्र में स्त्री विमर्श है जैसा कि हर स्त्री की रचनाओं में होता है,लेकिन इनकी कविताएँ स्त्री विमर्श की परिधि का अतिक्रमण भी करती हुई दिखाई देती हैं । उदाहरण के लिए स्त्री की दशा को रूपायित करती हुई इनकी कविताएँ धर्म के ठेकेदारों और शास्त्र निर्माताओं से बिना डरे हुए तमाम नियमों के बारे में प्रश्न करती हैं जो जाति और लिंग को देखकर बनाई गईं हैं । इनकी कविताओं में प्रकृति और श्रम के बीच रागात्मक संबंध दिखाई पड़ता है ।
एक रचनाकार को सजग होना चाहिए तभी वर्तमान को समग्रता से परिभाषित किया जा सकता है , नहीं तो कुछ हिस्से उभर जाते हैं और कुछ पिचक जाते हैं । एक विशेष विमर्श में लिखी हुई रचनाओं में यह बात अक्सर हो जाती है जिससे रचनाकार की दृष्टि मियोपिक हो जाती है । फिलहाल वंदना पराशर की इन रचनाओं में ऐसा नहीं दिखा कि स्त्री अधिकारों के प्रति उनकी चेतना ने और कुछ न देखने दिया हो । इसके लिए वे बधाई की पात्र हैं ।
आम बोलचाल की भाषा में लिखी गईं इनकी कविताओं में भाव सम्प्रेषण की अच्छी क्षमता है । देशज शब्दों जैसे स्त्रियाँ शब्द के साथ कठकरेज का प्रयोग अभिव्यक्ति की तीव्रता को और बढ़ा देता है ।
【देहरी के उस पार】
चाक-चौबंध स्त्रियां
लांघ गई है देहरी
पसर गई है अमरबेल-सी
उन तमाम दिशाओं व भू -भागों में
जहां वर्जित है,
केवल स्त्रियों का जाना
कठकरेज स्त्रियां अब
भयभीत नहीं होती है
धर्म के ठेकेदारों से
उन शास्त्र-निर्माताओं से
जो धर्म की व्याख्या
मनुष्य की जाति व लिंग देखकर करते हैं
सावधान! प्रहरी
इसे मत रोको
कर लेने दो प्रवेश
उन तमाम दिशाओं व भू-खंडों में
जहां वर्जित है
स्त्रियों का जाना
इसे केवल मृगनयनी,कोमलांगी समझने की
भूल मत करना
सिंहनी है ये
बंजर धरती की कोख से
जो उगा लेती है फूल
इसे मत रोको, प्रहरी!
मंदिर के द्वार से
लौटाई गई स्त्रियां
अट्टहास कर पूछती हैं
मंदिर के गर्भगृह में
पाषाण होकर पूजित
उस स्त्री से की बतलाओ वह उपाय
जो पत्थर में ढालकर
तुम्हें देवी बना दिया है
बतलाओ की
कब तोड़ोगी यह कारा
और स्वतंत्र होकर
प्रवेश करोगी उन तमाम
दिशाओं व भू -भागों में
जहां वर्जित है
केवल स्त्रियों का जाना।
【किरणें खेल रही अठखेलियाँ】
सागर की सतहों पर
रेत के कण-कण से
सीप से झाँकती
मोतियों के कण-कण से
ताकती आँखों की पलकों से
किरणें खेल रही अठखेलियाँ
पत्तों की झुरमुट से
आम की डाली पर बैठी
श्यामा कोयल की झील-सी आँखों से
किरणें खेल रही अठखेलियाँ
नाविक के पलकों से
श्रम से नहाये हुए चेहरे पर
झर-झर गिरते बूँदों से
किरणें खेल रही अठखेलियाँ
【अपना घर】
स्त्री
भटकती है
जन्म से मृत्यु तक
खोजती हुई
एक घर
पिता से
भाई,
पति से
पुत्र तक
ढूँढ़ती हुई/अपना घर ।
【 नेह 】
आओ मिलकर साथ बिता लें
नदी के उस पार ‘तुम’
और ‘मैं’ नदी के इस पार
समय की धाराओं में हम
यूँ ही चलते रहे किनारे-किनारे
ज़रूरत तुम्हें भी थी
और मुझे भी
पुकारा तो तुमने भी होगा
कभी नदी की तेज़ लहरों में
तो कभी तेज़ हवा के झोकों में
गूँज बनकर वह अनसुनी-सी रह गयी
सोचा तो कई बार की हम
ले आये कहीं से पतवार
या बना ले नदी के ऊपर एक पुल
ख़ैर,
अब जाने दो बीती बातों को
जीवन के इस अंतिम पड़ाव में
आओ मिलकर साथ बिता लें।
आओ मिलकर,साथ-साथ हम
नदी को अपने में समा लें
【 बदलते हुए गाँव 】
गाँव धीरे-धीरे शहर में
तब्दील होने लगा है
बदलने लगी है यहाँ की आब-ओ-हवा
खिड़कियाँ अब ऊँची दीवारों में
तब्दील होने लगी है
लोग मिलते हैं यहाँ अब
‘टाइम’ देखकर
दिलखोल हँसी को,’फूहड़’ कहकर-
‘थोड़ा स्माइल करो’ सिखाते हैं
शहर से आये हुए कुछ लोग
सीधे-सादे सच्चे लोग
‘सभ्य’ कहलाने की होड़ में लगे हैं
अभी-अभी शहर बिताकर आया
अपना मुन्ना भी तो अपने पापा को
‘पा’ कहकर बुलाता है
धीरे-धीरे शहर में तब्दील होने लगा है
गाँव।
2 Comments
वंदना जी के कविताओं में नव स्त्री के प्रश्न हैं, स्वर हैं परिवर्तन के। वह आम स्त्रियों की आवाज को मुखरित करती नजर आती हैं एक तरफ, तो दूसरी तरफ जो असमानताएं स्त्रियां स्वयं नहीं समझ पाई हैं, ये आकर्षित करवाती है उनका ध्यान उस तरफ।
कवयित्री को ढेरों शुभकामनाएं शुभ विचार और नव स्त्री के क्रांति के उद्घोष के लिए।
वंदना जी को ढेर सारी शुभकामनाएं।सभी कविताएं बहुत सुंदर व समसामयिक।