संजीव ‘शाक़िर ‘ की कविताएँ

संजीव वर्मा “शाकिर” केनरा बैंक,छपरा में कार्यरत हैं ।

【 दास्तान-ए-दिल 】

खो गए क्या?
जैसे बारिश की बूंद समंदर में खोती है।
या फिर सो गए क्या?
जैसे नन्ही बच्ची मां की गोदी में सोती है।।

खैर छोड़ो,
अब इतनी भी फिक्र, क्या करना।
जो लौटे ही ना,
उसका ज्यादा जिक्र, क्या करना।।

तेरी बहकी-बहकी बातें
अब भी याद आती हैं।
वो भीनी-भीनी सी मुलाकातें
मुझे बहुत तड़पाती है।।

वो तेरा पास बैठकर
कोहनी मारना।
जोर की लगने पर
प्यार से पुचकारना।।

चार कदम चलते ही,
तेरा ऑटो को हाथ देना।
भैया ज्यादा दूर नहीं,
बस पीवीआर पर रोक लेना।।

ऑटो से उतरते ही
तेरा पानी पुरी खाना।
ये क्या भैया, सादा-सादा
जरा तीखा और मिलाना।।
एक कड़क गोलगप्पा,
मेरे होठों के पास लाना।
मेरे “अ-आ” करते ही
झट से गप कर जाना।।

हां सब याद है मुझे,
पर क्या तुम्हें भी?
बैठती थी मेरी गोद में,
और देखती थी उसे भी।।

आखिर क्या मिला तुझे,
मुझे बर्बाद करके।
हां मैं तड़पा बहुत मगर,
तुझे याद करके।।
और तेरा क्या हुआ?
अरे ओ जानेमन।
क्या हुई तू आबाद?
खुद को आजाद करके।।

जो मेरा हो न सका,
वो तेरा क्या होगा?
तू भी तड़पेगा एक दिन,
तब यह फैसला होगा।।

हां, ये मैंने ही कहा था उससे
तू पास जिसके भी गई थी।
वो बंदा रिस्तों का बड़ा पक्का था,
भले ही, दोस्ती नयी-नयी थी।।

अब भी वो जिगरी मेरा है
तू जाने कहां पर खो गई?
तेरी यादें रूह में जिंदा है
बस तू रगों में सो गई।।

खैर छोड़ो,
अब इतनी भी फिक्र, क्या करना।
जो लौटे ही ना,
उसका ज्यादा जिक्र, क्या करना।।

【 रक्तदान 】

है एक पुकार जो गूंज रही
निशदिन-निशपल बन के माया।
हो धन्य, धरा पर विचरू फिर मैं
मेरा रक्त किसी के जो काम आया।।

हैं बहुतायत, इस जग में जो
फंसे हैं ऐसे मझधार में,
वहां जीवन-यापन की रीत निभाते
यहाँ कोई नहीं घर-बार में,,

मेरा रक्त लहू बन दौड़ेगा
रगों में जैसे अविरल धारा,
वो सहज ही संग मुझे पाएंगे
हो जैसे कोई अभिजन प्यारा,,

रहे मन प्रमुदित इस भवसागर में
जो ऐसा कोई पैगाम आया।
हो धन्य, धरा पर विचरू फिर मैं
मेरा रक्त किसी के जो काम आया।।

यहां अपना-पराया कोई नहीं
मेरा सबको राम-राम है,
सखा बन विचरो हृदय उपवन में
तुम्हें हर पल दुआ-सलाम है,,

बस इतना सा कष्ट तुम करना
मिलो जब भी हाथ मिलाना तुम,
गर गलती से मैं ना पहचानू
हंस कर गले लगाना तुम,,

रहूं कृतज्ञ सदा मैं उन बंधुओं का
कारण जिनके महा-पुण्य कमाया।
हो धन्य, धरा पर विचरू फिर मैं
मेरा रक्त किसी के जो काम आया।।

है एक पुकार जो गूंज रही
निशदिन-निशपल बन के माया।
हो धन्य, धरा पर विचरू फिर मैं
मेरा रक्त किसी के जो काम आया।।

        【 स्त्री 】

तुम इस जगत का मान हो
संपूर्ण सृष्टि का सम्मान हो,
तुम हो दृष्टांत हर क्षेत्र में
तुम अभिव्यक्ति हो, अभिमान हो।

तुम मेरा संसार हो
तुम ही मेरा घर द्वार हो,
तुम से है, अस्तित्व मेरा
तुम प्यार हो, परिवार हो।

तुम करुणा की जननी हो
तुम हो ममता की मूरत,
हर भाव तुम्हारा अगोचर है
प्रत्यक्ष के परोक्ष में,
छिपी है ऐसी सूरत।
अनदेखा अंजाना कितना भी कर ले कोई,
तुम दिल पर दस्तक देती हो
बनकर एक जरूरत।।

बहन बनकर तुम सिखाती हो आचरण,
कौन विसर सकता है जीवन का वो चरण।
हमदम बनकर जब घर में करती हो आगमन,
बच्चे-बड़े-बूढ़े सब होते हैं मगन।।

तुम मां हो तुम दुआ हो,
उम्र कितनी भी हो तुम्हारी
हर दिल में तुम जवां हो।
नन्ही सी कली तुम गोद में पली
उड़ती तुम गगन में जैसे कोई हवा हो।।
कानों से जो दिल में उतरती
तुम वो तोतली जुबां हो।
तुम हो जीवन की उपलब्धि
तुम माहौल खुशनुमां हो।

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